मनुष्य के उदास, खिन्न और चिंतित रहने का सबसे बड़ा कारण असंतोष है। जितना कुछ उपलब्ध है, वह हमें बहुत कम दिखाई पड़ता है। आकांक्षाओं की तुलना में जब परिस्थितियाँ हलकी पड़ती हैं, तो यह अनुभव होता है कि हम दीन, दरिद्र, दुखियारे और अभावग्रस्त हैं। धन के बारे में आमतौर से यही स्थिति लोगों की होती है। जिससे पूछा जाए, वह यही उत्तर देगा कि मेरी आकांक्षाओं की तुलना में मेरी आर्थिक स्थिति गिरी हुई है। यह कमी उसे दुखी और असंतुष्ट बनाए रहती है। और भी अनेकों आकांक्षाएँ ऐसी हैं, जिनकी अतृप्ति से मन खिन्न रहता है। यश, सम्मान, पद आदि की इच्छा भी ऐसी ही प्रबल होती हैं। उसकी पूर्ति अपनी भावना के अनुरूप न हो तो मन भारी बना रहता है। उदासी छाई रहती है। वासनाओं की पूर्ति भी एक कारण होता है। कामक्रीड़ा का विनोद मनुष्य को अन्य सब विनोदों में अधिक प्रिय है। इस प्रिय स्थिति को वह अधिक विस्तार में, अधिक समय तक, अधिक मात्रा में प्राप्त करना चाहता है। कुछ कमी इसमें रहती दिखती है तो भी उसे अप्रसन्नता अनुभव होती है।
आनंद की आकांक्षा
मनुष्य स्वभावतः आनंदी जीव है। आनंद प्राप्त करने के लिए ही आत्मा इस भूलोक में अवतरित होती है। आनंद की खोज में ही जीव निरंतर लगा रहता है। जिधर उसे आनंद अनुभव होता है, उधर ही चल पड़ता है। आनंद कहाँ है?कहाँ नहीं? यह प्रश्न दूसरा है। मृग पानी की तृष्णा में सफेद रेत को जलाशय मानकर भागा−भागा फिरे, यह भ्रमपूर्ण स्थिति का होना बात दूसरी है, पर इच्छा और प्रयत्न तो उसका जल के लिए ही है। हर मनुष्य आनंद चाहता है। वह कहाँ है और कैसे मिले, यह प्रश्न दूसरा है। हर एक की अपनी समझ अलग होती है, जिसे जैसे सूझ पड़ता है, वह वैसे सोचता और करता है, पर यह निर्विवाद है कि आनंद ही प्राणी का अभीष्ट है और वह उसी के लिए प्रयत्नशील है। परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयत्न भी तो इसीलिए है कि वह परमानंद, सच्चिदानंद, ब्रह्मानंदस्वरूप है। सबसे अधिक आनंददायक स्थिति परमात्मा की प्राप्ति के साथ प्राप्त होती है, इसीलिए तो ईश्वरप्राप्ति का प्रयत्न विचारशील लोग किया करते हैं। सांसारिक अनेक प्रकार के साधन-सामग्री इकट्ठी करते रहना, विलासिता के अगणित साधन जुटाना, विनोद-मनोरंजन के लिए लालायित रहना भी तो इसीलिए है कि आनंदमय अवसर प्राप्त होता रहे।
उपलब्धि का मार्ग
आनंद कैसे प्राप्त हो, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से एक ही उपाय प्रतीत होता है— वह है, कामनाओं की पूर्ति। आप्तकामतृप्त मनुष्य ही संतुष्ट और आनंदयुक्त दिखाई पड़ता है। स्वर्ग को स्वर्ग इसलिए कहते हैं कि वहाँ कल्पवृक्ष और कामधेनु की सत्ता फैली हुई है। कल्पवृक्ष के नीचे बैठने से जिसकी जैसी भी कामना हो, वह तुरंत पूर्ण हो जाती है। यही बातें कामधेनु के बारे में भी है, उसके समीप जाने पर भी कामनाओं की पूर्ति होती है। कामनाएँ जिनकी पूर्ण हो गई हैं, वे देवताओं के समान सुखी रहेंगे, सुंदर दिखेंगे और अपने को अजर−अमर अनुभव करेंगे। जिस स्थान पर कामनापूर्ति के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनु सरीखे दो−दो साधन मौजूद हों, उस स्वर्ग की कामना हम सब करते हैं तो यह उचित ही है। परिपूर्ण आनंद की उपलब्धि यदि स्वर्ग में होती है, तो वही तो हमें अभीष्ट होगा भी।
कामना कैसे पूर्ण हों?
