हम और हमारी युगनिर्माण योजना

November 1962

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युगनिर्माण योजना के महान कार्यक्रम को अग्रसर करने के लिए अखण्ड ज्योति परिवार को अब एक सुगठित संगठन का रूप दिया जा रहा है। संघ के बिना वह शक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती, जिससे मानव जाति की अंतःचेतना तथा बाह्य वातावरण में घुसी हुई दुष्प्रवृत्तियों को हटाकर उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठापना संभव हो सके। भगवान बुद्ध ने तंत्रयुग की वाममार्गी दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन करने के लिए संघशक्ति का उद्भव किया था। “धम्मं शरणं गच्छामि, बुद्धं शरणं गच्छामि” के साथ−साथ उन्होंने ‘संघं शरणं गच्छामि’ की भावना को भी प्रमुखता दी थी। बुद्ध धर्म में प्रवेश करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को “संघं शरणं गच्छामि” की भावना को अनिवार्य रूप से हृदयंगम करना पड़ता था। संघ के प्रति निष्ठावान हुए बिना उनका कोई अनुचर नैष्ठिक कहलाने का अधिकारी न होता था।

आज की विषम परिस्थितियाँ

आज वह आवश्यकता और भी अधिक प्रबल रूप से समाने आई है। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जीवन में आज अगणित दुष्प्रवृत्तियों का प्रवेश हो गया है और फलस्वरूप सर्वत्र रोग, शोक, क्लेश, कलह, पाप, संताप, अनीति, अत्याचार का वातावरण दृष्टिगोचर हो रहा है। अशांतिमय और अनिश्चित परिस्थितियों के कारण हर कोई खिन्न, उद्विग्न और निराश दीखता है। जीवन की प्रत्येक गुत्थी उलझी हुई प्रतीत होती है। इन परिस्थितियों को बदलने के लिए जहाँ उत्कृष्ट कोटि के विचारों का विस्तार होना आवश्यक है, वहाँ यह भी आवश्यक है कि अनुपयुक्त परंपराओं को हटाकर उनके स्थान पर आदर्शवादी उदाहरण प्रस्तुत किए जाएँ। श्रेष्ठता का संगठित और व्यवस्थित प्रयत्न किया जाएगा, तभी वह व्यापक परिमाण में बढ़ और पनप सकेगी।

सामाजिक कुरीतियों के कारण हिंदू समाज जर्जर और जीर्ण−शीर्ण बना हुआ है, उसका पुनर्निर्माण करके प्राचीनकाल जैसी आदर्श परंपराओं को अपने सामाजिक जीवन में प्रविष्ट करना होगा। राजनैतिक क्षेत्र में इतनी बुराइयाँ घुस पड़ी हैं कि प्रगति के स्थान पर पतन के लक्षण दृष्टिगोचर हो रहे हैं। वैयक्तिक जीवन में वासना, तृष्णा, स्वार्थपरता और अकर्मण्यता का साम्राज्य छाया हुआ है। संयमी और सदाचारी जीवन बिताना एक कल्पना एवं मखौल की वस्तु समझी जाती है। पारिवारिक जीवन में विश्वास, त्याग, निष्ठा, वफादारी और प्रेम निरंतर घट रहे हैं। एक घर में रहते हुए भी परिवार के लोग धर्मशाला में टिके हुए परदेशियों की भावना से दिन गुजारते हैं। आर्थिक-क्षेत्र में सर्वत्र बेईमानी, मिलावट, रिश्वत, चालाकी, धोखाधड़ी की तूती बोलती है। आर्थिक पवित्रता, ईमानदारी को अब मूर्खता समझा जाता है। व्यसन और व्यभिचार तेजी से बढ़ रहे हैं। नशेबाजी, गुंडागर्दी, अपराध, ईर्ष्या, द्वेष, निंदा, चुगली, फैशन, तड़क−भड़क, अश्लीलता, कामुकता की वे प्रवृत्तियाँ बराबर पनपती चली जा रही हैं, जो वैयक्तिक और सामूहिक जीवन को नरक बनाकर ही छोड़ती हैं। जो परिस्थितियाँ आज हैं, उन्हें यदि रोका न गया तो मानव जाति को सामूहिक आत्महत्या करने के लिए, सर्वनाश के गर्त्त में गिरने के लिए विवश होना पड़ेगा।

