हमारी नीति और क्रिया-पद्धति

June 1963

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विश्व शान्ति का एक-मात्र उपाय है सत्य और धर्म का अवलम्ब। आत्म-कल्याण भी इसी मार्ग पर चलने से होता है। प्रत्येक निष्ठावान व्यक्ति को प्रचलित अंध-परम्पराओं में से केवल सत्य और धर्म के चुनने और अपनाने का साहस करना चाहिए। आदर्शवाद कहने और सुनने में अच्छा लगता है पर कठिनाई उसके व्यावहारिक रूप को क्रियान्वित करते समय आती है। इस कठिनाई से लड़ने के लिए ही युग-निर्माण योजना को एक आध्यात्मिक प्रशिक्षण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

विशुद्ध आध्यात्म साधन

जो योजनाएँ हम अपने स्वजन सहचरों के सम्मुख अगले पृष्ठों पर प्रस्तुत कर रहे हैं उन्हें विशुद्ध रूप से एक आध्यात्मिक साधना-क्रम माना जाना चाहिए, क्योंकि उन्हें व्यवहार में लाने पर सत्य और धर्म का ही अवलम्बन करना पड़ेगा, विवेक और कर्तव्य को ही प्रमुखता देनी पड़ेगी। स्वार्थ और लोभ का, वासना और तृष्णा का दमन किये बिना इनमें से एक भी कार्य नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत योजना में से किसी का भी, किसी भी अंश में आचरण किया जायगा तो उससे जीवन शोधन की प्रक्रिया स्पष्ट ही पूर्ण होगी और लोक सेवा तो प्रत्यक्ष ही बन पड़ेगी। इस प्रकार जीवन-विकास का लक्ष्य दिन-दिन प्रशस्त होता जायगा। सेवा-धर्म के अपनाये बिना किसी का शरीर, किसी का जीवन, किसी का धन, किसी का ज्ञान सार्थक नहीं हो सकता। अखाड़े में जाये बिना किसे तैरना आया है? इसी प्रकार सेवा कार्य में संलग्न होकर त्याग और करुणा की वृत्तियों को विकसित किये बिना किसी का भी अन्तःकरण न निर्मल हो सका है,और न आगे होगा।

सेवा का सूक्ष्म दर्शन

सेवा कार्यों द्वारा आत्मोन्नति करने का मार्ग सनातन शाश्वत और सर्वसुलभ है। उपासना का सम्मिश्रण हो जाने से तो सेवा सोने में सुगंधि का काम करती है। इस मार्ग में जितना अपना लाभ है उतना ही दूसरों का भी लाभ है। जिनकी सेवा की गई है उनका हित साधन होगा ही, उनके सुखों में वृद्धि होगी ही। इस प्रकार उससे स्वार्थ और परमार्थ दोनों का लाभ है। जहाँ अपना जीवन धन्य बनता है वहाँ दूसरों के उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होने में जनता जनार्दन की, विश्व वसुधा की सुख शान्ति में वृद्धि होती है। जिन विपत्तियों में होकर आज समस्त संसार गुजर रहा है उन्हें हल करने का मार्ग अपनाते हुए यदि हम आत्म-कल्याण का लक्ष्य भी पूरा करते हैं तो यह निस्संदेह बहुत बड़ी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता की ही बात कही जायगी।

विचार परिवर्तन ही जीवन परिवर्तन का मूल है। जिस दिशा में भी परिवर्तन प्रस्तुत करना है उससे सम्बन्धित मान्यताओं और विचारधाराओं में परिवर्तन करना होता है, साथ ही यह भी प्रयत्न किया जाता है कि परिवर्तित विचारधाराओं के अनुरूप कार्य पद्धति में ही हेर-फेर करने का साहस लोग करने लगें। यही एक मात्र प्रक्रिया युग परिवर्तन की कार्य पद्धति है। हमें यही सेवा-क्रम अपनाना है। विपत्तिग्रस्तों को उनकी तात्कालिक आवश्यकता के अनुरूप कुछ आर्थिक या शारीरिक सहायता पहुँचाना भी आवश्यक होता है, पर ऐसे अवसर सदा नहीं आते। ऐसे विपत्तिग्रस्त, जिनकी सहायता दूसरों को करनी ही पड़े कम ही होते हैं। धन अपहरण करने के लिए चोर डाकुओं की भाँति बहानेबाज़ बहरूपिये भी बहुत फिरते हैं। वे कभी पीड़ित का रूप बना लेते हैं, कभी धर्मध्वजी का। वस्तुतः विपत्ति-ग्रस्तों को उनकी स्थिति सँभलने तक सहायता करना उचित है, पर भावुकतावश ऐसे धूर्तों के जाल में भी नहीं फँसना चाहिए, जो वस्तुतः सहायता के अधिकारी नहीं होते हैं। जिन्हें मुफ्त का धन प्राप्त करने का चस्का पड़ जाता है, वे आलसी और निकम्मे ही नहीं बनते वरन् बहानेबाजी, प्रवंचना एवं अनेक नैतिक बुराइयाँ भी बढ़ाने लगते हैं। इसलिए सेवा के मार्ग में इस खतरे से भी हम सबको पूरी सतर्कता और सावधानी बरतनी चाहिए, अन्यथा पुण्यफल देने वाली होने की अपेक्षा वह सेवा पाप और दुष्टता का पोषण करने लगेगी और सर्प को दूध पिलाने पर विष बढ़ने के समान संसार में विपत्ति ही उत्पन्न करेगी।

