आहार-विहार सम्बन्धी परिवर्तित दृष्टिकोण

June 1963

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युग-निर्माण के लिए आवश्यक विचार क्रान्ति का उपयोग यदि शरीर-क्षेत्र में किया जा सके तो हमारा बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य सुधर सकता है। बीमारियों से सहज ही पिण्ड छूट सकता है। आज अपने शरीर की जो स्थिति है कल से ही उसमें आशाजनक परिवर्तन आरम्भ हो सकता है। अस्वस्थता का कारण असंयम एवं अनियमितता ही है। प्रकृति के आदेशों का उल्लंघन करने के दण्ड स्वरूप ही हमें बीमारी और कमजोरी का कष्ट भुगतान पड़ता है। सरकारी कानूनों की तरह प्रकृति के भी कानून हैं। जिस प्रकार राज्य के कानूनों को तोड़ने वाले अपराधी जेल की यातना भोगते हैं वैसे-ही प्रकृति के कानूनों की अवज्ञा कर स्वेच्छाचार बरतने वाले व्यक्ति बीमारियों का कष्ट सहते हैं और अशक्त , दुर्बल बने रहते हैं। पूर्व जन्मों के प्रारब्ध दण्ड स्वरूप मिलने वाले तथा प्रकृति प्रकोप, महामारी, सामूहिक अव्यवस्था, दुर्घटना, एवं विशेष परिस्थितिवश कभी-कभी संयमी लोगों को भी शारीरिक कष्ट भोगने पड़ते हैं, पर 90 प्रतिशत शारीरिक कष्टों में हमारी बुरी आदतें और अनियमितता ही प्रधान कारण होती है।

सृष्टि के सभी जीव-जन्तु निरोग रहते हैं। वन्य पशुओं और उन्मुक्त आकाश में विचरण करने वाले पक्षी यहाँ तक कि छोटे-छोटे कीट-पतंग भी समय आने पर मरते तो हैं पर बीमारी और कमजोरी का कष्ट नहीं भोगते। जिन पशुओं को मनुष्य ने अपने बन्धन में बाँधकर अप्राकृतिक रहन-सहन के लिए जितना विवश किया है उतनी अस्वस्थता का वास उन्हें भोगना पड़ता है, अन्यथा रोग और दुर्बलता नाम की कोई वस्तु इस संसार में नहीं है। उसे तो हम स्वेच्छाचार बरत कर स्वयं ही बुलाया करते हैं। यदि अपना दृष्टिकोण बदल दिया जाय, संयम और अनियमितता की नीति अपना ली जाय तो फिर न बीमारी रहे और न कमजोरी। डाक्टरों, अस्पतालों और औषधियों से रोग, कष्ट से तत्कालिक छुटकारा किसी हद तक भले ही मिल जाय पर इसका मूल कारण असंयम बना रहने से यह संभावना बनी ही रहेगी कि वही या कोई अन्य रोग फिर उत्पन्न हो जाय। इसलिए यदि स्वस्थ शरीर का आनन्द लेना हो तो उसका निर्धारित मूल्य—संयम-अपनाने के लिए तैयार होना चाहिए।

परिवर्तन साहस का काम है। कमजोर दिल दिमाग के आदमी सोचते तो बहुत हैं पर करते कुछ नहीं। मन के लड्डू खाने से किसी की भूख नहीं बुझती। पेट भरना हो तो रोटी कमाने, बनाने, और खिलाने का झंझट उठाने के लिए तैयार ही होना चाहिए। यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि बीमारी से छुटकारे के लिए कुछ दिन परहेज कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। अपनी आदतें ही संयमशीलता और आहार-विहार में व्यवस्था रखने की बनानी होगी। इस निर्माण में जिसे जितनी सफलता मिलेगी वह उतना आरोग्य लाभ का आनन्द भोग सकेगा।

व्यक्ति गत जीवन में हमें कुछ आदतों को पूरी श्रद्धा और तत्परतापूर्वक छोड़ना और कुछ को ग्रहण करना आवश्यक है।

1- दो बार का भोजन

भोजन, दोपहर और शाम को दो बार ही किया जाय। प्रातः दूध आदि हल्का पेय पदार्थ लेना पर्याप्त है। बार-बार खाते रहने की आदत बिलकुल छोड़ देनी चाहिए।