सर्वनाशी दावानल

विभीषिकाओं का यह दवानल जब चारों ओर गगनचुंबी लपटों के साथ उठता चला आ रहा हो, तब विवेकशील प्रबुद्ध आत्माओं के लिए यह कठिन होगा कि वे आँखें बंद करके यह सब देखते रहें और इस दावानल को बुझाने के लिए कुछ भी प्रयत्न न करें। इतने विशाल क्षेत्र में फैले हुए अनाचार के विरुद्ध मोर्चा लेना एक-दो व्यक्तियों का काम नहीं है। 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।' इसके लिए विशाल परिमाण में संगठित प्रयत्नों की ही आवश्यकता होगी। युगनिर्माण योजना का आरंभ करते हुए पहला कार्य अखण्ड ज्योति परिवार की प्रबुद्ध एवं जागृत आत्माओं को संगठित रूप से सुगठित करना आवश्यक था। ‘घर बाँधकर बाँधने’ वाली कहावत के अनुसार जो मार्गदर्शन हमें सारे मानव समाज को, सारे विश्व को कराना है, उसकी एक प्रयोगशाला अपना घर, अपना परिवार बनने जा रहा है। युग−परिवर्तन के लिए संघशक्ति अनिवार्य है। इसके बिना एक कदम भी प्रगति नहीं हो सकती। इसलिए हम सब अब सुगठित रूप से संघबद्ध हो रहे हैं।

अखण्ड ज्योति परिवार के प्रत्येक ग्राहक को युगनिर्माण योजना का सदस्य बनाया जा रहा है। सदस्यता की कोई फीस नहीं है। योजना की वाणी और प्रेरणा का संदेश लेकर निकलने वाली अखण्ड ज्योति को जो लोग मँगाते हैं, उनकी भावना और विचारधारा इस योग्य बन और ढल ही जाने वाली है कि वे प्रस्तुत कार्यक्रम में अपने उत्तरदायित्व को निबाहने के लिए कटिबद्ध हो सके। सितंबर अंक में 'परिचय और विवरण' नामक एक फार्म छपा था, उसे भरकर अधिकांश पाठकों ने भेज दिया था, जिनने अभी तक नहीं भेजा है, वे बिना एक क्षण का आलस किए यह पंक्तियाँ पढ़ते ही अपना फार्म भरकर भेज दें। इन सूचनाओं के आधार पर प्रत्येक परिजन की परिस्थितियाँ और भावनाओं को, उनके व्यक्तित्व को ठीक तरह समझ सकना संभव होगा और उस विस्तृत जानकारी के आधार पर आगे की गतिविधियों का निर्धारण किया जाएगा।

योजना का प्रथम चरण

युगनिर्माण योजना का प्राथमिक कार्यक्रम हम सबको इस महीने में पूरा कर लेना चाहिए। प्रत्येक सदस्य का सदस्यता पत्र नवंबर मास में मथुरा पहुँच जाना चाहिए। यह प्रथम और अत्यंत सरल अनुरोध भी जो परिजन पालन न कर सकेंगे, उनके संबंध में निराशा ही व्यक्त करनी पड़ेगी। आगे हमें बहुत बड़े कदम उठाने और मिल-जुलकर महत्त्वपूर्ण भूमिका का संपादन करना है। छोटे कामों के लिए भी हम ढीले नहीं हो सकते। हमें अपना विचार-क्षेत्र बढ़ाना ही होगा और परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ानी ही होगी। सारे देश में ही नहीं, समस्त विश्व में मानव संस्कृति के विस्तार का अपना मिशन यदि एक छोटी सीमा में ही संकुचित रह गया, तो विश्वमानव की सेवा कर सकना, धर्मराज्य एवं विश्वशांति की स्थापना का लक्ष्य किस प्रकार पूरा हो सकेगा?

हम में से प्रत्येक को यह भी प्रयत्न करना होगा कि हमारी विचार-संतति बढ़े। संतान उत्पन्न करने से पितरों की सद्गति होती सुनी जाती है। आज की परिस्थितियों में अधिक बच्चे उत्पन्न करना भले ही आवश्यक न रहा हो, पर विचार−संतान का उत्पन्न करना निश्चय ही एक श्रेष्ठ परमार्थ हो सकता है। सद्विचारों और सत्कर्मों की अभिवृद्धि के उद्देश्य से बनाई गई युगनिर्माण योजना की वंश परंपरा हम में से हर एक को बढ़ानी चाहिए। जिस प्रकार अनेक स्वार्थ-साधनों के लिए हम दूसरों को तरह−तरह से प्रभावित करते, बदलते और फुसलाते हैं उसी प्रकार इस परमार्थ-साधन के क्षेत्र में उन सबको घसीट लाने का प्रयत्न करना चाहिए, जिनसे हमारा संपर्क है, जिन पर हमारा प्रभाव है।

