अहंकार की असुरता से बचा जाए

November 1962

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इस संसार की हर वस्तु में अच्छाई के साथ−साथ कुछ बुराई भी मिली होती है। कोई व्यक्ति या वस्तु यहाँ ऐसी नहीं बनी, जिसमें न्यूनाधिक मात्रा में गुण, दोषों का समावेश न हो। प्रत्येक अच्छाई अपने साथ कुछ बुराई छिपाए रहती है, और प्रत्येक बुराई के पीछे कुछ अच्छाई का भी तत्त्व छिपा रहता है। सफलता और असफलता के बारे में यही बात लागू होती है। यों आमतौर से हर आदमी सफलता चाहता है और उसे प्राप्तकर प्रसन्न होता है। असफलता में हानि एवं खिन्नता अनुभव होती है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि इच्छापूर्ति में सुख और उसमें पड़ी हुई बाधा को दुःख माना गया है।

फूल में काँटा

इतना होते हुए भी सफलता में कुछ हानि और असफलता का कुछ लाभ भी होता है। असफलता हमें अपनी भूलों पर विचार करने का मौका देती है और यह सिखाती है कि हम जहाँ गलती करते रहे हैं, वहाँ अधिक ध्यान दें और उसमें सुधार करें। असावधानी बरतने और अधूरे मन से काम करने पर आमतौर से सब काम बिगड़ते हैं। श्रम से जी चुराने, आलस में पड़े रहने, समय-कुसमय का ध्यान न रखने से भी असफलता की संभावना बढ़ जाती है। कटु स्वभाव और अशिष्ट व्यवहार से भी दूसरे लोग चिढ़ते और असहयोगी बनते हैं, ऐसी दशा में भी अपनी इच्छापूर्ति के मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है । असफलता मिलने पर आमतौर से मनुष्य दूसरों पर उसका उत्तरदायित्व डालकर स्वयं निर्दोष बनना चाहता है, पर बुद्धिमत्ता का अंश जब जागृत रहता है, तब वह यह भी सोचता है कि मेरी भूल कहाँ−कहाँ रही और उसे कैसे सुधारा जाए?

जिस प्रकार ऊधम मचाने और बताया हुआ काम न करने पर, बच्चे को धमका देने पर वह रुकता, सोचता और बदलता है, उसी प्रकार असफलतारुपी दैवी फटकार पड़ने पर मनुष्य को यह भी सोचना पड़ता है कि उसके लिए क्या करना उचित और क्या करना अनुचित था। अपनी गतिविधियों को सुधार लेने पर जहाँ बिगड़े काम के बनने की संभावना बढ़ जाती है, वहाँ सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि मनुष्य को अपनी आदतों और गतिविधियों में सुधार करने का अवसर मिलता है। यह सुधार उस अमुक बिगड़े काम को बनाने में ही सहायक नहीं होता, वरन भविष्य के लिए सफलताओं का एक व्यवस्थित शिक्षण देकर प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त कर देता है। इस प्रकार असफलता खेदजनक, कष्टदायक होते हुए भी कटुवादी सहृदय मित्र की तरह कुछ लाभदायक सिद्ध होती है।

लाभ के साथ हानि भी

सफलता की अच्छाई सर्वविदित है ही। उससे अभीष्ट लाभ प्राप्त होता है, दूसरे प्रशंसा करते हैं, अपना हौसला बढ़ता है, आदि-आदि लाभों को हम सब भली-भाँति जानते हैं और इसलिए उसे चाहते तथा पसंद भी करते हैं। पर उसमें एक छोटी बुराई भी छिपी रहती है, यदि उसकी ओर से असावधान रहा जाए तो वह हानिकारक भी सिद्ध होती है। इस बुराई का नाम है—‛मद’ या ‘अहंकार’। सफलता पाकर मनुष्य इतराने लगता है, वह अपनी औकात भूल जाता है और एक सफलता को पाकर वह यह सोचने लगता है— ''मुझ से बड़ा बुद्धिमान, चतुर और पुरुषार्थी कोई नहीं, मैं हर दिशा में चुटकी बजाते सफलता प्राप्त कर सकता हूँ।”