2-भोजन को ठीक तरह चबाया जाय

भोजन उतना चबाना कि वह सहज ही गले से नीचे उतर जाय। इसकी आदत ऐसे डाली जा सकती है कि रोटी अकेली, बिना साग के खावे और साग को अलग से खावें। साग के साथ गीली होने पर रोटी कम चबाने पर भी गले के नीचे उतर जाती है। पर यदि उसे बिना शाक के खाया जा रहा है तो उसे बहुत देर चबाने पर ही गले से नीचे उतारा जा सकेगा। यह बात अभ्यास के लिए है। जब आदत ठीक हो जाय तो शाक मिलाकर भी खा सकते हैं।

3—भोजन अधिक मात्रा में न हो

आधा पेट भोजन, एक चौथाई जल, एक चौथाई साँस आने-जाने के लिए खाली रखना चाहिए। अर्थात् भोजन आधे पेट किया जाय।

4—स्वाद की आदत छोड़ी जाय

आचार मुरब्बे, सिरका, मिर्च, मसाले, खटाई, मीठा की अधिकता पेट खराब होने और रक्त को दूषित करने का कारण होते हैं। इन्हें छोड़ा जाय। हल्का-सा नमक और जरूरत हो तो थोड़ा धनिया, जीरा सुगन्ध के लिए लिया जा सकता है, पर अन्य मसाले तो छोड़ ही देने चाहिये। शरीर के लिए जितना नमक,शक्कर आवश्यक है उतना अन्न शाक आदि में पहले से ही मौजूद है। बाहर से जो मिलावट की जाती है वह तो स्वाद के लिए है। हमें स्वाद छोड़ना चाहिये। अभ्यास के लिए कुछ दिन तो नमक मीठा बिलकुल ही छोड़ देना चाहिये और अस्वाद व्रत पालन करना चाहिये। आदत सुधर जाने पर हलका सा नमक, नींबू, आँवला, अदरक, हरा धनिया, पोदीना आदि को भोजन में मिलाकर उसे स्वादिष्ट बनाया जा सकता है। सूखे मसाले स्वास्थ्य के शत्रु ही माने जाने चाहिए। मीठा कम-से-कम लें। आवश्यकतानुसार गुड़ या शहद से काम चलायें।

5—शाक और फलों का अधिक प्रयोग

शाकाहार को भोजन में प्रमुख स्थान रहे। आधा या तिहाई अन्न पर्याप्त है। शेष भाग शाक, फल, दूध, छाछ आदि रहे। ऋतु-फल सस्ते भी होते हैं और अच्छे भी रहते हैं। आम, अमरूद, बेर, जामुन, शहतूत, पपीता, केला, ककड़ी, खीरा, तरबूज, खरबूजा, आदि-आदि अपनी-अपनी फसलों पर काफी सस्ते रहते हैं। लौकी, तोरई, परमल, टमाटर, पालक, मेथी आदि सुपाच्य शाकों की मात्रा सदा अधिक ही रखनी चाहिये। गेहूँ, चना, आदि को अंकुरित करके खाया जाय तो उनसे बादाम जितना पोषक तत्व मिलेगा। उन्हें कच्चा हजम न किया जा सके तो उबाला, पकाया भी जा सकता है। अन्न, शाक और फलों के छिलकों में जीवनतत्व ( विटामिन ) बहुत रहता है, इसलिए आम, केला, पपीता आदि जिनका छिलका आवश्यक रूप से हटाना पड़े उन्हें छोड़कर शेष के छिलके खाये जाने ही ठीक हैं।

6—हानिकारक पदार्थों से दूर रहें

माँस, मछली, अण्डा, पकवान, मिठाई, चाट, पकौड़ी जैसे हानिकारक पदार्थों से दूर ही रहना चाहिए। चाय, भाँग, शराब आदि नशों को स्वास्थ्य का शत्रु ही माना गया है। तमाखू खाना-पीना, सूँघना, पान चबाना आदि आदतें आर्थिक और शारीरिक दोनों ही दृष्टि से हानिकारक हैं। बासीकूसी, सड़ी-गली, गन्दगी के साथ बनाई हुई वस्तुओं से स्वास्थ्य का महत्व समझने वालों को बचते ही रहना चाहिए।

7—भाप से पकाए भोजन के लाभ

दाल-शाक पकाने में भाप की पद्धति उपयोगी है। खुले मुँह के बर्तन में तेज आग से पकाने से शाक के 70 प्रतिशत जीवन-तत्व नष्ट हो जाते हैं इस क्षति से बचने के लिए कुकर जैसी भाप से पकाने की पद्धति अपनानी चाहिए। इसी प्रकार हाथ की चक्की का पिसा आटा काम में लाना चाहिए। मशीन की चक्कियों में पिसे आटे के अधिकाँश जीवनतत्व नष्ट हो जाते हैं। हाथ की चक्कियों और भाप से पकाने के बर्तनों का घर-घर प्रचलन होना चाहिए। ढीले और कम कपड़े पहनने चाहिए। सर्दी-गर्मी का प्रभाव सहने की क्षमता बनाये रहनी चाहिए। चिन्ता और परेशानी से चिन्तित न रहकर हर घड़ी प्रसन्न मुद्रा बनाये रहनी चाहिए।

