द्वेष-दुर्भाव से कोई लाभ नहीं?

November 1962

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जीवन की अनेक कष्टकारक परिस्थितियों में द्वेष एवं मनोमालिन्य के कारण हमें सबसे अधिक त्रास मिलता है। अन्य बुरी परिस्थितियाँ थोड़ी देर ठहरती हैं और अपना कुप्रभाव दिखाकर विदा हो जाती हैं, पर द्वेष का दुःख देर तक बना रहता है और कई बार तो मन में ऐसी जड़ जमाकर बैठ जाता है कि निरंतर काँटे की तरह खटकने लगता है। बैर में एक और खराबी है कि उसके कारण प्रतिशोध एवं प्रतिहिंसा की भावना पैदा होती है जिससे अपना द्वेष है। उसे कोई-न-कोई हानि पहुँचाने को जी चाहता है और जी की जलन तब तक शांत नहीं होती, जब तक बदला नहीं ले लिया जाता।

बदला लेना एक नया कुचक्र शुरू करता है। जिसे त्रास दिया गया है, उसके मन में ठीक वैसी ही प्रतिहिंसा उत्पन्न होती है, जैसी बदला लेने से पूर्व अपने मन में थी। उसके मन में प्रतिशोध का रोष उमड़ता है और अपने ऊपर चोट करता है। अब यह पहिया घूमने लगता है, क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। दोनों पक्ष एकदूसरे से अपना बदला चुकाने लगते हैं। इस चपेट में दूसरे अनेकों निर्दोष आते हैं। कभी−कभी इसका संगठित रूप पार्टीबंदी के रूप में उठ खड़ा होता है। हत्या, कत्ल, डकैती, फौजदारी, छुरेबाजी, लूट, अपहरण, चोरी आदि की जितनी घटनाएँ धन के लालच से होती हैं, उससे कई गुनी शत्रुता के कारण होती हैं।

सबसे बड़ा दुःख

चिंता, भय, निराशा, शोक, अपमान आदि अनेकों कारणों से मनुष्य का मन दुःखी रहता है, पर उन सबको मिलाकर भी उतना दुःख मन को नहीं होता जितना द्वेष के कारण होता है। सर्प जैसा तुच्छ कीड़ा क्रोध के वशीभूत होकर इतना उग्र बन जाता है कि छेड़ने वाले की जान लिए बिना संतुष्ट नहीं होता। कई बार तो वह अपने छेड़ने वाले को वर्षों तक याद रखता है और जब भी उसे अवसर मिलता है, तभी अपने बैर का प्रतिशोध लेकर जी की जलन मिटाता है। मनुष्य तो अधिक संवेदनशील है। क्रोध उसे पागल ही बना देता है। चाणक्य जैसा विद्वान, जरा-से अपमान से क्रुद्ध होकर इतना असंतुलित हो गया कि उसने नंद वंश का सर्वनाश करके ही चैन लिया। द्रौपदी के जरा-से व्यंगय से क्षुभित होकर दुर्योधन इतना क्रूर बन गया कि उसने पांडवों से बदला लेने के लिए महाभारत जैसी विभीषिका को स्वीकार कर लिया। चंबल घाटी के दुर्दांत दस्युओं की समस्या जिसने लाखों मनुष्यों का नागरिक जीवन अस्त−व्यस्त किया है, डाकुओं के प्रारम्भिक जीवन में किसी साधारण बात से उत्पन्न द्वेष और प्रतिशोध से आरंभ होती है और अब तक वह समाज को भारी क्षति पहुँचा रही है।