आत्मविश्वास और अहंकार

आत्मविश्वास होना अलग बात है, वह एक आध्यात्मिक गुण है; पर अहंकार तो उससे सर्वथा भिन्न वस्तु है। मोटे रूप में आत्मविश्वास तथा अहंकार एक-से दीखते हैं, पर उनमें जमीन-आसमान जैसा अंतर रहता है। कायरता और अहिंसा बाहर से देखने में एक सरीखी लगती है, पर उनकी मनोदशा में दिन-रात जैसा भेद रहता है। आत्मविश्वासी आत्मा की महत्ता मानते हुए भी सावधानी, परिश्रम, अध्यवसाय, परिस्थितियाँ, दूसरों का सहयोग, जागरुकता आदि बातों पर ही सफलता को अवलंबित समझता है और सफलता-असफलता की परवाह न करके अपने सुनिश्चित पथ पर मजबूती से पैर बढ़ाता हुआ चला जाता है।

आत्मविश्वास का अर्थ है—   अपने कर्त्तव्य-पथ पर दृढ़ रहना और कठिनाइयों से तनिक भी विचलित न होना। अहंकार इससे भिन्न वस्तु है। इसे ‘मद’ इसलिए कहा गया है कि नशीली चीजें खाकर जिस प्रकार उन्मत्तता आ जाती है, उसी प्रकार एक छोटी सफलता पाकर मनुष्य सोचने लगता है कि मैं ही सब कुछ हूँ, मुझमें कोई त्रुटि नहीं, मेरी बुद्धि सारी दुनियाँ से बढ़कर है। जो चाहूँ सो चुटकी बजाते पूरा कर सकता हूँ। छोटी स्थिति के आदमी, जिनके दिल और दिमाग छोटे हैं— कोई मामूली−सा लाभ, पद, श्रेय या महत्त्व पाकर इतराने और बौराने लगते हैं। उनकी अकड़ उद्दण्डता और अशिष्टता के रूप में चेहरे पर झलकती रहती है। सरकारी अफसरों, राजा-रईसों और तथाकथित बड़े आदमियों में से कितने ही ऐसे होते हैं, जिनकी अकड़ और उद्दंडता देखकर यही सोचना पड़ता है कि छोटी−सी सफलता पाकर इन्होंने सज्जनता का मार्ग छोड़ दिया और उद्धतता को अपना लिया है।

उद्धतता का ओछापन

उद्धतता सारी मनुष्य जाति का— सज्जनता का अपमान है। यह किसी से भी बरदाश्त नहीं होती। मानव की आत्मा इसके प्रति विद्रोह करती है। जिन्हें कोई व्यक्तिगत स्वार्थ हो, उनकी बात दूसरी है, वैसे साधारणतया सभी को अहंकार बुरा लगता है। भले ही उसका कोई तुरंत विरोध न करे, पर जब भी अवसर आता है, अहंकारी व्यक्ति देखता है कि उसका एक भी सच्चा मित्र इस संसार में नहीं है। चापलूस और खुशामदी लोग जो अपने मतलब के लिए नाक का बाल बने हुए थे, अवसर पाते ही गिरे में लात लगाने का प्रयत्न करते हैं।

भगवान को मनुष्य के दुर्गुणों में सबसे अप्रिय अहंकार है। ईश्वर का अंश होने से जीव महान है, पर यह सारी महानता ईश्वर की है। अपनी स्वतंत्र सत्ता की दृष्टि से मनुष्य अत्यंत तुच्छ है। वह कितनी ही बातों में पशु−पक्षियों से भी पिछड़ा हुआ है। दूसरों की सहायता के बिना उसका काम ही नहीं चलता, जो कुछ भी लाभ या सुख प्राप्त होता है, उसमें उसकी निज की योग्यता का जितना महत्त्व है, उसकी अपेक्षा दूसरों के सहयोग और अनुग्रह का सहस्रों गुना अधिक श्रेय सम्मिलित रहता है।

एकाकी रहने वाला मनुष्य तो लखनऊ के अस्पताल में पड़े हुए भेड़ियों द्वारा पाले गए रामू बालक जैसा ही अविकसित रह सकता है। रामू भी जैसा कुछ है, भेड़ियों के पालने के कारण है। यदि मनुष्य के बालक को कोई न पाले, किसी का सहयोग न मिले तो वह सृष्टि के अन्य जीवों की तरह जीवित भी नहीं रह सकता। आठ-दस वर्ष की आयु तक तो उसे सर्वथा परावलंबी रहना पड़ता है। बीमारी, अशक्ति, स्वाभाविक ज्ञान की कमी आदि अनेकों खामियाँ उसमें ऐसी हैं, जिनसे अन्य जीवों के बच्चे ग्रस्त नहीं होते। उसकी सारी उन्नति और सफलता सृष्टि के आरंभ से लेकर अब तक हुए मानवीय सामूहिक सत्प्रयत्नों का ही परिणाम है। समाज के ऋण और सहयोग का— दूसरों की कृपा और अनुकंपा का महत्त्व भूलकर यदि कोई इतराता है और अहंकारी बनकर मदोन्मत्त होता है, तो यह उसकी तुच्छता ही मानी जाएगी।