8—स्वास्थ्य रक्षा के लिए सफाई आवश्यक है

सफाई का पूरा ध्यान रखा जाय। शरीर को अच्छी तरह घिसकर नहाना चाहिए। शरीर को स्पर्श करने वाले कपड़े रोज धोने चाहिए। बिस्तरों को जल्दी-जल्दी धोते रहा जाय। धूप में तो उन्हें नित्य ही सुखाया जाय। घरों में ऐसी सफाई रखनी चाहिए कि मकड़ी, मच्छर, खटमल, पिस्सू, जुएं, चीलर, छिपकली, छछूँदर, चूहे, चमगादड़, घुन आदि बढ़ने न पावें। मल-मूत्र त्यागने के स्थानों की पूरी तरह सफाई रखी जाय। नालियाँ गन्दी न रहने पावें। खाद्य पदार्थों को ढक कर रखा जाय और सोते समय मुँह ढका न रहे। मकान में इतनी खिड़कियाँ और दरवाजे रहें कि प्रकाश और हवा आने जाने की समुचित गुंजाइश बनी रहे। बर्तनों को साफ रखा जाय और उनके रखने का स्थान भी साफ हो। दीवार और फर्शों की जल्दी-जल्दी लिपाई, पुताई, धुलाई करते रहा जाय। सफाई का हर क्षेत्र में पूरा-पूरा ध्यान रखा जाय। हर भोजन के बाद कुल्ला करना, रात को सोते समय दाँत साफ करके सोना, अधिक ठण्डे और गरम पदार्थ न खाना दाँतों की रक्षा के लिए आवश्यक है। जो इन नियमों पर ध्यान नहीं देते उनके दाँत जल्दी ही गिरने और दर्द करने लगते हैं।

9—खुली वायु में रहिए

रात को जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने की आदत डाली जाय। इससे स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और सबेरे के समय का जिस कार्य में भी उपयोग किया जाय उसी में सफलता मिलती

है। प्रातः टहलने, व्यायाम एवं मालिश करने के

उपराँत रगड़कर नहाने का अभ्यास प्रत्येक स्वास्थ्य के प्रेमी को करना चाहिए। सबेरे खुली हवा में टहलने वाले और व्यायाम करने वालों का स्वास्थ्य खराब नहीं होने पाता। जो स्त्रियाँ टहलने नहीं जा सकती उन्हें चक्की-पीसनी चाहिए या ऐसा कोई पसीना निकलने वाला कड़ा काम करना चाहिए।

10—ब्रह्मचर्य का पालन

ब्रह्मचर्य का समुचित ध्यान रखा जाय। विवाहित और अविवाहितों को मर्यादाओं का समुचित पालन करना चाहिए। इस सम्बन्ध में जितनी कठोरता बरती जायगी स्वास्थ्य उतना ही अच्छा रहेगा। बुद्धिजीवियों और छात्रों के लिए तो यह और भी अधिक आवश्यक है क्योंकि इन्द्रिय असंयम से मानसिक दुर्बलता आती है और उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुँचने में भारी अड़चन पड़ती है।

यह दस साधारण नियम हैं जिनका व्यक्तिगत जीवन में प्रयोग करने के लिए हममें से हर एक को अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार अधिकाधिक प्रयत्न करना चाहिये। परिवार के लोगों को इन स्वास्थ्य मर्यादाओं को पालन करने के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए। जो लोग अपने संपर्क में आयें उन्हें भी इन अमृत औषधियों का अवलम्बन करने के लिए प्रेरणा देनी चाहिए। बदले हुए दृष्टिकोण को अपनाने से स्वास्थ्य की समस्या हल हो सकती है। राष्ट्रीय अस्वस्थता की समस्या का हल इन्हीं तथ्यों को अपनाने से होगा। इसलिए धर्म कर्त्तव्यों की तरह ही इन आरोग्य मर्यादाओं का हमें पालन करना चाहिए और धर्म प्रचार की भावना से ही इन तथ्यों को अपनाने के लिए दूसरों को प्रेरित करना चाहिए।


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