यों कर्म के बाह्यरूप को देखकर भी उसके भले-बुरे होने का अनुमान लगाया जाता है, पर उसकी वास्तविक कसौटी कर्त्ता की भावना ही रहती है। आमतौर से सद्भावना की प्रेरणा से जो कर्म किए जाते हैं, वे शुभ, सराहनीय और नैतिक ही होते हैं, पर कभी−कभी बाहर से भर्त्सनायोग्य दिखने वाले कुछ कार्य ऐसे भी होते हैं, जो सद्भावनापूर्वक किए गए होते हैं। ऐसी दशा में आध्यात्मिक दृष्टि से उन्हें शुभ ही माना जाएगा और उनका परिणाम भी कर्त्ता को शुभ ही मिलेगा, भले ही लौकिक दृष्टि से उन्हें निंदनीय कहा जाए।
बाह्यस्वरूप वास्तविक नहीं
लौकिक दृष्टि से कर्म के बाह्यस्वरूप को ही महत्त्व दिया जाता है, क्योंकि व्यक्ति की भावना का प्रमाण उसी से तो मिलता है। भीतर की बात कर्त्ता या उसका भगवान ही समझता है। लोगों को तो किसी की मनोवृत्ति का परिचय उसकी बाह्य गतिविधियों से ही मिलता है, इसलिए मोटी कसौटी कर्म का स्वरूप ही मानी गई है और उसी के आधार पर निंदा-प्रशंसा भी होती है। राजदंड और लोकमत भी उसी आधार पर कर्म के भले−बुरे होने का निष्कर्ष निकालते हैं। काम चलाने की दृष्टि से यह व्यवस्था ठीक भी है, पर वास्तविकता को जानना हो तो कर्त्ता की भावना को ही महत्त्व देना पड़ेगा।
गेरुआ वस्त्रधारी, कमंडल-चिमटा लिए, जटाजूट, भस्म, त्रिपुंड से सुसज्जित व्यक्ति को आमतौर से संत महात्मा माना जाता है और लोग उसका आदर-सम्मान भी करते हैं। वेशभूषा को देखकर उसके त्यागी, भगवतभक्त और परमार्थप्रिय होने की मान्यता बनती है, पर ऐसा भी हो सकता है कि किसी चोर-डाकू ने अपनी वास्तविकता छिपाए रखने और आसानी से अपना दुष्कर्म करते रह सकने की दृष्टि से आवरण बनाया हो। इस प्रकार की प्रवंचना से लोग धोखा खा सकते हैं, पर कर्त्ता के लिए तो वह दुहरा पाप ही हो जाएगा। चोरी के साथ-साथ धोखेबाजी का दुहरा पुट लग जाने से साधारण चोर की अपेक्षा उस ठग-चोर का अपराध दूना हो गया। उसका दूना पतन होगा। दूना नरक मिलेगा।
टट्टी की ओट शिकार
अन्य कर्म भी ऐसे हो सकते हैं जो बाहर से अच्छे दिखाई पड़ें, पर उनके पीछे कर्त्ता की दुरभिसंधि छिपी हो। शुभकार्यों की आड़ में अशुभ कर्म होते हुए भी आए दिन देखने को मिलते हैं। गौशाला, विधवाश्रम, अनाथालय जैसी संस्थाएँ बाहर से सदुद्देश्य को लेकर खोली गई प्रतीत होती हैं, पर कई बार उनके भीतरी घोटाले ऐसे रूप में सामने आते हैं, जिनसे उनके पीछे स्वार्थ-साधन का व्यापार छिपा मालूम होता है।
धर्म-पुण्य की बात दूसरों से कहकर स्वयं मुफ्त का माल लूटने वाले धर्मध्वजी लोगों की धर्मशिक्षा भी ऐसी ही प्रवंचना होती है। उसमें धर्म-प्रेरणा का नहीं, स्वार्थ-साधना का ही उद्देश्य प्रधान रहता है। ऐसी दशा में बाहर से धर्मजीवी दीखते हुए भी वे लोग साधारण जेबकटों की अपेक्षा धर्मबुद्धि का शोषण करने का पाप भी करते हैं और दुहरे अपराधी ठहरते हैं। सामूहिक आयोजनों और संस्थाओं की सेवा-व्यवस्था करने वाले जब टट्टी की ओट शिकार करते है, तो उनका पाप अधिक प्रबल ही माना जाता है। बाहर के लोग जिन्हें वास्तविकता का ज्ञान नहीं है, वे सत्कर्मों में लगे लोगों की प्रशंसा ही करेंगे, आदर ही देंगे, पर कर्त्ता को उसका परिणाम उस दृष्टिकोण के अनुरूप ही मिलेगा, जिससे प्रेरित होकर उसने वह कार्य किया है।
बाहर कठोर, भीतर कोमल