विचारणीय प्रश्न यह है कि कामनापूर्ति के साधन हम कैसे जुटावें, जिससे आनंद की प्राप्ति संभव हो सके। इसके दो उपाय हैं, एक यह है कि जो वस्तुएँ हम चाहते हैं, वह प्राप्त हो जाए, दूसरा यह कि जो प्राप्त है, उसे पर्याप्त मान लिया जाए। कामनाएँ करते समय अक्सर लोग यह भूल जाते हैं कि आज की अपनी परिस्थितियों में कितना, क्या संभव हो सकता है? अपने साधन किस सीमा तक अधिक सुविधाएँ दे सकने में समर्थ हैं? आज की अपनी क्षमता और स्थिति को भूलकर लोग कल्पना के ऐसे प्रवाह में बहने लगते हैं, जिसका आज की परिस्थिति से कोई तालमेल नहीं बैठता। दूसरे लोगों ने इतनी उन्नति कर ली या इतनी सुविधा प्राप्त कर ली तो हम भी उतना ही क्यों न प्राप्त कर लें। यहाँ वह भूल जाते हैं कि उन्होंने कितने समय में, किन परिस्थितियों में, किन साधनों के द्वारा क्या लाभ प्राप्त किया है। उन साधनों को हम भी जुटावें और जितने−जितने साधन बढ़ते जाए, उतनी-ही-उतनी आकाँक्षाएँ भी बढ़ाते जावें।
हम शेखचिल्ली न बनें?
शेखचिल्ली का उपहास इसलिए उड़ाया जाता है कि वह बेचारा अपने वर्त्तमान साधनों की अल्पता का विचार न करके बड़ी−बड़ी कामनाएँ करने लगता था। यों विवाह करने और सच्चा होने की कामना कोई असंभव बात नहीं है। बहुत लोग इस इच्छा को पूर्ण करते हैं, पर शेखचिल्ली को मूर्ख इसलिए माना गया कि उसने उतने साधन जुटाने में लगने की अपेक्षा तुरंत— क्षण भर में अपना मनोरथ पूरा करने की उड़ान उड़नी शुरू कर दी। फलस्वरूप वह कामनापूर्ति से ही वंचित नहीं रहा, वरन इस हड़बड़ी में सिर पर रखा तेल का घड़ा भी फोड़ बैठा और नई मुसीबत में फँस गया। अपनी औकात, हैसियत, योग्यता और परिस्थिति की बात को भुलाकर बहुत से लोग बड़े−बड़े मनोरथों की पूर्ति के लिए कल्पना-लोक में उड़ते रहते हैं और वे सपने जब दूर हटते, देर लगाते दिखते हैं तो व्याकुल हो जाते हैं, असंतोष और अतृप्ति की आग में बेतरह जलने लगते हैं।
आनंद को प्राप्त करने के लिए जो सचमुच इच्छुक हैं, उन्हें ऐसी भूल नहीं करनी चाहिए। आज के साधनों से सुविधापूर्वक कल हम क्या, कितना लाभ प्राप्त कर सकते हैं; बस कामना को इतना ही बढ़ने देना चाहिए। इससे अधिक यदि वह बढ़ रही हो तो तुरंत रोकना चाहिए। कल जब परिस्थितियाँ अधिक अच्छी हो जाए तो परसों के लिए उससे बड़ी कामना की जा सकती है। कामना और कल्पना को बढ़ाने में कोई कठिनाई नहीं। क्षण भर में सात समुद्रों का राजा बनने की आकांक्षा बढ़ाई जा सकती है। कठिनाई तो उसका नियंत्रण करने में है। आनंदप्राप्ति के इच्छुकों को यह नियंत्रण करना ही होता है, अन्यथा बढ़ी हुई कामनाओं के सामने उपाय और साधन इतने ही तुच्छ सिद्ध होते हैं, जितने जलते तवे पर पानी के कुछ छींटे।