प्रसार और प्रचार की आवश्यकता

ईसाई मिशन का जब प्रचार भारत में हुआ था, तो अंग्रेज कलेक्टरों, कमिश्नरों की स्त्रियाँ, लड़कियाँ एक−एक पैसा मूल्य की लूका, युहन्ना, मरकुस, मत्ती पुस्तकें घर−घर बेचने जातीं और बिना रत्ती भर संकोच, झिझक किए अपनी धर्मसेवा के लिए इस छोटे काम को अंगीकार करती थीं। उसी लगन का परिणाम है कि आज ईसाई धर्म में करोड़ों व्यक्ति दीक्षित हो गए। प्राचीनकाल में साधु-ब्राह्मण घर−घर धर्मशिक्षा देने के लिए जाया करते थे। अलख जगाने और धर्मफेरी लगाने की पुण्यपरंपरा उच्चकोटि के धर्मकार्यों में गिनी गई है। हमें भी कुछ ऐसा ही प्रयत्न करना होगा। संकोच, झिझक, आलस, तौहीन जैसी छोटी कमजोरियों पर विजय प्राप्त करके कुछ समय ऐसा निकालना ही पड़ेगा कि अपनी ‘अखण्ड ज्योति’ अपने समीपवर्त्ती दस−बीस व्यक्तियों को पढ़ाने−सुनाने के लिए दौड़−धूप की जाती रहे। युग निर्माण के लिए आवश्यक लोक-शिक्षण और कार्यक्रम अखण्ड ज्योति द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, इस चेतना का क्षेत्र व्यापक बनाने के लिए हमें जी-जान एक कर देना चाहिए। कोई मित्र, पड़ोसी ऐसा न बचे जो इस विचारधारा से अपरिचित हो।

दिवाली का प्रेमोपहार

अभी 5−6 दिन पूर्व इस वर्ष की दिवाली गई है। दिवाली भारत का सबसे बड़ा त्यौहार है। इस दिन हर कोई दीपक जलाता है और मिठाई के उपहार बाँटते हैं। हम अखण्ड ज्योति परिवार के सदस्य आध्यात्मिक दीपक— ज्ञानदीपक जलावें। मिठाई की जगह सद्भावनाओं का उपहार भेजें। शुभकामना के रंग−बिरंगे कार्ड, कलैंडर आदि उपहार भेजने के स्थान पर यह अच्छा है कि स्वजनों को अखण्ड ज्योति के अंक भेंट में दें। इस प्रकार हमारी आध्यात्मिक दीपावली मनेगी और युग निर्माण विचारधारा के ज्ञानदीप लोगों की अंतरात्मा में टिमटिमाने लगेंगे। इस वर्ष सितंबर का सत्−संकल्प अंक, अक्टूबर का उच्चस्तरीय गायत्री साधना अंक, नवंबर और दिसंबर के संजीवन विद्या अंक—इस प्रकार यह चार अंक अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। युगनिर्माण योजना की संक्षिप्त विचारधारा इन चारों में आ गई है। चार−चार आने का प्रत्येक अंक होने से यह चार अंक एक रुपये के हो जाते हैं। अपने दस−पाँच मित्रों, स्वजनों को यह एक−एक रुपये के चार−चार अंक अपनी ओर से भिजवाने का दिवाली प्रेमोपहार भेजा जा सकता है। यह उच्चकोटि का ज्ञानदान सच्चा ब्रह्मभोज कहा जा सकता है। आज ऐसे सत्पात्र ब्राह्मण मुश्किल से ही ढूँढें मिलेंगे, जिन्हें खिलाने से समाज का हित और पुण्य की प्राप्ति हो सके, पर ज्ञानदान जिसे भी दिया जाएगा। उनमें थोड़ा भी सुधार हुआ तो उस सुधार का पुण्यफल उन सज्जनों को मिलेगा, जिन्होंने प्रेमोपहार में यह सत्साहित्य भेजकर सच्ची और गहरी वास्तविक मित्रता एवं शुभचिंतन का परिचय दिया था।


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