मानव देह के निर्माण, पोषण और वृद्धि का मुख्य आधार आहार है। यद्यपि वायु और जल भी मनुष्य के लिए अत्यावश्यक आहार हैं, पर चूँकि ये प्राय: अनायास या अल्प आयास से ही प्राप्त होते रहते हैं, इसलिए हम अन्न या अन्य खाद्य पदार्थ को ही आहार की संज्ञा देते हैं। मनुष्य जिस क्षण से पृथ्वी पर आता है तभी से उसे किसी न किसी रूप में आहार को आवश्यकता होती है, और जब तक उसकी देह पुन: पंचत्व में नहीं मिल जाती तब तक अपना अस्तित्व स्थिर रखने के लिए उसे आहार सम्बन्धी चिन्ता लगी रहती है। यदि विश्लेषण करके देखा जाय तो संसार में बहुसंख्यक व्यक्तियों के लिए तो भोजन था आहार ही जीवन का सर्वप्रधान उद्देश्य और कार्य है, वे इसी के लिये जीते और मरते हैं। आज सभ्य समाज में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जिनका ध्यान सदैव भोजन के प्रश्न पर ही केन्द्रित रहता है और जो सबेरे उठते ही यह हिसाब लगाया करते हैं कि आज किस समय क्या- क्या भोज्य सामग्रियाँ बनाई जायेंगी ? ऐसे भी असंख्यों लोग पाये जाते हैं जो भोजन के लिए अपने स्वास्थ्य, आरोग्य, पदवी, प्रतिष्ठ तक का बलिदान कर डालते हैं और केवल भोजन सम्बन्धी स्वाद के लिये प्राण उत्सर्ग कर देते हैं ।
पर यदि हम ऐसे 'पेटू' या 'स्वाद- प्रिय' लोगों की बात छोड़ भी दें तो संसार में कोई भी विद्वान, बुद्धिमान, विचारक, पण्डित, सन्त, महात्मा ऐसा नहीं मिलेगा, जिसको आहार की आवश्यकता न हो और जिसे इस संबंध में थोड़ी बहुत चिन्ता न करनी पड़ती हो। कारण यही है कि शरीर के अस्तित्व का आधार आहार ही है और इसी के द्वारा हमको वह शक्ति प्राप्त होती है जिससे हम जीवन के विविध व्यापारों को सम्पन्न कर सकते हैं। मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य अध्यात्मिक उन्नति बतलाया गया है और उसे प्राप्त करने के लिये मनुष्य को भौतिक जगत का ध्यान कम करके परमात्मा का ध्यान, भजन, साधना करने की आवश्यकता होती हैं। पर यदि आहार का अभाव हो जाय तो यह भजन और ध्यान दो- चार दिन भी नहीं हो सकता ।। इसी तथ्य को समझ कर कोई अनुभवी कह गया है- ''मुखे भजन न होय गुपाला, यह ले लो अपनी कण्ठी माला।''
आहार के इतना महत्त्वपूर्ण विषय होने पर भी; मानव- जीवन के साथ उसका ऐसा घनिष्ठ और अविच्छेद्य सम्बन्ध होने पर भी, हम देखते हैं कि उसकी उपयोगिता और महत्त्व पर लोग बहुत कम ध्यान देते हैं और उसका एकमात्र उद्देश्य और विधि यही समझते हैं कि किसी प्रकार रुचि के अनुकूल पदार्थों से पेट को भर लिया जाय ।। कुछ अधिक बुद्धिमान और समझदार हुये तो भोजन का निर्णय करते समय स्वास्थ्य का भी ध्यान रख लेते हैं और केवल जीभ के स्वाद को महत्त्व न देकर अपनी शारीरिक प्रकृति के अनुकूल पौष्टिक और सुपाच्य पदार्थों का चुनाव करते हैं पर इससे आगे बढ़कर इस बात पर विचार करने का कष्ट शायद