जीव पर दो प्रकृतियों की छाया

November 1962

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दो वस्तुओं के मिलने से एक तीसरी चीज बनती है। दिन और रात्रि की मिलन-बेला को संध्या कहते हैं। संध्या न रात है और न दिन, पर ध्यानपूर्वक देखा जाए तो उसमें दोनों का ही अस्तित्त्व मौजूद है। सोडा-कास्टिक और तेल मिलकर साबुन बन जाता है। साबुन न तेल के सदृश है और न सोडा के। उसका रूप दोनों से भिन्न है, फिर भी परीक्षण के बाद उन दोनों ही वस्तुओं का साबुन में आस्तित्त्व प्रमाणित हो जाता है। प्राणी भी ऐसे ही दो सम्मिश्रणों का एक तीसरा रूप है। परम ब्रह्म परमात्मा और पंचभौतिक प्रकृति, इन दोनों के सम्मिश्रण से जो तीसरी सत्ता उत्पन्न होती है, उसका नाम जीव है। ब्रह्म चेतन है, इसलिए उसका गुण आत्मिक चेतना, अंतःकरण एवं भावना के रूप में मौजूद हैं। प्रकृति जड़ है, इसलिए शरीर का सारा ही ढाँचा जड़ है। जीव की चेतना एवं प्रेरणा से वह चलता है। जब यह चेतना तनिक भी अशक्त या अस्त−व्यस्त होती है तो शरीर का सारा ढाँचा ही लड़खड़ा जाता है, सारा खेल ही खत्म हो जाता है। साइकिल चलाने वाले के पैरों में जब तक दम है, तभी तक पहिये घूमते हैं जब पैर थक गए तो साइकिल का चलना भी बंद हो जाता है। शरीर में जो क्रियाशीलता दिखाई पड़ती है, वह जीव की उपस्थिति और शक्ति का चिह्न है। यह शक्ति कुंठित होते ही शरीर दुर्बल, वृद्ध, रुग्ण और मृतक बन जाता है और तब वह घृणित लगने लगता है। निर्जीव होने पर तो जल्दी-से-जल्दी उसकी अंत्येष्टि ही करनी पड़ती है। पंचतत्त्व अपने-अपने तत्त्वों में मिल जाते हैं, वह सम्मिश्रण समाप्त हो जाने से दोनों को अपने-अपने स्वतंत्र रूप में पहुँच जाना पड़ता है।

जड़ और चेतन के अपने−अपने गुणधर्म भी हैं। ईश्वर चेतन है, इसलिए उसका अंश— जीव चेतन तो है ही, उसमें वे सब विशेषताएँ भी बीजरूप में मौजूद हैं, जो उसके मूल उद्गम-ब्रह्म में ओत-प्रोत हैं। ईश्वर सत्, चित् और आनंदस्वरूप है। जीव में भी सत्य में ही प्रसन्नता तथा संतोष अनुभव करने की प्रकृति है। कोई व्यक्ति स्वार्थवश स्वयं भले ही दूसरों से असत्य व्यवहार करे, पर उसके साथ दूसरे जब झूँठ, कपट, छल, विश्वासघात का व्यवहार करते हैं, तो बड़ा अप्रिय लगता है और दुःख होता है। हर किसी को यही पसंद होता है कि दूसरे उसके साथ पूर्ण निष्कपटता का, सच्चाई का व्यवहार करें, छल और धोखे की बात सुनते ही मन में भय, आशंका और घृणा उत्पन्न होती है। इससे स्पष्ट है कि जीव अपने उद्गम-केंद्र ब्रह्म का ‘सत्’ गुण अपने अंदर गहराई तक धारण किए हुए हैं।