द्वेष की प्रतिक्रिया

इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो भी भयंकर संघर्षों और आक्रमणों के बीच द्वेष को ही प्रधान कारण पाते हैं। अन्य सभी कारण गौण थे। शांत भाव से जंगलों में जीवनयापन करने वाले पशु, जिनके बीच कोई समस्या नहीं है, कभी क्रोध और द्वेष के वशीभूत होकर ऐसे असंतुलित होकर लड़ पड़ते हैं, कि एकदूसरे की जान लेकर ही पीछे हटते हैं। सिंह, व्याघ्र, रीछ और भैंसों में ऐसी ही लड़ाई होती है। कुत्तों को लड़ते हुए तो हम रोज ही देखते हैं। तीतर, बटेर और मुर्गों की लड़ाई भी कराई जाती है। कुत्ता-बिल्ली के बीच अकारण बैर है। कोई किसी का माँस भी नहीं खाता फिर भी द्वेषवश एकदूसरे की जान के ग्राहक बने रहते हैं। द्वेष से क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोध में उन्मत्त होकर मनुष्य पागलों की तरह वह कुकर्म कर बैठता है, जिसके लिए उसे सदा पश्चात्ताप-ही-पश्चात्ताप करते रहना पड़ता है।

शरीर और मन की अन्य व्यथाएँ कम समय तक कष्ट देती हैं। बुखार, खाँसी, दस्त, दरद आदि सदा नहीं रहते। दस−पाँच दिन में वे अपने आप अच्छे हो जाते हैं। न अच्छे हों तो कोई अच्छा चिकित्सक तेज उपचार करने खड़ा हो जाए तो वह कष्ट तुरंत या एकाध दिन में ही मिट सकता है। चिंताएँ जिस कारण रहती हैं, वह कारण दूर होते ही चिंता भी दूर हो जाती है। उसी प्रकार अन्य मनोव्यथाएँ भी समय−समय पर घटती-मिटती रहती हैं। पर द्वेष का रूप ही कुछ विलक्षण है। वह घृणा, ईर्ष्या, शत्रुता, मनोमालिन्य, प्रतिहिंसा आदि के अनेक रूप धारण करके मन में छिपा बैठा रहता है। प्रतिपक्षी को कैसे हानि पहुँचे, यह एक ही योजना वह बनाता रहता है। यह योजना यदि बन भी जाए और कार्यरूप में परिणत भी हो जाए तो इतनी महँगी पड़ती है कि उससे अपनी बहुमूल्य शक्तियाँ इस निरर्थक काम में बिलकुल ही व्यर्थ बर्बाद होती हैं। उसका कुछ भी लाभ अपने को नहीं मिलता, वरन प्रतिक्रिया का शिकार होने पर कभी भारी क्षति उठाने की आशंका और खड़ी हो जाती है।

अपने पैरों कुल्हाड़ी

आग जहाँ रखी जाती है, पहले उसी को जलाती है। दूसरी दूर की वस्तु को वह पीछे जलावेगी, पहले तो उसी चीज को समाप्त करेगी, जिसमें उसे रखा जाएगा। तेजाब जहाँ कहीं गिर पड़ता है उसी वस्तु को गला देता है। आग और तेजाब की तरह द्वेष की अग्नि जिसके मन में रहती है, उसका मनःसंस्थान सूझ−बूझ से रहित, असंतुलित और अस्त−व्यस्त बनकर मूर्ख, पागल एवं विक्षिप्त जैसी स्थिति उत्पन्न कर देता है। जरा−जरा−सी बात पर लड़ाई, झगड़ा, उठना, कटुवचन, दुर्व्यवहार, असहयोग, अवज्ञा, उपेक्षा, उपहास, अपमान आदि की चुभने वाली बातें कई बार स्वजन-संबंधियों में, परिवार के लोगों में परस्पर चलने लगती हैं, वहाँ साथ−साथ रह सकना कठिन हो जाता है। इन बुरी बातों से बने परिवार नष्ट हो जाते हैं। स्नेह संबंध समाप्त होकर, पराएपन के भाव उत्पन्न होते हैं और अंततः भावनात्मक संबंध ही विच्छेद हो जाता है, ऊपर से शिष्टाचार संबंध भले ही बना रहे।

