तुम अन्धेरी रात लाओ, मैं सजाऊँ दीपमाला !
तुम करो बाधा उपस्थित, मैं कहूँ उसको सुअवसर
शाप का स्वागत करूं मैं माँग कर वरदान सुन्दर
मैं उतारूं आरती तुम को बनाकर यज्ञशाला
तुम अन्धेरी रात लाओ, मैं सजाऊँ दीपमाला !
मृत्तिका के पात्र लघु में, वर्त्तिका लघु स्नेह थोड़ा
पर तुम्हारी रात से मैंने किसी विधि नेह जोड़ा
कम न अब सुख के उजाले से मुझे दुख का उजाला
तुम अन्धेरी रात लाओ, मैं सजाऊँ दीपमाला !
मानता हूँ दो घड़ी में जायगी बुझ दीपमाला
किन्तु निज आलोक को तो जिन्दगी में देख डाला
कम कृपा यह भी नहीं जो स्नेह को तुमने सँभाला
तुम अन्धेरी रात लाओ, मैं सजाऊँ दीपमाला !
एक लम्बी आयु तक चल कर नहीं जो हाथ आया
वेग से जल कर व्यथित उर ने उसे तत्काल पाया
प्रश्न जो दिन भर टला वह रात में बिल्कुल न टाला
तुम अन्धेरी रात लाओ, मैं सजाऊँ दीपमाला !
एक दिन बुझना सभी को, हार बुझने से न होती
जीत जलने में निहित है, जीत द्युति बुझकर न खोती
हो तिमिर का बोलबाला, हो जलन का बोलबाला
तुम अन्धेरी रात लाओ, मैं सजाऊँ दीपमाला !
(श्री जगन्नाथ)