सद्विचारों की प्रचण्ड शक्ति

सद्विचारों की प्रेरणा और सत्कर्मों के लिए प्रोत्साहन यही इस विश्व का सबसे बड़ा पुण्यकार्य है। इसे ही ब्रह्म-दान या ज्ञान-यज्ञ कहते हैं। युगनिर्माण का आयोजन करते हुए हमें ज्ञान-यज्ञ के लिए बड़े से बड़ा त्याग और प्रयत्न करना चाहिए। ज्ञान में वह शक्ति मौजूद है कि उसको यदि भावना स्तर तक पहुँचा कर प्रखर एवं ओजस्वी बना दिया जाय तो निस्संदेह व्यक्ति उस प्रकार के कार्य करने लगेगा, और जहाँ सत्कर्म होने लगेंगे वहाँ स्वर्गीय वातावरण उत्पन्न होने में कोई कठिनाई या कमी न रहेगी।

हम यही प्रयत्न करने चले हैं। इन पंक्तियों के माध्यम से, तथा अन्तरात्मा की प्रचंड आकाँक्षा द्वारा ‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ के प्रत्येक सदस्य के मन में यह भावनाएँ उत्पन्न हो रही हैं कि उसे उपासना, जीवन शोधन और सेवा कार्यों का भी उसी प्रकार ध्यान रखना चाहिए जैसे कि रोटी कमाने, वासनाओं को तृप्त करने तथा शरीर का पोषण करने का ध्यान रखा जाता है। यदि इस प्रयत्न में हमें सफलता मिलती है तो निश्चय ही तीस हजार व्यक्तियों का आज का ‘अखंड-ज्योति परिवार’ कल लाखों और परसों करोड़ों व्यक्तियों के जीवन में सत्प्रवृत्तियों का जागरण उत्पन्न करके स्वर्गीय परिस्थितियों का निर्माण करेगा।

सत्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि

हमें ऐसे सेवा कार्यों का सृजन करना चाहिए जिनके संपर्क में आने वाले प्रभावित हुए बिना न रहें। अन्न-वस्त्र देने से किसी की भूख बुझ सकती है, सामयिक आवश्यकता पूरी हो सकती है, पर उसे वह मार्ग नहीं मिल सकता जिससे उसे आजीवन अपने अभावों को अपने बलबूते पर दूर करने का उपाय मिल जाय। जो ज्ञान इस आवश्यकता को पूर्ण कर सकता हो वह हजारों मन अन्न और ढेरों वस्त्र देने से अधिक महत्वपूर्ण है। हमें महत्वपूर्ण भूमिका प्रतिपादित करनी है, इसलिए महत्वपूर्ण सेवा कार्यों का भी अपनाया जाना जरूरी है।

जिन सेवा कार्यों को हम पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं वे सभी ऐसे हैं जिनसे व्यक्ति की तात्कालिक आवश्यकताएँ पूर्ण करने में ही सुविधा न मिलेगी वरन् जीवन की समस्याओं के सुलझाने में भी स्थायी रूप से योगदान मिलेगा। साथ ही एक विशेषता यह भी है कि इसमें धन की नहीं भावना की ही प्रधानता रहेगी। इन कार्यों को गरीब और स्वल्प साधन सम्पन्न व्यक्ति भी कर सकते हैं।