द्वेष के कारण जो क्रोध और प्रतिहिंसा का भाव उत्पन्न होता है, उससे प्रतिपक्षी को जितनी हानि पहुँचती है, उससे अनेकों गुनी हानि अपनी होती है। मनोविज्ञान शास्त्र के ज्ञाता जानते हैं कि द्वेष के दुर्भाव के कारण मनोभूमि में ऐसी ग्रंथियाँ बन जाती हैं, जो आगे चलकर अनेकों कष्टसाध्य एवं असाध्य रोगों को जन्म देती हैं, उन रोगों की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि दवादारू का भी कोई असर उन पर नहीं पड़ता। स्वभाव और गुणों का स्तर गिरता है, जिससे व्यक्ति निम्न श्रेणी के निकृष्ट कोटि के विचार और कार्य करने पर उतारू होता है। जिसका मन द्वेष-दुर्भावनाओं से भरा रहता है, उससे ऐसे किसी श्रेष्ठ कार्य की आशा नहीं की जा सकती, जो उसकी कीर्ति को बढ़ावे, दूसरों को सुविधा उत्पन्न करें अथवा समाज की प्रगति में योग देवे। अधःपतन का सबसे सरल मार्ग एक ही है कि मनुष्य अपनी मनोभूमि को द्वेष-दुर्भावों से भरा रखे। शेष सभी सत्यानाशी दुर्गुण अपने आप वहाँ इकट्ठे होते चले जावेंगे।

घोर अशांति और भयंकर विक्षोभ

वैयक्तिक जीवन में घोर अशांति और समस्त संसार में भयंकर विक्षोभ पैदा करने वाले इस दुष्ट द्वेष की जड़ तलाश करने निकलते हैं, तो उसका उद्गम गलतफहमी से निकलता हुआ दिखाई देता है। ऐसी घटनाएँ कम ही होती हैं कि जब किसी ने लोभवश किसी को सताया होता है और उसके कारण द्वेष उत्पन्न हुआ होता है। ऐसी घटनाएँ 20 प्रतिशत और गलतफहमी से उत्पन्न हुए द्वेष की घटनाएँ 80 प्रतिशत होती हैं। पेशेवर दुष्ट, दुराचारियों और गुंडों से निपटने के लिए प्रतिशोध के व्यवस्थित तरीके तथा शासनशक्ति का सहारा लिया जा सकता है, पर वह भी न्याय की रक्षा, बुरे का सुधार और सामाजिक शांति-व्यवस्था की पवित्र दृष्टि से ही होना चाहिए। रोगी से नहीं, रोग से घृणा करनी चाहिए। दुष्ट से नहीं, दुष्टता से निपटना चाहिए।

इस संसार में कोई भी व्यक्ति न तो पूर्णतः बुरा है और न भला। जो आज बुरा है, कल भला भी बन सकता है। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अजामिल, सदन कसाई, गणिका आदि के कितने ही प्राचीन और अगणित अर्वाचीन ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जिनमें बुरे व्यक्ति अच्छे बने हैं, उसने अपने आपको बिलकुल ही बदल डाला है। ऐसी दशा में किसी व्यक्ति के प्रति घृणा या द्वेष रखना क्योंकर उचित हो सकता है? सभी प्राणी जब भगवान के अंश हैं, सभी की आत्मा में जब परमात्मा की छाया है तो उसे घृणित माना भी कैसे जा सकता है?गंदगी लगा हुआ बरतन जब माँज-धोकर शुद्ध किया जा सकता है तो बुरा व्यक्ति भी सुधरने पर श्रेष्ठ और सम्माननीय क्यों नहीं बन सकता? जब व्यक्ति परिवर्तनशील ही है, तो उससे स्थायी द्वेष और शत्रुता करने का कोई कारण नहीं रह जाता।

दुष्टता का प्रतिशोध दुष्टता से ही हो, यह कोई जरूरी बात नहीं है। प्रेम और भलमनसाहत से भी यह हो सकता है। गांधी जी ने अपने जीवन में सत्य और प्रेम का शस्त्र अपने प्रबल प्रतिपक्षियों पर चलाकर उन्हें परास्त करके प्रेमयुद्ध का एक अनुपम उदाहरण हमारी आँखों के सामने अभी−अभी रखा है। यह शस्त्र हम में से हर कोई उन लोगों के विरुद्ध चला सकता है, जिन्हें कुमार्ग पर चलता हुआ देखा जाए। यह कार्य बिना रत्ती भर द्वेष मन में रखे पूर्ण सद्भावना के साथ किया जा सकता है। प्रेम की लड़ाई भी लड़ी जा सकती है और यदि अपना पक्ष सच्चाई और न्याय का है तो बुराई को सुधारने में सफलता भी प्राप्त की जा सकती है।