लाख में से एक व्यक्ति भी नहीं उठाता कि शरीर के अतिरिक्त भोजन का हमारे मन से भी सम्बन्ध है और फिर उसका प्रभाव बुद्धि तक भी पहुँचता है। मन और बुद्धि ही मनुष्य की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रगति के मुख्य आधार हैं और जो मनुष्य इस क्षेत्र में अग्रसर होने की चेष्टा नहीं करता उसका मानव- जीवन ही व्यर्थ है। इसलिए जो व्यक्ति वास्तव में अपना कल्याण चाहता है और इस नर जन्म को सफल बनाने की इच्छा रखता हैं उसे आहार-शुद्धि पर अवश्य ध्यान देना चाहिए।
हम यह स्वीकार करते हैं कि हिन्दू समाज के एक वर्ग में आहार-शुद्धि का नियम अभी तक पाया जाता हैं। हमारे कितने ही प्राचीन प्रणाली के भाई चौक-चूल्हे के नियमों का बड़ी कट्टरता से पालन करते हैं और ऐसे भी लोग पाए जाते हैं जो बाहरी व्यक्ति का हाथ लग जाना तो दूर, उनकी छाया पड़ जाने से भोजन को अशुद्ध और त्याज्य मान लेते हैं। ऐसे व्यक्तियों और घरों की बातें भी हमने सुनी हैं जो भोजन के प्रत्येक पदार्थ को, यहाँ तक कि लकड़ी और कोयलों को भी धोकर ही चौके के भीतर ले जाते हैं। हम इन बातों की उपेक्षा नहीं करते और न इनके महत्व को न्यून करना चाहते हैं। भोजन की सामग्री को संग्रह करने और पकाने में सफाई और शुद्धता का जितना भी अधिक ख्याल रखा जाए उतना ही अच्छा हैं। पर इतना हम अवश्य कहेंगे कि यह सफाई वास्तविक होनी चाहिए केवल दिखावटी और नाम मात्र की नहीं। हमने देखा है कि लोग अपने चौके को किसी को भी छूने नहीं देते और लकड़ियों पर भी गंगा और जमना जल के छींटे मार देते हैं वे ही चौकी के भीतर ऐसा कपड़ा पहिन कर जाते हैं जो गंदगी की खान होता हैं। अथवा यदि उनके बर्तनों की परीक्षा की जाए तो उनकी किनारों तथा भीतरी भागों में महीनों पुरानी गंदगी मिल सकती हैं। उन बर्तनों को मुकाबला यदि किसी अंग्रेज के, जो खाने से धर्म और पाप पुण्य का सम्बन्ध नहीं जोड़ता, चीनी मिट्टी और काँच के चमचमाते बर्तनों से किया जाय तो हमको अपनी ‘शुद्धता’ पर कभी गर्व करने का अवसर नहीं मिल सकता हैं।
पर यह शुद्धता भी बाहरी ही हैं। अनपढ़ लोग भले ही चौका-चूल्हे में पाप-पुण्य समझा करें पर हमारे पूर्वजों ने इन नियमों को सफाई और स्वास्थ्य की दृष्टि से ही जारी किया है। यह सच है कि प्रत्येक मनुष्य के आचार और विचारों में एक प्रकार की शक्ति होती हैं जिसका प्रभाव आसपास के पदार्थों और वातावरण पर पड़ता हैं। कुछ लोगों के विचार तो स्वभावतः ऐसे प्रबल होते है कि उनकी दृष्टि जिस किसी वस्तु या पदार्थ, खास कर उत्तम भोज्य पदार्थ, सुंदर वस्त्राभूषण, आकर्षक बालक बालिका पर पड़ती हैं, वह उससे प्रभावित हो जाता हैं। यदि ऐसा व्यक्ति नीच और दुष्टायुक्त विचारों का हुआ तो उससे हानि होना भी अवश्यम्भावी होता हैं। हम पुराने विचारों के घरों में जो ‘नजर’ लगने की बात प्रायः सुना करते है उसका यही रहस्य हैं। इसलिए भोजन को बाहरी व्यक्तियों के संपर्क से पृथक् रखना और शुद्धता पूर्वक एकांत स्थान में ग्रहण करना किसी दृष्टि से बुरा या निरर्थक नहीं कहा जा सकता, बल्कि वह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक ही हैं।