प्रगति करें, पर हड़बड़ाऐं नहीं
प्रगति करना मनुष्य का धर्म है। उन्नति के लिए, आगे बढ़ने के लिए हर एक को प्रयत्न और पुरुषार्थ करना चाहिए। यह उचित भी है और आवश्यक भी। पर यह सब कार्य सुव्यवस्थित, सुनियंत्रित, क्रमबद्ध और संतुलित विचारशीलता के साथ होना चाहिए। हाथी पानी में घुसता है तो हर पैर पर अपना वजन तोल लेता है, जब एक पैर ठीक तरह जम जाता है, तब दूसरा आगे बढ़ाता है, यदि वह अंधाधुंध जलाशय में दौड़ पड़े तो उसका भारी शरीर उसे किसी विपत्ति जैसे गड्ढे में ही फंसा देगा। बहुत जल्दी अनियंत्रित कामनाओं की पूर्ति के लिए आतुर मनुष्य कुकर्म करके या तो विपत्ति में फँस जाते हैं अथवा निराशा और खिन्नता के गर्त्त में डूबे हुए अपने भाग्य को धुनते रहते हैं। एक काम और भी ऐसे लोग किया करते हैं, वह यह कि जो कोई सामने आ जाए, उसी पर अपनी असफलता का दोष मढ़ देते हैं। इसके असहयोग के कारण मेरा काम बिगड़ा, उसने बाधा पहुँचाई, इसने टाँग अड़ाई आदि की शिकायत जो भी आस−पास दिखे, उसी पर लगाने लगते हैं। और कोई दिखाई न पड़े तो लाखों−करोड़ों मील पर रहने वाले राहु, केतु, शनिश्चर, भूत, पलीत, देवता, विधाता, भाग्य, दुर्दिन आदि पर दोषारोपण करके किसी प्रकार अपना मन हलका करते हैं। किसी−किसी को सरकार भी सारी कठिनाइयों का कारण प्रतीत होती है। वे उसी पर सारा दोष थोपकर आप निवृत्त होना चाहते हैं।
साधनों और कामना से तालमेल
साधनों की तुलना में कामनाएँ अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर रखना असंतोष का प्रधान कारण है। और यह भूल जब तक बनी रहेगी, तब तक असंतोष और अशांति की मनोभूमि बनी रहने के कारण आनंद का दर्शन दुर्लभ ही रहेगा। महत्वाकाँक्षाऐं उच्च जीवन की, आदर्शवाद की, आत्म−निर्माण की और महामानव बनने की रहनी चाहिए। इस सुरदुर्लभ मानव−जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग जो हो सकता है वह कर डाले, यह महत्वाकाँक्षा प्रशंसनीय है। इस मार्ग पर बढ़ाया हुआ प्रत्येक कदम आत्मसंतोष का वातावरण उत्पन्न करेगा किन्तु भौतिक अधिकाधिक भौतिक संपदाओं की, अहंकार की पूर्ति, विलासिता की महत्वाकाँक्षाऐं यदि मन में कोलाहल कर रही होंगी तो हर सफलता के बाद और दूनी आग भड़केगी और अधिक लालची बनकर मनुष्य अपने आप अधिक लाभ प्राप्त करते चलने के साथ−साथ अधिक दीन-दरिद्र होने का भी अनुभव कर रहा होगा।
क्या यह भी कुछ कम है?