एक बड़ा कारण गलतफहमी

द्वेष का प्रधान कारण गलतफहमी होता है। आमतौर से हम उन सबको अपना शत्रु या विरोधी मान लेते हैं, जो हमारे विचारों से सहमत नहीं होते, हमारी पसंदगी की गतिविधियाँ नहीं अपनाते। हर आदमी यह सोचता है कि बाकी सब लोग मेरी इच्छानुसार सोचें और करें। यह आकांक्षा बहुत ही गलत, अहंकारपूर्ण और नासमझी से भरी हुई है। अपनी समझ से हमारा सोचना और करना हमारे लिए ठीक हो सकता है, पर यह जरूरी नहीं कि बाकी सब लोग भी उसी को ठीक समझें, जिसे हम पसंद करते हैं। रुचि भिन्नता और विचार मित्रता इस संसार की शोभा और विचित्रता है। यदि नैतिक आदर्शों पर हम सब सहमत हों तो फिर बाहरी, साधारण रुचि भिन्नताएँ हमारे प्रेमभाव में बाधक न होनी चाहिए।

हर आदमी की अपनी मनोभूमि, रुचि, भावना और परिस्थिति होती है। वह उसी आधार पर सोचता, चाहता और करता है। हमें इतनी उदारता रखनी ही चाहिए कि दूसरों की भावनाओं का आदर न कर सकें तो कम-से-कम उसे सहन तो कर ही लें। असहिष्णुता मनुष्य का एक नैतिक दुर्गुण है, जिसमें अहंकार की गंध आती है। इतना दुस्साहस तो परमात्मा भी नहीं करता। उसने शास्त्रों के द्वारा अपनी रुचि और इच्छा प्रकट कर दी है कि इस प्रकार का आचरण हमें करना चाहिए। इतने पर भी जो उसकी आज्ञा की अवज्ञा करते हैं, उन्हें वह सहन करता है, तत्काल ही उन पर आगबबूला नहीं हो जाता, वरन सौम्य और शांत विधि-व्यवस्था से इन अवज्ञाकारियों के सुधार का कार्य धैर्यपूर्वक करता रहता है। हम ईश्वर से भी बड़े बनें और हर किसी को अपनी मरजी का बनाना और चलाना चाहें तो यह एक मूर्खताभरी बात ही होगी।

सहिष्णुता और सह-अस्तित्त्व

यह हो सकता है कि कोई पूर्ण ईमानदार होते हुए भी अपनी समझ के अनुसार हमारे विचारों से भिन्नता रखे। भारत में अनेकों देवी−देवता, संप्रदाय, मत-मतांतर, धर्मग्रंथ, पूजा-विधान एवं रीति−रिवाज प्रचलित हैं। इनमें परस्पर कोई समानता नहीं, वरन कई बार तो प्रतिकूलता दिखती है। इतने पर भी यहाँ सदा से विचार स्वातंत्र्य को पसंद किया गया है। इस भिन्नता से सत्य की शोध में सहायता ही मिलती है। उपयोगिता और वास्तविकता की कसौटी पर जो खरा उतरेगा, वही विचार अंततः जीवित रहेगा, शेष को समीक्षा एवं विवेक की कसौटी खोटा सिद्ध करके फेंक देगी। इसके लिए धैर्य रखना और प्रतीक्षा करना ही उचित है, पिछले दिनों जोर−जबरदस्ती के बल पर मतों को फैलाने का प्रयत्न किया जा चुका है। यह प्रयत्न सफल तो नहीं हुआ; अपने पीछे एक घृणा, कटुता और दुःखभरी गाथा ही छोड़ गया है। अभी भी कुछ लोग उसी की पुनरावृत्ति करते हैं। तलवार से न सही, गाली−गलौज अथवा अन्य तरीकों से दूसरों को अपना अनुयायी बनाना चाहते हैं। यह असहिष्णुता उचित नहीं, हमें सह-अस्तित्त्व को मान्यता देनी चाहिए। अपने पक्ष का उचित रीति से समर्थन और प्रचार करें और दूसरों को दबाने या विवश करने की बात न सोचें। विचार परिवर्तन और हृदय परिवर्तन सद्भावना के वातावरण में होना चाहिए। सामाजिक ही नहीं, घरेलू जीवन में भी हमारी रीति−नीति यही रहे।

