जिंदगी खेल की तरह जिएँ

November 1962

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जिंदगी को भाररूप मानकर चलने से वह इतनी भारी प्रतीत होती है कि उसका बोझ उठाए नहीं उठता, पर यदि उसके बारे में हलका−फुलका दृष्टिकोण रखा जाए तो हँसते−खेलते दिन गुजरते जाते हैं। जो लोग छोटी−छोटी बातों को बहुत महत्त्व देते हैं, जरा-सी समस्या को बहुत बड़ी मान बैठते हैं। उन्हें आए दिन भय और विभीषिका की काली घटाएँ ही अपने चारों ओर उमड़ती दिखाई देती रहती हैं। किंतु जो इस सारे संसार को ही एक क्रीड़ास्थल मानते हैं, उनके लिए यहाँ न कोई चिंता की बात है और न परेशानी की।

नाटक का अभिनय

नाटक के परदे बार−बार बदलते रहते हैं। उसमें काम करने वाले अभिनेताओं को कई−कई प्रकार के वेष बदलने और कई−कई प्रकार के अभिनय करने पड़ते हैं। जो अभिनेता अभी राजा का पार्ट राजसी ठाठ-बाट के साथ, बड़े शान, रौब, गर्व और गौरव के साथ कर रहा था, थोड़ी देर बाद उसे भिखारी का पार्ट अदा करना पड़ता है। वैसी ही फटी−टूटी पोशाक पहनकर दीनता भरे शब्दों में भिक्षा−याचना करता है। कभी उसे चोर बनना पड़ता है, तो कभी जनाना पोशाक पहनकर नारी की तरह अपने को प्रस्तुत करना पड़ता है। इस प्रकार एक ही व्यक्ति अनेक तरह के अभिनय तो करता है, पर मन में इस परिवर्तन का प्रभाव ग्रहण नहीं करता। न तो उसे राजा बनते समय कोई हर्षातिरेक होता है और न भिखारी बनते हुए दुःख होता है। नारी के अभिनय में भी उसे लज्जा या संकोच अनुभव नहीं होता; क्योंकि वह जानता है कि यह सब खेल−खेल में हो रहा है। नाटक में जो अभिनय करना पड़ा वह तो दिखावामात्र था। वस्तुतः तो मैं नाटक कंपनी का एक छोटा-सा नौकर मात्र हूँ, जिसे इस प्रकार अपना कार्य करके उदरपूर्ति की व्यवस्था जुटानी पड़ती है।

उद्विग्नता क्यों?

अभिनेता के लिए खिन्न या उद्विग्न होने का कोई कारण नहीं है। देखने वाले उस अभिनय से प्रभावित हो सकते हैं, पर वह नट प्रभावशाली प्रदर्शन करते हुए भी अप्रभावित बना रहता है। जिंदगी जीने की कला का यही रहस्यपूर्ण सिद्धांत अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। जिसने इसे समझ और सीख लिया, उसके लिए चिंतित और उदास बनाने वाली कोई भी परिस्थिति इस दुनियाँ में रह नहीं जाती।

हम किसी भी काम में लापरवाही और असावधानी न बरतें; किंतु किसी भी बात को अनावश्यक महत्त्व भी न दें। खिलाड़ी लोग खेल के मैदान में पूरी दिलचस्पी के साथ अपने−अपने पक्ष को विजयी बनाने के लिए भरपूर कोशिश करते हैं, जरा भी असावधानी नहीं बरतते और न बचाव तथा प्रहार के किसी अवसर की उपेक्षा करते हैं। अपनी समझ और स्थिति के अनुसार दोनों ही पक्ष भरपूर भाग-दौड़ करते हैं। विजय की आकांक्षा प्रत्येक खिलाड़ी को रहती है, हर कोई गौरव और प्रशंसा प्राप्त करना चाहता है और इसके लिए जो कुछ संभव है, सो भरपूर प्रयत्न करता भी है। इतना होते हुए भी हर खिलाड़ी जानता है कि यह सब आखिर खेल ही तो है। खेल की हार−जीत कोई बहुत बड़ा महत्त्व नहीं रखती। खेले के मैदान से बाहर निकलते ही हारे और जीते दोनों ही खिलाड़ी, पक्ष−विपक्ष की, हार−जीत की भावना को भूल जाते हैं और प्रेम तथा आनंद के साथ आगे का कार्य साधारण रीति से फिर करने लगते हैं।