पर इस बाह्य शुद्धि की अपेक्षा भी आहार की आन्तरिक शुद्धि अधिक ध्यान देने योग्य हैं। बाह्य शुद्धि में कुछ त्रुटि होने से उसका स्वास्थ्य पर जो कुप्रभाव पड़ता हैं उसका निवारण आगे चलकर संयम, उपवास, औषधि द्वारा हो सकता हैं। पर हमारा आहार जिस स्त्रोत या साधन से हमको उपलब्ध होता हैं वही यदि अशुद्ध हैं-दूषित अथवा पापयुक्त हैं तो उसका जो बुरा प्रभाव मन, बुद्धि और आत्मा पर पड़ेगा उससे छुटकारा पा सकना वैसे सहज नहीं है। उदाहरणार्थ जो धन चोरी, डाका या किसी की हत्या करके लाया गया हो, उससे शारीरिक पुष्टि भले ही प्राप्त हो जाय, पर मन और आत्मा की तुष्टि उससे कभी भी नहीं हो सकती। आप इतने बड़े-बड़े डाकुओं और प्रसिद्ध चोरों का नाम सुनते हैं, वे लोग सदैव हजारों और लाखों रुपया प्राप्त करके मौज-मजा करते रहते हैं, पर उनमें से कभी कोई सुखी, शांत और संतुष्ट देखने में नहीं आया। वे चाहे पकड़े जायें और चाहे कानून के चंगुल से बच भी जायें पर उनका सुख, मौज- मजा क्षणस्थायी ही होता है। अपने मन में तो वे सदा तरह- तरह के अनुतापों और भयों का अनुभव करते ही रहते हैं, पर कुछ ही समय में उनको पापों का फल प्रत्यक्ष रूप से भोगते हुए भी देखा जा सकता है। यही बात अन्य व्यवसायों के विषय में भी कही जा सकती है।
लोग समझते हैं कि व्यापार, नौकरी, लेन- देन आदि में चालाकी से रुपया कमाने में कोई दोष नहीं हो सकता। पर हम बताना चाहते हैं कि बेईमानी और कपट का व्यवहार किसी भी रूप में और किसी भी क्षेत्र में क्यों न किया जाय वह बुरा ही है और उसका फल सदैव हानिकारक ही होगा। कौन कह सकता है कि आपकी जेब को काट कर सौ रुपया निकाल लेने वाला गिरहकट तो पापी है और विश्वास रखने वाले ग्राहकों को एक सेर 'शुद्ध' घी में पांव भर डालडा मिलाकर बेचने वाला और इस प्रकार प्रतिमास सौ दो सौ, या अधिक रुपया बेईमानी से कमाने वाला दुकानदार उससे अधिक पापी नहीं है ?? जो पुलिस वाला सौ रुपया के वेतन के अलावा दो- डेढ़ सौ रुपया मासिक अपराधियों को छोड़कर प्राप्त करता है, या जो अदालत का पेशकार या मजिस्ट्रेट मुकदमे वालों से हजारों रुपया रिश्वत लेकर झूठ को सच करते रहते हैं, निरपराधी व्यक्तियों को दण्डित करते हैं, क्या ऐसे भ्रष्टाचारी पापी नहीं हैं? आप कैसे आशा कर सकते हैं कि जो रुपया इस प्रकार लोगों पर अन्याय करके, उनकी आत्मा जो दुखी करके प्राप्त किया गया है, जिसमें अनेक लोगों की 'हाय' का असर समाया हुआ है, उसके द्वारा प्राप्त किया गया भोजन अपने शरीर, मन और आत्मा के लिये