सफलता ही नहीं, असफलता भी

November 1962

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कार्यों का परिणाम मिलता है यह एक ध्रुवसत्य है। कोई भी क्रिया प्रतिक्रिया से रहित नहीं है। जो कुछ किया जाता है, उसका प्रतिफल भी अवश्य होता है; पर यह प्रतिफल कब, कितनी मात्रा में, कैसा होगा; उसका रूप ठीक तरह निश्चित नहीं किया जा सकता। यह बातें परिस्थितियों पर भी निर्भर रहती हैं। साइकिल चलाने में कितनी देर में कितनी दूर पहुँच जावेंगे, उसका एक उत्तर नहीं हो सकता; क्योंकि साथ में और भी कितनी ही बातों से इसका उत्तर संबंधित है। सड़क खराब है या अच्छी? हवा सामने की है या पीछे की? चलाने वाले का स्वास्थ्य कैसा है? साइकिल अच्छी हालत में है या खराब हालत में? इन बातों की अनुकूलता-प्रतिकूलता जानकर ही यह अनुमान किया जा सकता है कि यात्रा कितनी देर में पूरी होगी।

प्रयत्न और परिस्थितियाँ

हम जो सफलता चाहते हैं, जिसके लिए प्रयत्नशील हैं, वह कामना कब तक पूरी हो जावेगी, इसका उत्तर सोचने से पूर्व अन्य परिस्थितियों को भुलाया नहीं जा सकता, अपना स्वभाव, सूझ−बूझ, श्रमशीलता, योग्यता, दूसरों का सहयोग, सामयिक परिस्थितियाँ, साधनों का अच्छा-बुरा होना, सिर पर लदे हुए तात्कालिक उत्तरदायित्व, प्रगति की गुंजाइश, स्वास्थ्य आदि अनेक बातों से सफलता संबंधित रहती है और सब बातें सदा अपने अनुकूल ही नहीं रहती, इसलिए केवल इसी आधार पर सफलता की आशा नहीं की जा सकती कि हमने प्रयत्न पूरा किया, तो सफलता भी निश्चित रूप से नियत समय पर मिल ही जानी चाहिए।

एक विद्यार्थी बहुत परिश्रमी और ठीक प्रकार पढ़ने लिखने वाला है और विद्याध्ययन में अपनी ओर से कुछ त्रुटि नहीं रहने देता, पर परिस्थितियाँ यदि उसके प्रतिकूल रहती हैं तो परीक्षाफल संदिग्ध हो जाता है। स्वास्थ्य का यकायक बिगड़ जाना, घर में कोई आघात लगाने वाली शोक-संतापभरी दुर्घटना हो जाना, किसी कारण मन का खिन्न या क्षुभित रहना, अध्यापक का सुशिक्षित न होना, समय पर पुस्तक का न मिल सकना, बुरे साथियों द्वारा पढ़ाई के समय ध्यान बटाने वाला उच्छृंखल वातावरण बने रहना, घर से विद्यालय बहुत दूर होने पर चलते−चलते थक जाना, प्रश्नपत्र में अप्रत्याशित विषयों का आ जाना, परीक्षक की असावधानी या कठोरता, परीक्षाकाल में कोई आकस्मिक उद्वेग आदि कितने ही कारण ऐसे हो सकते हैं, जिनसे परिश्रमी और ठीक तरह पढ़ने वाले विद्यार्थी को भी असफलता का मुँह देखना पड़े।

इसी प्रकार सफलता के ऐसे कारण भी हो सकते हैं, जिनके कारण कम परिश्रम करने वाला छात्र भी उत्तीर्ण हो जाए। सुशिक्षित अध्यापक, प्रसन्नतादायक वातावरण, अच्छे साथी, हलके प्रश्नपत्र, उदार परीक्षक, सामयिक सूझ-बूझ, परीक्षा-समय का वातावरण , पर्चे आउट होना या नकल आदि का अनैतिक लाभ आदि कितने ही कारण ऐसे हो सकते हैं, जिनके कारण ऐसे विद्यार्थी अच्छी श्रेणी में उत्तीर्ण हों, जिनके श्रम को देखते हुए असफलता की ही आशा की जाती थी।

श्रम का सत्परिणाम

यों श्रम का सत्परिणाम एक सुनिश्चित तथ्य है। मेहनत कभी भी बेकार नहीं जाती। उसका सुफल मिलता ही है। श्रमशील की योग्यता, प्रतिभा, क्षमता एवं सूझ−बूझ निरंतर बढ़ती ही जाती है और उसका लाभ प्रकारांतर से मिलता ही है। इसी प्रकार आलसी को कोई आकस्मिक सफलता मिल भी जाए तो उससे तात्कालिक प्रसन्नता प्राप्त की जा सकती है, पर उन विशेषताओं से वर्जित ही रहना पड़ेगा जो कठोर श्रम और गहन अध्यवसाय के कारण अपने को प्राप्त हो सकती थीं। आजकल अनीति का बोलबाला है। अनैतिक उपायों को काम में लाकर सफलता प्राप्त कर लेते हैं और नीति और मर्यादाओं का पालन करने वालों को उनके मुकाबले में पीछे रहना पड़ता है। ऐसी दशा में कई लोग जल्दी सफलता प्राप्त करने के लिए अनीति का मार्ग अपनाते हैं, पर वहाँ भी यही अनिश्चितता है। हर चोर, लखपती कहाँ बन पाता है? उसमें से भी कितनों को ही हाथ−पैर तुड़वा बैठने या जेल में चक्की पीसते−पीसते मरते रहने का दुर्भाग्य भुगतना पड़ता है। इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि बुराई पर उतारू हो जाने से सफलता अवश्य ही, थोड़े दिन में ही मिल जाएगी।