खेल को खेल की तरह खेलें

जिंदगी का खेल भी हाॅकी, फुटबाॅल, पोलो, कैरम, शतरंज के खेलों की तरह खेला जाना चाहिए। शतरंज के खिलाड़ियों के ऊँट, हाथी, प्यादा, शाह आदि क्षण−क्षण में मरते-जीते रहते हैं। खिलाड़ी को इस लाभ−हानि से हलकी−सी मुस्कुराहटमात्र आती है, वह इसे कोई बहुत महत्त्व नहीं देते। जो महत्त्व देने लगा उसके खेल का मजा मिट्टी हो जाता है। ऐसे ही नासमझ खिलाड़ी अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और जरा-सी हार−जीत को महत्त्व देकर आपस में लड़−मरते और शत्रुता बाँध लेते हैं। यही बात जीवनयापन संबंधी नीति में ओछा दृष्टिकोण रहने से भी होती है। जो हँसते हुए जिंदगी जीना नहीं जानते, जिन्हें छोटी−छोटी बातें बहुत बड़ी लगती हैं, वे चिंता, भय, आशंका, निराशा और विक्षोभ में ही डूबे पड़े रहते हैं।

वर्षा के दिनों में बादलों के समूह जब उठते हैं तो उनमें अनेकों प्रकार की आकृतियाँ बनती-बिगड़ती दिखाई देती हैं। अभी एक बादल पहाड़ की चोटी की शक्ल में उठा था, अभी वह रीछ की शक्ल में बदला, अभी ऊँट जैसा बना, अभी पेड़ जैसा दीखने लगा। यह बदलती हुई आकृतियाँ दर्शक के लिए मनोरंजन और कौतूहल का ही कारण बनती हैं। उस परिवर्तन से कोई अपनी निज की हानि−लाभ होने की बात नहीं सोचता। संसार में भी अनेकों चित्र−विचित्र परिस्थितियाँ एकदूसरे से भिन्न और प्रतिकूल रूप धारण करके हमारे सामने आती रहती हैं। कभी ऐसा लगता है कि हम विजयी हुए, धनवान बने, उच्च पद पर पहुँचे और कभी ऐसा दीखता है कि बस सब कुछ चौपट हुआ, अब गिरे अब मरे। हानि और असफलता की निराशाजनक संभावना आँखों में फिरती है। कभी−कभी परिस्थितियाँ अचानक मोड़ लेती हैं। सफलता के पथ पर चलते−चलते अचानक कोई भारी विघ्न सामने आ जाता है और असफलता के क्षणों में कोई ऐसा प्रकाश उत्पन्न होता है कि निराशा आशा में बदल जाती है। इन परिवर्तनों के साथ−साथ यदि मनुष्य अपनी प्रसन्नता और शांति को भी उलटता−पुलटता रहे तब उसे क्षण−क्षण में रोना−हँसना पड़ेगा। फिर उसकी प्रसन्नता परिस्थितियों के हाथ बिकी हुई होगी।

संतुलन न खोवें

यह उचित नहीं कि हम अपना मानसिक संतुलन परिस्थितियों के पास गिरवी रख दें। हमें परिस्थितियों का दास नहीं होना चाहिए। हम कठपुतली न बनें और परिस्थितियों के इशारे पर नाच नाचने के लिए विवश न हों। यह मानवीय गौरव के प्रतिकूल बात है। रूप−कुरूप बने खिलौने हमारी रुचि भिन्नता को ध्यान में रखकर परमात्मा ने भेजे हैं। मिट्टी के बने साँप, शेर को देखकर रोने और कागज के आम, अनार देखकर उछलने का उपक्रम अपना भी लो तो छोटे बालकों के बचपन और अपने बड़प्पन में क्या अंतर रह जाएगा? अनुकूलताएँ कागज के आम, अनार और प्रतिकूलताएँ मिट्टी के साँप, शेर हैं। यह भिन्न प्रकार के मनोरंजन के लिए सामने आते हैं, इनसे भय क्यों किया जाए? उन्हें ललचाई आँखों से क्यों देखा जाए?

झूला झूलते समय आगे-पीछे जाना पड़ता है। चरखी वाले झूलों में ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर आने का चक्र घूमता है। यह आगे-पीछे और ऊपर-नीचे आना−जाना ही तो झूला झूलने का आनंद है। एक ही जगह झूला अड़ा रहे तो फिर उस पर बैठना कौन पसंद करेगा। प्रिय और अप्रिय परिस्थितियाँ हमें झूला झूलने के खेल जैसी लगनी चाहिए। इस धूप−छाँव में, इस कटु-मधुर में, इस शीत-ग्रीष्म की विभिन्नता में हमें रस लेना चाहिए। खिन्नता और उद्विग्नता की इसमें बात ही क्या है?