अपनी कार्यशैली यह होनी चाहिए कि योजना की प्रस्तुत विचारधारा को जन-मानस में प्रवेश कराने के लिए हम सब व्यापक रूप से प्रयत्न करें। युग-निर्माण की विचारधारा अत्यन्त ही प्रौढ़ और प्रखर चेतना युक्त , विश्व-समस्याओं से परिपूर्ण है। इसे जनमन में प्रवेश कराने के लिए हमारा विशाल परिवार यदि जुट पड़े तो चक्रवृद्धि ब्याज के क्रम से लाखों-करोड़ों अन्तःकरणों में यह प्रेरणा हिलोरें मारने लगेगी।

प्रभाव क्षेत्र में प्रेरणा

अच्छा तो यह है कि हम लोग अधिक से अधिक जन संपर्क बनावें और प्रस्तुत विचारधारा को अपनी बुद्धि, प्रतिभा और सामयिक परिस्थिति के अनुसार विभिन्न प्रकार से उन सबको समझावें जो अपने संपर्क में किसी भी प्रकार आया करते हैं। अपने स्त्री, पुत्र, कुटुम्बी, मित्र, स्वजन, सम्बन्धी, परिचित एवं किसी भी रूप में संबद्ध होने वाले व्यक्तियों को इस विचार धारा का परिचय मिले और वे उस प्रेरणा से प्रेरित होकर कुछ करने के लिए कटिबद्ध हो जायँ ऐसा प्रयास असंभव नहीं पूर्णतया संभव है। सच्ची चेष्टा होने पर सचाई से भरे विचार निस्संदेह दूसरों पर जादू की तरह असर कर सकते हैं।

पिछले 24 वर्षों में अपने तुच्छ प्रयत्नों से करीब 20 लाख व्यक्तियों को निष्ठापूर्वक गायत्री उपासना में संलग्न किया जा चुका है। तब की अपेक्षा अब अपने साथियों की संख्या और निष्ठा कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी है। युग-निर्माण की जिस योजना को लेकर कार्यारंभ किया जा रहा है वह आज उपहासास्पद भले ही लगे पर कल या परसों उसका अत्यन्त विशाल रूप सामने आने वाला है। उसकी सफलता के सम्बन्ध में सन्देह करने की कोई बात नहीं, क्योंकि इसके पीछे युग की पुकार और दैवी प्रेरणा का प्रचंड बल मौजूद है। यह बल जिस प्रक्रिया के भी पीछे होगा उसकी सफलता सुनिश्चित ही रहती है।

‘अखण्ड-ज्योति’ इस प्रवृत्ति का मूल उद्गम होने से उसको अधिकाधिक लोगों में पढ़ाया या सुनाया जाना आवश्यक है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति एक सर्वप्रथम कार्य यह करे कि अपनी पत्रिका को अपने संबंधित समाज में लोक-प्रिय बनाने का प्रयत्न करे। जो लोग इसे पढ़ेंगे वे इन कार्यक्रमों से प्रभावित होंगे और उस मार्ग पर चलने का प्रयत्न करेंगे जिसके लिए कि प्रेरणा दी जा रही है। एक निश्चित विचारधारा से प्रभावित लोगों का संगठन भी बन सकता है और उनके द्वारा ऐसे सामूहिक प्रयत्न भी आरम्भ हो सकते हैं जो युग-परिवर्तन की महत्वपूर्ण भूमिका के रूप में संसार के सामने आवें।

विचार क्रान्ति का प्रतिफल

नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए लोकमानस को अनुकूल एवं भावान्वित करने का हमारा प्रथम प्रयत्न होना चाहिए। इस प्रयत्न को विचार क्रान्ति कहा जा सकता है। विचार क्रान्ति जब मस्तिष्क क्षेत्र से उतर कर व्यवहार क्षेत्र में आवेगी तो उसका परम श्रेयस्कर स्वरूप नैतिक क्रान्ति जैसा दिखाई देगा। मनुष्य ईश्वर का पुत्र है। उसे पृथ्वी का देवता कहा गया है। असत् मार्ग छोड़ कर-असत् दृष्टिकोण का परित्याग कर यदि वह विवेक, सत्य, धर्म और कर्तव्य को अपना ले तो फिर इस धरती पर प्रत्यक्ष ही स्वर्ग अवतरित दिखाई देगा। इसी महा अभियान में संलग्न होने के लिए हम अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य का आह्वान करते हैं।


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