इसी प्रकार बाहर से बुरे दीखने वाले कार्य भी ऐसे हो सकते हैं जो निंदनीय और घृणित दिखाई दें पर सदुद्देश्य से प्रेरित किये जाने के कारण वस्तुतः वे शुभकर्म ही माने जाते हैं और उनमें आत्मा का पतन नहीं, उत्थान ही होता है। डाॅक्टर के आपरेशन करते समय रोगी की चिल्लाहट और वेदना को देखते हुए यह अनुमान होता है कि कोई निर्दयी किसी असहाय पर जुल्म ढा रहा है। समीप जाकर देखने से इस बात की और भी अधिक पुष्टि हो जाती है। एक आदमी चाकू हाथ में लिए है, किसी के शरीर में उसे भोंक रहा है, खून बह रहा है, पीड़ित व्यक्ति मेज पर पड़ा है उसे जकड़ रखा गया है, उसकी कष्ट और चीत्कार पर वह खड़े हुए कंपाउंडर आदि ध्यान नहीं देते। कैसी हृदयहीनता का दृश्य है। देखने वाले अनजान आदमी को यह घोर अत्याचार ही प्रतीत होगा, पर वे जानकार लोग जिन्हें डाॅक्टर के सदुद्देश्य और ऑपरेशन के बाद एक बड़े रोग की मुक्ति का विश्वास है, वे विचलित नहीं होते। उन्हें उस खून-खच्चर, तड़पन, चिल्लाहट, के बीच भी करुणा और सद्भावना का दर्शन होता है और वह डाक्टर भी अपनी आत्मा के सामने सच्चा होने के कारण इतनी चीर-फाड़ करने के बाद भी पुण्यात्मा ही ठहरता है। कर्म का बाह्यस्वरूप नहीं, कर्त्ता की भावना ही तो प्रधान मानी जाती है।
अनैतिकता से नैतिकता
किसी भूखे, पीड़ित या दीन-दुखी की सहायता के उद्देश्य से कोई बालक घर से रोटी या कपड़ा चुराकर ले जाता है और उसे दुखियों को दे आता है। घरवालों की प्रकृति का ज्ञान होने के कारण उसे यह आशा नहीं है कि उस भरे-पूरे घर में से दीन-दुखियों के लिए माँगने पर भी कुछ मिल सकेगा, ऐसी दशा में वह चोरी करना ही उचित समझता है। बात खुलती है; घरवाले उसकी भर्त्सना करते हैं, चोरी का अपराध लगाकर ताड़ना देते हैं। बाहरी दृष्टि से बालक का वह कार्य चोरी ही गिना जा सकता है; पर वस्तुतः उसकी आत्मा ने जिन परिस्थितियों में उसे चोरी करने की आज्ञा दी, वे ऐसी ही थीं कि बालक अपराधी नहीं ठहरता।
कर्म के बाहरी और भीतरी स्वरूप में अंतर अथवा प्रतिकूलता होने पर लोग तो बाहरी बात को ही महत्त्व देंगे। जो कार्य अनैतिक दीखेंगे, उनकी भर्त्सना भी करेंगे और दंड भी मिलेगा। उतना होते हुए भी आंतरिक भावना की ही प्रमुखता रहेगी। नैतिक उद्देश्यों के लिए अनैतिक कार्य भी शुभ ही माने जाते हैं। अच्छा तो यही है कि भीतर-बाहर की परिस्थितियाँ एक-सी रहें। भीतर भी सदुद्देश्य हो और बाहर भी प्रियदर्शी कार्य बनें, पर यदि कारणवश कभी ऐसा सामंजस्य न भी हो पावे, प्रतिकूलता ही दीखे तो आत्मिक उद्देश्य ही प्रधान रहेंगे, उन्हीं के आधार पर कर्त्ता को पापी या पुण्यात्मा ठहराया जाएगा।
पाप−पुण्य का मूल आधार
दैनिक जीवन में हम जो कुछ करते हैं, उनमें से कुछ कार्य पाप, कुछ पुण्य, कुछ साधारण क्रियाकलाप दिखाई देते हैं। अनुमान यही होता है कि जो शुभकर्म बने हैं उनका पुण्यफल मिलेगा। जो पाप किए हैं, उनका नरक मिलेगा और जो नित्यकर्म, जैसे जीवन यात्रा के साधारण कर्म हैं, वे व्यर्थ— निरर्थक माने जावेंगे; पर वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। हमारा दृष्टिकोण जिंदगी जीने के संबंध में जैसा भी कुछ रहा होगा, उसी के आधार पर उन कर्मों की गणना होगी और वैसा ही शुभ−अशुभ फल मिलेगा।