संसार की नियत विधि-व्यवस्था

यदि श्रम का सत्परिणाम सुनिश्चित न होता तो कोई क्यों श्रमशीलता का कष्टसाध्य मार्ग अपनाता? कृषि, व्यापार, उद्योग, शिल्प, शिक्षा आदि में करोड़ों आदमी निरंतर पूर्ण तत्परता के साथ लगे रहते हैं और प्रतिफल भी उनको मिलता ही है। किसान खेती से ही तो गुजारा करते हैं, कारखानों को लाभ होता ही है। विद्या प्राप्त करने पर अच्छी जीविका मिलती ही है। यदि ऐसा न होता तो सभी लोग अनिश्चितता अनुभव करते और किसी भी कार्यपद्धति पर लोगों का मन न जमता; पर ऐसा है नहीं । यह सारा संसार एक नियत विधि-व्यवस्था पर चल रहा है। पुरुषार्थी को विजय लक्ष्मी वरण करती है और अकर्मण्य के पल्ले दीनता, दरिद्रता बँधी रहती है। इस विधान पर विश्वास करके प्रत्येक व्यक्ति कार्यसंलग्न हो रहा है और कष्टसाध्य लगते हुए भी प्रयत्न में संलग्न रहता है।

इतना होते हुए भी अपवादों की कमी नहीं रहती। पुरुषार्थियों को असफलता और आलसियों को आकस्मिक लाभ की घटनाएँ भी घटित होती रहती हैं; यद्यपि ऐसा कम और कभी−कभी ही होता है, पर होता अवश्य है। संख्या में थोड़ी रहने के कारण इन्हें अपवाद कहा जाता है। यह अपवाद भी कई बार मनुष्य के मन को विचलित और क्षुब्ध कर दिया करते हैं। जिन्हें ऐसी ही उलटी परिस्थितियों से पाला पड़ा है, वे पुरुषार्थ की व्यर्थता और भाग्य के सर्वोपरि होने की बात सोचने लगते हैं। कई बार तो ऐसे लोग हतोत्साहित और निराश होकर ऐसा भी सोचने लगते है कि ,‟अपने बलबूते कुछ बनने वाला नहीं है, जो कुछ होना होगा भाग्य से ही होगा, जब दिन फिरेंगे तभी कुछ लाभ होगा। हमारा हाथ−पैर पीटना बेकार है। तकदीर के आगे बेचारी तदबीर क्या कर सकती है।”

भाग्य और पुरुषार्थ

ऐसा सोचना न तो उचित है और न आवश्यक। भाग्य भी पुरुषार्थ का ही साथ देता है। अकर्मण्य लोग आकस्मिक सुयोग किसी प्रकार प्राप्त भी कर लें तो देर तक उसका लाभ नहीं उठा सकते। क्षमता पर ही स्थिरता अवलंबित है। अयोग्य व्यक्ति जब कार्यक्षेत्र में उतरते हैं तो उन्हें खोटे सिक्के की तरह अलग फेंक दिया जाता है। आकस्मिक सौभाग्य किसी अयोग्य को मिल तो सकता है, पर वह देर तक उसके पास टिका नहीं रह सकता। जिसने श्रम करके जो कमाया है, वही उसका सदुपयोग भी कर सकता है। ‘माल मुफ्त दिल बेरहम’ वाली कहावत के अनुसार अनायास प्राप्त हुई सफलताएँ देर तक ही नहीं ठहरती, वे किसी-न-किसी मार्ग में जल्दी ही विदा हो जाती हैं। अपव्यय की आदत उन्हें ही पड़ती है, जिन्हें बिना मेहनत की कमाई हाथ लगी है। फिजूलखरची और असावधानी बरतने से तो समुद्र का जल भी समाप्त हो सकता है। फिर छोटी−छोटी सफलताओं का टिके रहना तो संभव ही कैसे हो सकता है।