चित् अर्थात चेतना सक्रियता। जीव भी ईश्वर की भाँति ही आजीवन, निरंतर सक्रिय रहता है। सोते समय, मूर्छा के समय केवल मस्तिष्क का एक छोटा भाग अचेत होता है, बाकी समस्त शरीर हर घड़ी काम करता रहता है। रक्तसंचार, श्वास−प्रश्वास, पाचन, स्वप्न आदि की क्रियाएँ बराबर चलती रहती हैं, शरीर के सभी कल-पुरजे अचेतन कहे जाने वाले मस्तिष्क के सहारे ठीक वैसा ही काम करते रहते हैं, जैसे जागते रहने पर होता था। विचार, भावना, विवेक, उत्साह, स्फूर्ति एवं क्रियाशीलता को चेतनता का ही अंग कहा जाएगा। ईश्वर चित् अर्थात चेतन है तो जीव भी वैसा ही क्यों न रहेगा। जब परमात्मा की सत्ता समस्त ब्रह्मांड में व्यापक होकर असंख्य प्रकार की प्रक्रियाएँ निरंतर संचारित रखती हैं तो जीव भी पिंड में, शरीर में व्याप्त होकर अहिर्निश अपना चेतना-व्यापार क्यों जारी न रखेगा।

परमात्मा आनंदस्वरूप है। उसकी प्रत्येक क्रिया आनंदपूर्ण है, आनंद के लिए है। आनंद-उद्भव एवं विस्तार करने के लिए है। उसने क्रीड़ा करने के लिए यह सारा संसार रचा है। लीलाधर की लीलाएँ आह्लाद और उल्लास प्रदान करने वाली हैं। प्राणी भी आनंद की ही खोज में निरंतर संलग्न रहता है। उसे अपनी समझ के अनुसार जहाँ कहीं भी आनंद दिखता है, वहीं जा पहुँचता है, जो वस्तुएँ उसे आनंददायक लगती हैं, उन्हें ही प्राप्त करने की चेष्टा करता है। सच्चा आनंद और झूठा आनंद परखने में भूल हो सकती है पर इतना निश्चित है कि हर प्राणी आनंद चाहता है और अपनी परिष्कृत अथवा अपरिष्कृत बुद्धि के अनुसार जहाँ भी आनंद दिखाई पड़ता है, वहीं रहना चाहता है, उसी को प्राप्त करना चाहता है। इसी चाहना— आकांक्षा के लिए उसका प्रायः सारा ही जीवन उत्सर्ग होता है। सत्, चित्, आनंद का सम्मिश्रित रूप ही ब्रह्म है; चूँकि हम सब इन तीनों ही को चाहते हैं और इन्हें ही अधिक मात्रा में प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, इसलिए यही कहना होगा कि हमारी प्रवृत्ति ब्रह्मप्राप्ति की दिशा में है। यही हमारी प्रकृति भी है। इस संसार में समस्त जड़-चेतन अपनी−अपनी प्रकृति के अनुसार प्रवृत्तिरत है। जीव भी इसका अपवाद नहीं हो सकता। उसे ब्रह्मप्राप्ति ही अभीष्ट है। इसके बिना उसका काम क्षण भर भी नहीं चल सकता, इस प्रकृति के विरुद्ध उसे क्षण भर भी चैन नहीं पड़ सकता।

इतना होते हुए भी देखा यह जाता है कि प्राणी अनैतिक कृत्यों में, दुष्कर्मों में अधिक रुचि लेता है और आलस और अहंकार, वासना और तृष्णा के फेर में पड़ा हुआ लोभवश उस ओर चलता है, जिस ओर अंधकार और असंतोष ही उपलब्ध होने वाला है। इसका कारण जड़ता का जीव पर पड़ने वाला प्रभाव ही है। यह स्पष्ट है कि प्राणी जड़ और चेतन तत्त्वों का सम्मिश्रित रूप है। चेतनतत्त्व— ब्रह्म की स्थिति उसे सत्, चित्  और आनंद की ओर उन्मुख रखती है; किन्तु जड़ता के प्रभाव से भी वह अछूता नहीं रहता। प्रकृति की, माया की, जड़ता की छाया भी उस पर बनी रहती है। इस प्रभाव के कारण ही अपना मार्ग निश्चित करने में, उचित गतिविधियाँ अपनाने में बाधा पड़ती है। इसी खींच-तान में वह दिग्भ्रांत हो जाता है।