हम किसी के सामने कोई प्रस्ताव रखते हैं या कुछ पाने की आशा करते हैं। अपनी समझ या परिस्थिति के अनुसार वह उसे स्वीकार नहीं करता तो यह मान बैठना गलती है कि वह हमारा दुश्मन ही हो गया। भूलवश अनजाने में भी कोई व्यक्ति ऐसी बात कह सकता है या ऐसा काम कर सकता है, जो हमें शत्रुतापूर्ण मालूम पड़े। किंतु उसकी दृष्टि से उसका इरादा जरा भी बुरा नहीं। जिस प्रकार हम अपनी सुविधा सोचते हैं, उसी प्रकार दूसरे व्यक्ति भी अपनी सुविधा की दृष्टि से हमारे प्रस्ताव की उपेक्षा कर सकते हैं। इस उपेक्षा को हम शत्रुता क्यों मानें? हमारी हर इच्छा दूसरों को पूरी कर ही देनी चाहिए, यह मान्यता बना लेना एक ऐसी गलती है, जिसके फलस्वरूप पग−पग पर शत्रुता ही बढ़ती चली जाती है और धीरे−धीरे अपने सब मित्र साथ छोड़ते तथा शत्रु बनते दिखाई देने लगते हैं।

समझौते का बिंदु ढूँढें

अपने से भिन्न विचारों को भी हमें सहन करना चाहिए। दूसरों के स्वार्थ और अपने स्वार्थ जहाँ टकराते हों, वहाँ बीच का-- समझौते का मार्ग खोजना चाहिये। ‘सब कुछ या कुछ नहीं’ की नीति गलत है। जितना मिले उतना लो, शेष के लिए कोशिश करो, यही नीति उचित है। जिस हद तक हम दूसरों से मतैक्य का आधार ढूँढ़ सकते हों ढूँढें और प्रयत्न यह करें कि जो मतैक्य के आधार हैं, उन पर जोर दें। उनकी चर्चा करें और उस क्षेत्र को विस्तृत करें। मतभेद के प्रसंगों की चर्चा तभी करें, जब दोनों ओर की मनोभूमि उसे सुनने−समझने और सुधारने की स्थिति में हो। समय−कुसमय मतभेदों की ही चर्चा करते रहना, उसी का रोना रोते रहना, द्वेष-दुर्भाव बढ़ाने में ही सहायता करता है।

दूसरे को बदनीयत मान बैठना, उनके हर कार्य में द्वेष-दुर्भाव की गंध सूँघना अपनी तुच्छता का प्रतीक है। सद्भावना से भी कोई व्यक्ति अपने से असहमत हो सकता है और अपनी आशाओं के प्रतिकूल उत्तर दे सकता है। इतने मात्र से हमें क्रुद्ध क्यों होना चाहिए। एकदूसरे के प्रति जो गलतफहमी की गाठें मन में बन जाती हैं, उनके निवारण का उपाय एक ही है कि उससे एकांत में जी खोलकर बात की जाए और वास्तविकता तथा गलतफहमी का सही रूप से निरूपण कर लिया जाए। इस दुनियाँ में तीन-चौथाई झगड़े गलतफहमी के आधार पर होते हैं। यदि परस्पर जी खोलकर शुद्ध मन से अपने प्रतिपक्षी के साथ बातचीत करते रहने की नीति अपनाई जाए, तो द्वेष का सबसे जबरदस्त किला सहज ही ढह सकता है।

हमें द्वेषी नहीं, प्रेमी बनना चाहिए। दूसरों के प्रति दुर्भावना या घृणा लेकर नहीं, सद्भाव एवं स्नेह लेकर जीवन व्यतीत करना चाहिए। हमारा अपना निज का लाभ, सुख और कल्याण इसी में है।


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