सत्यानाशी दुर्गुण

अहंकार का नाश करने का परमात्मा सदा प्रयत्न करते रहते हैं; क्योंकि यही दुर्गुण भव-बंधनों में जीव को बाँधे रहने में सबसे कड़ी लौह-शृंखला का काम करता है। अहंकारी के मन से सब सद्गुण उसी प्रकार विदा होने लगते हैं, जैसे तालाब का पानी सूखने पर उसके तट पर रहने वाले पक्षी अन्यत्र चले जाते हैं। अहंकार से अन्य दुर्गुणों का पोषण होता है और घमंडी आदमी में वे सब बुराइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो गुंडों या असुरों में होती हैं। असुर या गुंडों का अहंकार ही आरंभ में विकृत होता है, इसके पश्चात् वे दूसरों को तुच्छ समझते हुए उनकी हर क्रिया में अपना अपमान देखने लगते हैं और उसका प्रतिशोध लेने के लिए जहरीले साँप की तरह अनर्थ करने पर उतारू हो जाते हैं। एकाध बार ऐसे अनर्थों में सफलता मिलने पर तो वे पूरे नर-पिशाच ही बन जाते हैं। डाकू और हत्यारों में लोभवृत्ति उतनी प्रबल नहीं होती, जितनी अहम्मन्यता। अहंकार को ही असुरता का प्रतीक माना गया है। अहंकारी की महत्त्वाकांक्षाएँ संसार के लिए एक विपत्ति ही सिद्ध होती हैं। सिकंदर, तैमूरलंग, नादिर शाह, औरंगजेब, नेपोलियन आदि के अहंकार ने कितनी निरीह जनता को संत्रस्त किया इसका रोमांचकारी चित्र इतिहास के हर विद्यार्थी को याद है। अहंकार का मार्ग हर मनुष्य को इसी दिशा में ले जाता है। जितनी उसकी क्षमता और परिस्थिति होती है, उसी अनुपात से वह जनविपत्ति का कारण बनता जाता है।

सफलताएँ  प्राप्त करने का हम प्रयत्न करें, पर यह न भूलें कि उसके साथ फूल में काँटे की तरह जो अहंकार छिपा रहता है, उसका आक्रमण अपने ऊपर न हो जाए। हर सफलता के लिए हमें अपने सहयोगियों और मार्गदर्शकों का कृतज्ञ होना चाहिए तथा ईश्वर को सच्चे हृदय से धन्यवाद देना चाहिए कि उसकी अनुकंपा से ही इतना श्रेय प्राप्त हो सकना संभव हुआ। मनुष्य को अपनी महानता याद रखनी चाहिए, किंतु तुच्छता को भी भूल न जाना चाहिए। एक ही झटके में बड़े−बड़े किले जब चूर−चूर हो जाते हैं तो बेचारे तुच्छ मनुष्य की तो बिसात ही कितनी है। आज एक कार्य में सफलता मिली है तो यह आवश्यक नहीं कि कल भी— दूसरे काम में भी सफलता मिल जावेगी।

नम्रता और सज्जनता को न भूलें

अहंकार की उद्धतता मनुष्य के ओछेपन का चिह्न है। बड़प्पन में हर व्यक्ति झुकता और नम्र बनता है। उन्नति और सुधार उसी का संभव है जो अपनी त्रुटियों और दुर्बलताओं को जानता है। जो अपने को सर्वोपरि माने बैठा है, उसे सुधार की बात सोचने का अवसर ही कहाँ है? ऐसे मनुष्य हवा भरे हुए पानी के बबूले की तरह अंत में उपहास के पात्र बनते हुए नष्ट ही हो जाते हैं, इसलिए विज्ञजन अहंकार को बहुत ही हेय मानते रहे हैं। हर सफलता प्राप्त करते समय हमें यह आत्मनिरीक्षण करते रहना चाहिए कि कहीं इससे हमारा अहंकार तो नहीं बढ़ा, यदि बढ़ा हो तो सोचना चाहिए कि लाभ की अपेक्षा हमारी हानि ही अधिक हुई है। अहंकार को एक भारी हानि ही नहीं, विपत्ति भी मानना चाहिए।


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