वैसा ही उपयोगी और दु:ख दायक सिद्ध होगा, जैसा कि दिन भर तन तोड़कर मजदूरी द्वारा अथवा ईमानदारी और परिश्रम के साथ नौकरी करके प्राप्त किया हुआ भोजन होता है ?? प्रकट में चाहे बेईमानी करने वाला व्यक्ति दूध- मलाई, हलुआ- पूरी खाय और ईमानदार व्यक्ति रोटी- दाल जैसे साधारण भोजन से ही पेट भर ले, पर दोनों प्रकार के व्यक्तियों के आन्तरिक जीवन पर दृष्टि डाली जायगी तो पहले की अपेक्षा दूसरे प्रकार का व्यक्ति अधिक सुखी और सन्तुष्ट प्रतीत होगा।
जिस आधार पर औसत उपायों द्वारा कमाये गये धन द्वारा प्राप्त भोजन त्याज्य माना गया हैं, वह बात मांस- भोजन आदि पर लागू होती है। जिस व्यक्ति को आत्म- जगत का कुछ ज्ञान है, वह भली प्रकार जानता है कि आध्यात्मिक दृष्टि से समस्त संसार में एक ही तत्व व्याप्त है और जीव- मात्र एक ही परमात्मा के अंश स्वरूप हैं। इस समय चाहे मनुष्य अधिक चैतन्य, ज्ञान और बुद्धि से युक्त जान पड़ता हो, पर भौतिक उपादान और आत्म- शक्ति की दृष्टि से उसमें उसके कारण और आर्त भाव अवश्य लिपटे रहेंगे और वे उसे भोजन के रूप में ग्रहण करने वालों की मानसिक स्थिति पर अवश्य विपरीत प्रभाव डालेंगे। जिन देशों के निवासी प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण विवश होकर माँस -मछली का भोजन करते हैं वे क्षम्य माने जा सकते हैं, पर यह निश्चित है कि वे आध्यात्मिक प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकते। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही यह भारत भूमि देवताओं के लिए भी दुर्लभ मानी गई थी, क्योंकि यहाँ फल- मूल की अधिकता होने से आहार- शुद्धि अधिक सम्भव है, और आध्यात्मिक प्रगति के अन्य साधन भी सुलभ हैं।
आहार और आध्यात्मिकता का सम्बन्ध ऐसा अकाट्य है कि आत्म- कल्याण की कामना रखने वाले व्यक्ति को उसमें सदैव सावधान रहना आवश्यक है, आहार की बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार का शुद्धि परमावश्यक है। बाह्य शुद्धि का तो बहुत कुछ सम्बन्ध मनुष्य के स्वास्थ्य से भी है इस लिए सभी समझदार आदमी न्यूनाधिक परिमाण में उसका ध्यान रखते हैं। पर आन्तरिक शुद्धि अथवा आहार को प्राप्त करने के लिये साधनों की शुद्धि सूक्ष्म विषय है और उसकी सचाई- झुठाई बाहर सिद्ध करने की अपेक्षा अपने मन में ही विचारने की बात है। हम चाहें अन्य लोगों के सामने अपने खोटे कामों का भी औचित्य तर्क द्वारा क्यों न सिद्ध कर दें, पर अपने मन और अंतरात्मा को हम धोखा नहीं दे सकते। भीतर ही भीतर हम अपनी कमजोरी घोर पाप का अनुभव करते ही रहते हैं। इस लिये यदि हम वास्तव में कल्याण के इच्छुक हैं तो हमको अपने आहार में सब प्रकार की शुद्धता का सदैव ध्यान रखना चाहिए। तभी हमारा मानव- जन्म सार्थक हो सकता है और तभी हम ईश्वरीय आदेश के पालन में समर्थ हो सकते हैं।