गृहस्थ का पालन करते समय हम ऐसा सोचें कि भगवान ने माली की तरह एक छोटा उपवन उगाने और उसे फलने-फूलनेयोग्य बनाने का उत्तरदायित्व सौंपा है और उसे पूरी ईमानदारी तथा सद्भावना से देखने पर अपने स्त्री−बच्चे हमें भगवान के बगीचे के एक सुरभित वृक्ष लगेंगे और उनकी सेवा करते हुए उस बगीचे के मालिक परमात्मा की प्रसन्नता की आशा बँधेगी। यदि वे लोग अपने अनुकूल नहीं भी बन पाते, अपनी सेवा-सहायता नहीं भी करते, तो भी कोई दुःख न होगा। अपना कर्त्तव्यपालन करते रहने में कभी त्रुटि करने की इच्छा न होगी। माली अपने मालिक के हर पौधे को सींचता है। कँटीली झाड़ियों वाले नींबू और मधुर फल वाले आम के झाड़ों में से किसी के प्रति भी उसे रोष या मोह नहीं होता, मालिक ने जिस प्रकृति के भी पेड़ सींचने को दे दिए उन्हें ही तो उसे बढ़ाना-बनाना है। गृहस्थ में सब कोई अपनी मनमरजी के नहीं होते, उनमें कुछ अनुपयुक्त स्वभाव के भी होते हैं। ऐसी दशा में कर्त्तव्य-बुद्धि से— ईश्वर का बगीचा सींचने वाले माली की तरह जो अपने परिवार का पालन करता है, उसका कार्य ईश्वरभक्ति और देवालय की पूजा करते रहने वाले पुजारी की धर्मचर्या से किसी भी प्रकार कम श्रेष्ठ नहीं ठहरता।
स्वार्थपरता के भवबंधन
कर्म तब बंधन रूप होता है, जब वह स्वार्थबुद्धि से, फल की आशा से और अहंकार की पूर्ति के लिए किया जाता है। तभी ऐसी स्थिति आती है कि इच्छित परिणाम न मिलने पर क्षोभ और दुःख उपजे। इस दृष्टिकोण से यदि जिंदगी जीने का क्रम बना है तो अपनी मरजी से विरुद्ध जो कुछ भी हो रहा होगा, उस सबसे अशांति एवं उद्विग्नता उठेगी। स्त्री-बच्चे यदि अपने इच्छानुगामी नहीं बनते तो उन पर रोष आवेगा और उनकी सेवा बंद कर देने की इच्छा उत्पन्न होगी। सुंदर और सेवाभावी स्त्री में अनुरक्त होना और फूहड़, कर्कश के प्रति कुपित रहना स्वार्थबुद्धि का ही प्रतिफल है। स्वार्थ का परत जितनी ही मोटी होगी, उतने ही हमारे भवबंधन मजबूती से बँधते चले जावेंगे; पर यदि हमारा प्रत्येक कार्य परमार्थबुद्धि से, उच्च दृष्टिकोण से किया जा रहा हो तो साधारण दीखने वाले कार्य भी पुण्यफलदायक, मुक्ति की ओर ले जाने वाले सिद्ध होंगे।
जीवन का प्रत्येक कार्य हम उच्च आदर्शों की पूर्ति की दृष्टि रखकर करें। सबसे बड़ा स्वार्थ-परमार्थ— जीवनोद्देश्य की पूर्ति को ही मानें। आजीविका कमाने से लेकर नित्यकर्म करने तक में हम ईश्वर के सौंपे उत्तरदायित्वों को एक ईमानदार सेवक की तरह पूरा करते रहने का ध्यान रखें तो वह भावना ही हमारे साधारण दिखने वाले कार्यों को भी पुण्य-परमार्थ बना देगी और उनका परिणाम लोक और परलोक दोनों में कल्याणकारक ही होगा।
भावनाओं का परिष्कार
हमें अपनी भावना का परिष्कार करना चाहिए। संकीर्णता और स्वार्थपरता जब तक कायम है, तब तक श्रेष्ठ काम करते हुए भी उनमें से कोई स्वार्थ-साधन करने की इच्छा बनी रहेगी और फिर चाहे वह इच्छा पूर्ण भी न हो पावे, पर उस दुर्भावना के आधार पर वह सत्कर्म भी पापरूप ही प्रस्तुत होंगे। जब अवसर मिलेगा, तब स्वार्थपरता प्रबल होकर दुष्कर्म करा भी लेगी; किन्तु यदि अपना दृष्टिकोण उच्च है, प्रत्येक कार्य कर्त्तव्यपालन की धर्मबुद्धि से किया जा रहा है तो साधारण श्रेणी का जीवनयापन करते हुए अपना गृहस्थपालन भी तप−साधना और योगाभ्यास की तरह सत्कर्म सिद्ध होगा और उसी में जीवनोद्देश्य के पथ पर भारी प्रगति होती चली जाएगी।
इस संसार में भावना ही प्रधान है। कर्म का भला-बुरा रूप उसी के आधार पर बंधनकारक और मुक्तिदायक बनता है। सद्भावना से प्रेरित कर्म सदा शुभ और श्रेष्ठ ही होते हैं, पर कदाचित व अनुपयुक्त भी बन पड़े तो भी लोकदृष्टि से हेय ठहरते हुए वे आत्मिक दृष्टि से उत्कृष्ट ही सिद्ध होंगे। आंतरिक उत्कृष्टता, सदाशयता, उच्चभावना और कर्त्तव्य-बुद्धि रखकर हम साधारण जीवन व्यतीत करते हुए भी महान बनते हैं और इसी से हमारी लक्ष्यपूर्ति सरल बनती है।