छोटे को बड़ा न समझें

कहते हैं कि हाथी की आँखें उसके शरीर की तुलना में बहुत छोटी होने के कारण उसे बाहर की चीजें बहुत बड़ी दिखाई पड़ती है। इससे वह अपनी तुलना में और सबको बहुत बड़ा देखता है और डरा−डरा रहता है। यह डर ही उसे जरा-से अंकुश और दुर्बल से महावत का वशवर्ती बनने को विवश करता है। हाथी की इस नासमझी पर हँसा जा सकता है, पर अपने ऊपर हम में से कोई भी नहीं हँसता कि जरा−जरा-सी प्रिय−अप्रिय बातों को बहुत बड़ा महत्त्व देकर इनके कारण हर्षोन्मत होकर अहंकार में इतराने लगते हैं या फिर निराशा के गर्त में डूबकर आत्महत्या करने, घर छोड़कर भाग निकलने, हाथ में लिया हुआ काम बंद कर देने जैसी उद्धत बातें सोचने लगते हैं। भागने से भी समस्याएँ पीछा कहाँ छोड़ने वाली हैं? शुतुरमुर्ग अपना पीछा करने वाले शिकारी से जान बचाने के लिए बालू में अपना मुँह गाड़ लेता है और सोचता है कि आँखें बंद कर लेने पर शिकारी का भय दूर हो जाएगा, पर जल्दी ही शुतुरमुर्ग को अपनी भूल प्रतीत हो जाती है, जब शिकारी उसे और भी जल्दी पकड़ लेता है।

निराश, खिन्न और उद्विग्न होने से तो कठिनाइयों का आक्रमण और भी दूने वेग से होता है। असावधानी और उपेक्षा की तरह उद्विग्नता और चिंता भी मनुष्य की शक्ति, योग्यता एवं प्रतिभा को नष्ट−भ्रष्ट करके रख देती हैं। सामर्थ्यवान होते हुए लुंज−पुंज बन जाने का सबसे बड़ा कारण यह है कि मनुष्य छोटी−मोटी प्रतिकूलताओं को बढ़ा−चढ़ाकर देखता है और उस स्वनिर्मित विभीषिकाओं से आप-ही-आप डरता−मरता और मूर्छित चेतना के साथ−साथ विक्षुब्ध जीवन व्यतीत करता रहता है।

अधिक-से-अधिक कितनी हानि

सोचना चाहिए कि जो मुसीबत सामने दिखाई पड़ती है, वह अधिक-से-अधिक कितनी हानि पहुँचा सकती है और उतनी हानि हो जाने पर भी अपना साधारण जीवनक्रम चलता रह सकता है या नहीं? यदि उस हानि को उठाकर भी जीवनक्रम का पहिया लुढ़कता रह सकता है तो फिर हताश होने की क्या बात रह जाती है? कोई विद्यार्थी परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाता है। इसकी हानि अधिक-से-अधिक इतनी ही हो सकती है कि नौकरी एक वर्ष बाद लगे या एक वर्ष की फीस आदि का पैसा अधिक लग जाए। यह हानि मानव जीवन की पेचीदगियों को देखते हुए अप्रत्याशित नहीं है; जबकि 60 प्रतिशत अनुत्तीर्ण और 40 प्रतिशत उत्तीर्ण होने वालों की संख्या ही हर साल सामने आती है तो अनुत्तीर्ण होना कोई ऐसी बड़ी दुर्घटना होना नहीं माना जा सकता, जिसके लिए वह छात्र आत्महत्या जैसी बातें सोचे या अपने मन को बहुत छोटा बनावे।

अपने ऊपर कोई मुकदमा चल रहा है। उसमें कुछ अर्थहानि या राजदंड हो तो आपत्ति आ सकती है। जब जेलों में रहने वाले कैदी आजीवन कारावास को हँसते−खेलते काट लेते हैं, तो उस मुकदमे में ही अपने ऊपर क्या वज्रपात होने वाला है, जिसके कारण आधीर बना जाए? बीमारी किसे नहीं आती, यदि अपने को या किसी परिजन को बीमारी का सामना करना पड़ रहा है, तो मौत ही सामने खड़ी क्यों सूझनी चाहिए? असाध्य समझे जाने वाले रोगी भी तो अच्छे होते रहते हैं। फिर मान लीजिए किसी को मरना ही पड़े तो इसमें कौन अनहोनी बात है। आज नहीं तो कल सभी का अपने रास्ते जाना है, किसी के अभाव में इस दुनियाँ का कोई काम रुकता नहीं, प्रियजनों का विछोह भी तो लोगों को सहना पड़ता है, फिर अपने सामने भी यदि वैसी परिस्थितियाँ आने वाली हों तो उसके लिए चिंतातुर क्यों रहा जाए?