हम अपवादों पर ध्यान न दें। स्थिर व्यवस्था और विधान के प्रति आस्था रखें। कर्म तत्परतापूर्वक करें, उसमें तनिक भी असावधानी न होने दें, पर सफलता के लिए उतावले न हों । अमुक समय तक, अमुक मात्रा में सफलता मिल ही जानी चाहिए, यह कोई निश्चय नहीं कह सकता। परिस्थितियाँ और घटनाएँ उसमें विघ्न डाल सकती हैं। और मंजिल तक पहुँचने में देर लग सकती है। बीच−बीच में कई अवसर असफलता के मिल सकते हैं। लंबा रास्ता लगातार चलते हुए कहाँ पार होता है? बीच−बीच में रुकना भी तो पड़ता है। चलते रहने से मंजिल कटती है तो उसे प्रगति कह सकते हैं, पर निरंतर चलना, निरंतर प्रगति भी कहाँ संभव है। कुछ देर रुकना और सुस्ताना भी तो पड़ता है। जितनी देर रुके, उतनी देर यही सोचते रहना उचित नहीं कि इस समय हमारा भाग्य साथ नहीं दे रहा है, प्रगति रुक रही है, सफलता नहीं मिल रही है। दिन में काम करने के बाद रात को सोना भी तो पड़ता है।

अहंकार और असावधानी पर नियंत्रण

हमें प्रत्येक पग पर सफलता ही मिले, यह कोई आवश्यक बात नहीं। असफलता में जो आघात लगता है, उससे अधिक सावधानी बरतने और अधिक तत्परतापूर्वक श्रम करने की प्रेरणा मिलती है। भूल सुधारने का मौका भी इन्हीं झटकों से मिलता है, अन्यथा लगातार सफलता के मद में उन्मत्त मनुष्य को 'बादल या मकड़ी का जाला' कहलाने में भी देर नहीं लगती।

लक्ष्य को सोच-विचारकर नियत करना चाहिए और फिर उस पर दृढ़तापूर्वक चलते रहना चाहिए। मनुष्य का धर्मकर्त्तव्य कर्म करते रहना है। इसे न करने पर वह 'कर्त्तव्यघात' के पाप का भागी बनता है; इसलिए हर व्यक्ति को बिना एक क्षण भी गँवाए अपने जीवनोद्देश्य की प्राप्ति के लिए निर्धारित कर्त्तव्य-पथ पर चलते रहना चाहिए। यह मान्यता सर्वथा सत्य है कि सत्कर्म का सत्परिणाम ही मिलता है। साथ ही यह भी मानकर चलना चाहिए कि हमारा हर कदम सफलता और प्रगति के लिए ही नहीं होता। कितने ही कारण इस संसार में ऐसे मौजूद रहते हैं, जो प्रगति को रोकते हैं और जितनी जल्दी हम चाहते हैं, उतनी जल्दी सफलता प्राप्त नहीं कर पाते। बाधाओं की मंजिलें पार करने में जो लोग अपने धैर्य और साहस का परिचय देते हैं, घबराते और असंतुलित नहीं होते, वे ही दृढ़ चरित्र और स्वस्थ मानस कहला सकने के अधिकारी होते हैं। धैर्य और साहस ही तो मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता है। असफलताएँ इस विशेषता को परखने आया करती हैं और जो उसकी परीक्षा में उत्तीर्ण होता है, उसे इतना मनोबल दे जाती है, जिसके आधार पर उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकें।

प्रयत्न करें, पर विचलित न हों

हमें सफलता के लिए शक्ति भर प्रयत्न करने चाहिए; पर असफलता के लिए भी जी में गुँजाइश रखनी चाहिए। प्रगति के पथ पर चलने वाले व्यक्ति को इस धूप-छाँह का सामना करना पड़ा है। हर कदम सफलता से ही भरा मिले, ऐसी आशा केवल बालबुद्धि वालों को शोभा देती है, विवेकशीलों को नहीं । केवल सफलता की ही आशा करना और उसके न मिलने पर सिर धुनना अथवा निराश हो बैठना, ओछे, उथले और बचकाने स्वभाव का चिह्न है। जिंदगी जीने की विद्या का एक महत्त्वपूर्ण पाठ यह है कि हम न छोटी−मोटी सफलताओं से हर्षोन्मत्त हों और न असफलताओं को देखकर हिम्मत हारें। दिन और रात की भाँति असफलता का चक्र भी चलते ही रहने वाला है। एक ही तरह की वस्तु सदा मिले, यह असंभव आशा हमें आरंभ से ही नहीं करनी चाहिए और असफलता के लिए भी अपने कार्यक्रम में उचित गुंजाइश रखे रहना चाहिए और उसका भी वैसा स्वागत करना चाहिए जैसा सायंकालीन संध्या का करते हैं। प्रातःकाल की ऊषा भी उतनी ही सुंदर होती है, जितनी सायंकाल की संध्या। सफलताओं में, सुख−सुविधाओं की जैसी आशा केंद्रित रहती है, वैसी ही आत्मसुधार की, धीरे−धीरे बनाने की प्रेरणा असफलता में भी सन्निहित है। वस्तुतः ये दोनों आपस में सगी बहनें हैं, कुशलक्षेम पूछने और परस्पर मिलने अक्सर आया करती हैं। इनके प्रेमालाप में हम बंधक क्यों बनें? अपनी कर्त्तव्यपरायणता का आतिथ्य प्रस्तुत करते हुए इन दोनों का ही उचित स्वागत क्यों न किया करें?


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