जड़ता का प्रभाव जीव पर जितना अधिक होगा, उतना ही वह जड़ पदार्थों से प्रेम अधिक करेगा, उनका स्वामित्व, संग्रह एवं उपयोग उतना ही उसे अधिक रुचेगा। आलस्य, मोह और अहंकार ये जड़ता के प्रधान चिह्न हैं। जड़ पदार्थ निर्जीव है, इसलिए जिसमें जड़ता बढ़ेगी, वह उतना ही आलसी बनता जावेगा। प्रयत्न, पुरुषार्थ, परिश्रम में रुचि न होगी; अध्ययन, भजन एवं सत्कर्मों में मन न लगना इस बात का चिह्न है कि ‘चित्’ ईश्वरीय तत्त्व का विरोधी— ‘आलस’ आसुरी तत्त्व अपने अंदर भर रहा है। उसी प्रकार वस्तुओं को उपकरणमात्र मानकर उनसे सामयिक लाभ उठा लेने की बात न सोचकर उपलब्ध संपदा को अपनी मौरूसी मान बैठना, उनके छिनने पर रोना-चिल्लाना यह प्रकट करता है कि नाशवान और निर्जीव पदार्थों के प्रति अवांछनीय ममता जोड़ ली गई है, अहंकार तो असुरता का, तमोगुण का, प्रत्यक्ष चिह्न है। क्षण−क्षण में बदलती रहने वाली वस्तुओं और परिस्थितियों की अनुकूलता पर जो घमंड करता है, वह यह भूल जाता है कि इस संसार का प्रत्येक परमाणु अत्यंत द्रुतगति से अपनी धुरी पर घूमता है और प्रत्येक परिस्थिति तेजी के साथ उलटती−पलटती रहती है, फिर पानी में उठने वाले बुलबुले की तरह इस क्षण प्राप्त सौभाग्य पर इतराना क्या, ऐंठना और अकड़ना क्या? जो आज है, वह कल कहाँ रहने वाला है, फिर अहंकार करने का प्रश्न ही कहाँ उत्पन्न होता है।

लोभ और मोह के वशीभूत होकर, वासना और तृष्णा से प्रेरित होकर प्राणी विविध प्रकार के अकर्म और दुष्कर्म करता रहता है। यही अज्ञान है, यही माया है, यही अविद्या है। एक ओर आत्मा की सत्, चित् और आनंद की मूल प्रकृति, उसे उच्च भूमिका की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है, दूसरी ओर जड़ता एवं माया का प्रकोप जीव के ऊपर होता रहता है। एक दिशा में दैवी प्रकृति खींचती है दूसरी तरफ आसुरी प्रकृति जोर लगाती है। फलस्वरूप धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र—अंतःकरण में अशांति और असंतोष का महाभारत मचा रहता है। जड़ता हमें बंधन में बाँधती है और चेतना मुक्ति का संदेश प्रदान करती है।

इस रस्साकशी में जीतता वही पक्ष है, जिस पर आत्मा अपनी स्वीकृति की मुहर लगा देती है। उसका वोट जिधर पड़ता है, उधर ही जीत हो जाती है। किसी बच्चे पर दो माताएँ अपना दावा करें तो न्यायाधीश उस पक्ष में फैसला देता है, जिसे कि बच्चा पहचान ले और जिसके पास जाना पसंद करे। जड़ता और चेतना ऐसी ही माता और विमाता है, दोनों ही आत्मा पर अपना दावा करती हैं और उसे अपने पक्ष में फुसलाना चाहती हैं। अच्छाई इतनी ही है कि फैसला आत्मा की अभिरुचि के ऊपर निर्भर रखा गया है। पतन और उत्थान के दोनों ही मार्ग उसके लिए खुले हुए हैं। वह जिसे चाहे उसे पसंद कर सकती है।

जीव पर दैवी और आसुरी दोनों ही चेतनाओं का प्रभाव है, वह जिस ओर उन्मुख होगा, वैसा ही उसका स्वरूप बनता जाएगा। जड़ता एवं माया में लिप्त होते चलने पर वह अधोगति का अधिकारी होता है और पाप, पतन, नरक की दुर्गति में निमग्न होता जाता है; पर यदि वह अपनी मूल प्रकृति सत्-चित्-आनंद का निर्वाह करता चले तो बंधन से मुक्ति निश्चित है, फिर पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती।


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