व्यापार में दस दिन लाभ होता है तो एक दिन हानि का भी होता है। खेती में जहाँ अच्छी फसल उगा करती है, वहाँ अतिवृष्टि, अनावृष्टि से दुर्भिक्ष भी पड़ते हैं और लोग किसी प्रकार उस दुर्भिक्ष का मुकाबला करते हुए भी जीवित रहते हैं। चोरी, डकैती, अग्निकांड आदि में लोगों का सर्वस्व चला जाता है, फिर कुछ दिन बाद पुनः काम-चलाऊ स्थिति बन जाती है और गाड़ी फिर लुढ़कने लगती है। जब दुर्घटना में एक टाँग कट जाती है तो वह सोचता है कि एक पैर से तो चलना क्या, खड़ा हो सकना भी कठिन है; पर कुछ दिन बाद उपाय निकलता है लकड़ी के सहारे वह लँगड़ा आदमी खड़ा होता है, चलता है और दौड़ने भी लगता है। ईश्वर की इस सृष्टि में ऐसी व्यवस्था मौजूद है कि तथाकथित विपत्ति आने के बाद उसका कोई प्रतिकार भी निकलता है और बिगड़ी को बनाने वाला ईश्वर उस अव्यवस्था में भी व्यवस्था का कोई मार्ग निकाल देता है।

आशंकाओं की विभीषिका

भविष्य में जिन आपत्तियों के आने की हम आशंकाएँ किया करते हैं, वस्तुतः उनमें से एक-चौथाई भी सामने नहीं आतीं। जो आती हैं, वे वैसी भयंकर नहीं होती, जैसी कि डरते हुए कल्पना की जाती थी। कठिनाई देने वाला उसके समाधान का मार्ग भी सुझाता है। दरद देने वाला दवा भी देता है। ईश्वर किसी को भी असहाय नहीं छोड़ता वह विपत्ति में भी साथ रहता है। माता छोटे बच्चे को नदी में स्नान कराते समय मजबूती से पकड़े भी रहती है कि कहीं वह डूब या बह न जाए। परमात्मा कठिनाइयों भरा नदीस्नान तो कराता है, पर हम में से किसी भी बालक का हाथ नहीं छोड़ता। कठिन समय में भी उसका सहारा मिलता रहता है। अंधेरे में भी उसका प्रकाश चमकता रहता है।

हम हर काम में पूरी−पूरी सावधानी बरतें, मुस्तैद रहें और सतर्कतापूर्वक अपने कर्त्तव्य का ठीक−ठीक पालन करते रहें, पर साथ ही यह भी ध्यान रखें कि यहाँ ऐसा महत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं है, जिसके लिए चिंतित, परेशान, उद्विग्न और निराश हों। पतंग की डोरी की तरह परिस्थितियाँ उलझती भी रहती हैं और सुलझती भी। रात के बाद दिन निकलता है, मौत के बाद जीवन मिलता है, निद्रा के बाद जागृति आती है। फिर हम आशा का सूत्र क्यों तोड़ें? हिम्मत क्यों हारें? दिल क्यों टूटने दें? संपदा में भी जो रोते खीझते रहते हैं, उनकी अपेक्षा वे अधिक बुद्धिमान हैं जो विपदा में भी मुस्कराना जानते हैं। परिस्थितियाँ जिन्हें दबा डालती हैं, जिन्हें तोड़ देती हैं, वे कमजोर मनुष्य दीन−दुर्बल और दया के पात्र ही समझे जा सकते हैं। धीर और वीर वे हैं, जो निडर रहते हैं, हिम्मत नहीं छोड़ते, अधीर नहीं होते और हर कठिनाई का हँसते−मुस्कराते स्वागत करते हैं।

हम टूट जाने वाले कच्ची मिट्टी के खिलौने क्यों बनें? लोहे को घन क्यों न बनें जो निरंतर चोटें पड़ते रहने पर भी अविचल बना रहता है। माथे पर शिकन भी नहीं आने देता। कठिनाई बेशक बड़ी होती हैं, पर मनुष्य की आत्मा उससे बड़ी है। धैर्यवान समुद्र को लाँघते और असंभव को संभव बनाते हैं। जरा−जरा-सी कठिनाइयाँ हमें डराती और विक्षुब्ध करती हैं, यह स्थिति खेदजनक ही मानी जाएगी, मानव जीवन के अनुपयुक्त भी। जिंदगी सचमुच एक खेलमात्र है, उसे खेल की तरह ही जिया जाना चाहिए।


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