जितना कुछ आज मिला हुआ है, यदि विचार करें तो वह किसी भी प्रकार कम नहीं है, वरन ऐसा प्रतीत होगा कि परमात्मा ने बहुत पहले ही आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुत कुछ हमें दे रखा है और वह इतना पर्याप्त है कि उस पर गर्व और संतोष अनुभव किया जा सकता है। अपने से नीची परिस्थितियों में पड़े हुए करोड़ों मनुष्य ऐसे होंगे, जिन्हें यदि हमारे जैसा अवसर मिल जाए तो वे इसे अपना भारी सौभाग्य समझें। असंख्य अस्वस्थ एवं पीड़ाग्रस्त मनुष्यों की तुलना में क्या हमारा काम-चलाऊ स्वास्थ्य वाला शरीर कुछ अधिक बुरा है? कोढ़ी, अंधे, अपाहिज, गूँगे, बहरे लोगों की तुलना में क्या अपना अच्छा खासा शरीर कुछ कम है? रोज कुँआ खोदने, रोज पानी पीने वाले असंख्य मनुष्य ऐसे हैं, जिनकी आजीविका सर्वथा अनिश्चित रहती है और किसी दिन फाका, किसी दिन अधपेट रहना पड़ता है, क्या उनकी तुलना में हमारे आजीविका स्रोत अच्छे नहीं हैं? जिनका गृहस्थ है ही नहीं, है तो घोर कलह और अविश्वास से भरा हुआ है, उनकी तुलना में कुछ त्रुटियाँ रहते हुए भी क्या हमारा परिवार अधिक गया-बीता है? जिनने सामाजिक सम्मान और नागरिक अधिकार अनुभव भी नहीं किया, उन पिछड़े लोगों की तुलना में जो जन्मजात सुविधाएँ हमें मिली हुई हैं, वे कुछ कम हैं? पशु−पक्षी, कीट-पतंग, जीव−जंतु जिन्हें बोलने, पढ़ने, सोचने, खाने, सोने, रहने, पहनने, कमाने आदि की कोई सुविधा प्राप्त नहीं है, उनकी तुलना में हमारा मनुष्य जीवन क्या कहीं उत्कृष्ट स्थिति में नहीं है? इन प्रश्नों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि परमात्मा ने जो कुछ हमें दिया है, वह बहुत है, दूसरों की तुलना में कहीं ज्यादा है और इतना है कि उसके आधार पर हँसी−खुशी का जीवन सुविधापूर्वक व्यतीत किया जा सकता है।
सबसे बड़ी बाधा
आनंद का सबसे बड़ा शत्रु है असंतोष। हम प्रगति के पथ पर उत्साहपूर्वक बढ़े। परिपूर्ण पुरुषार्थ करें। आशापूर्ण सुंदर भविष्य की रचना के लिए संलग्न रहें; पर साथ ही यह भी ध्यान रखें कि असंतोष की आग में जलना छोड़ें। इस दावानल में आनंद ही नहीं, मानसिक संतुलन और सामर्थ्य का स्रोत भी समाप्त हो जाता है। असंतोष से प्रगति का पथ प्रशस्त नहीं, अवरुद्ध होता है। जल्दी कामना पूर्ण हो, इस हड़बड़ी में ही चित्त उलझा रहता है। प्रगति-पथ पर व्यवस्थापूर्वक बढ़ चलने के योग्य धैर्य और शांत चित्त द्वारा बन सकने वाली योजना भी उससे कहाँ बन पड़ती है? ऐसा व्यक्ति कोई ठोस सफलता प्राप्त कर सकेगा, इसमें संदेह ही बना रहेगा।
कामधेनु और कल्पवृक्ष
आज जो उपलब्ध है, उससे पूरा−पूरा आनंद उठाया जाना चाहिए। अपना शरीर, परिवार, आजीविका आदि के जो साधन उपलब्ध हैं, उनसे चित्त में पूर्ण संतोष और हर्ष अनुभव करना चाहिए। जो मिला है, वह ईश्वर की अपार कृपा का फल है। अकेला मानव जीवन ही संसार के समस्त प्राणियों की तुलना में सबसे बड़ा सौभाग्य है, फिर वह चाहे कितना ही अभावग्रस्त क्यों न हो। अपने अभावों की बात ही सदा नहीं सोचते रहना चाहिए, वरन यह भी सोचना चाहिए कि जो मिला हुआ है, वह भी क्या किसी प्रकार कम है? कामधेनु और कल्पवृक्ष हमारे अंतःकरण में मौजूद हैं। तृष्णाओं को सीमित करना कल्पवृक्ष है और जो मिला है, उस पर आनंद की अनुभूति करना कामधेनु है। स्वर्ग अपने भीतर है। आनंद के अमृत को खोजने कहीं जाना नहीं है। उसका मंगलकलश तो अपने हृदय में ही सुसज्जित रखा हुआ है। हम संतोष की साँस लें तो उसके साथ−साथ आनंद का मलय-मारुत प्रवाहित होगा। संतोषी मनुष्य की मुट्ठी में आनंद भरा रहता है। वह स्वयं तृप्त रहता है और अपनी तृप्ति की सुगंध से समीपवर्त्ती लोगों को भी तृप्त करता रहता है।