सुनसान के सहचर

March 1961

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(‘कोई एक’)

मनुष्य की यह एक अद्भुत विशेषता है कि वह जिन परिस्थितियों में रहने लगता है उनका अभ्यस्त भी हो जाता है। जब मैंने इस निर्जन वन की सुनसान कुटिया में प्रवेश किया ता सब ओर सूना ही सूना लगता था। अन्तर का सूनापन ही दीखता था। पर अब जबकि अन्तर की लघुता धीरे-धीरे विस्तृत होती जा रही है। चारों ओर अपने ही अपने हँसते-बोलते नजर आते हैं। अब सूनापन कहाँ? अब अँधेरे में डर किसका?

अमावस्या की अँधेरी रात, बादल घिरे हुए, छोटी-छोटी बूँदें, ठण्डी वायु का कम्बल को पार कर भीतर घुसने का प्रयत्न। छोटी-सी कुटिया में पत्तों की चटाई पर पड़ा हुआ यह शरीर आज फिर असुखकर अनभ्यस्तता अनुभव करने लगा। नींद आज फिर उचट गई। विचारों का प्रवाह फिर चल पड़ा स्वजन सहचरों से भरे, सुविधाओं से सम्पन्न घर और इस सघन तमिस्रा की चादर लपेटे वायु के झोंकों से थर-थर काँपती हुई, जल से भीग कर टपकती पर्ण कुटी की तुलना होने लगी दोनों के गुण दोष गिने जाने लगे।

शरीर असुविधा अनुभव कर रहा था। मन भी उसी का सहचर ठहरा। वहीं क्यों इस असुविधा में प्रसन्न होता? दोनों की मिली भगत जो है आत्मा के विरुद्ध ये दोनों एक हो जाते है। मस्तिष्क तो इनका खरीदा हुआ वकील है। जिसमें इनकी रुचि होती है हुआ वकील है। जिसमें इनकी रुचि होती है उसी का समर्थन करते रहना इसने अपना व्यवसाय बनाया हुआ है। राजा के दरबारी जिस प्रकार हवा का रुख देखकर बात करने की कला में निपुण होते थे, राजा को प्रसन्न रखने, उसकी हाँ में हाँ मिलाने में दक्षता प्राप्त किये रहते थे, वैसा ही यह मस्तिष्क भी है। मन की रुचि देखकर उसी के अनुकूल यह विचार प्रवाह का छोड़ देता है। समर्थन में अगणित कारण, हेतु, प्रयोजन और प्रमाण उपस्थित कर देना इसके बाएँ हाथ का खेल है। सुविधाजनक घर के गुण और इस कष्टकारक निर्जन के दोष बताने में वह बैरिस्टरों के कान काटने लगा। सनसनाती हुई की तरह उसका अभिभाषण भी जोरों से चल रहा था।

इतने में सिरहाने की ओर छोटे-से छेद में बैठे हुए झींगुर ने अपना मधुर संगीत गान आरंभ कर दिया। एक से प्रोत्साहन पाकर दूसरा बोला। दूसरे की आवाज सुनकर तीसरा, फिर उससे चौथा, इस प्रकार उसी कुटी में अपने-अपने छेदों में बैठे कितने ही झींगुर एक-साथ गाने लगे। उनका गायन यों उपेक्षा बुद्धि से तो अनेकों बार सुना था। उसे कर्कश व्यर्थ और मूर्खतापूर्ण समझा था, पर आज मनके लिए कुछ और काम न था। वह ध्यान पूर्वक इस गायन के उतार चढ़ावा को परखने लगा। निर्जन की निन्दा करते-करते वह थक भी गया था। इस चंचल बन्दर को हर घड़ी नये-नये प्रकार के काम जो चाहिए। झींगुर की गान-सभा का समा बँधा तो उसी में रस लेने लगा।

झींगुर ने बडा़ मधुर गान गाया। उसका गीत मनुष्य की भाषा में न था पर भाव वैसे ही मौजूद जैसे मनुष्य सोचता है। उसने गाया "हम असीम क्यों न बनें ?? असीमता का आनन्द क्यों न में ?? सीमा ही बन्धन है, असीमता में मुक्ति का तत्व भरा है। जिसका इन्द्रियों में ही सुख सीमित है, जो कुछ चीजें और कुछ व्यक्तियों को ही अपना मानता है, जिसका स्वार्थ थोडी़ सी कामनाओं तक ही सीमित है, वह बेचारा क्षुद्र प्राणी, इस असीम परमात्मा के असीम विश्व में भरे हुए असीम आनन्द का भला कैसे अनुभव कर सकेगा ?? जीव तू असीम हो, आत्मा का असीम विस्तार कर, सर्वत्र आनन्द ही आनन्द बिखरा पडा़ है। उसे अनुभव कर और अमर हो जा।"

इकतारे पर जैसे वीतराग ज्ञानियों की मण्डली मिल- जुल कर कोई निर्वाण पद गा रही हो वैसे ही यह झींगुर अपना गान निर्विघ्न होकर गा रहे थे। किसी को सुनाने के लिए नहीं। स्वान्तः सुखाय ही उनका यह प्रयास चल रहा था। मैं भी उसी में विभोर हो गया। वर्षा के कारण क्षतिग्रस्त कुटिया से उत्पन्न असुविधा गाने वाले सहचरों ने उदासीनता को हटा कर उल्लास का वातावरण उत्पन्न कर दिया।

पुरानी आदतें छूटने लगीं। मनुष्यों तक सीमित आत्मीयता ने बढ़ कर प्राणिमात्र तक विस्तृत होने का प्रयत्न किया तो अपनी दुनियाँ बहुत चौडी़ हो गई। मनुष्य के सहवास में सुख की अनुभूति ने बढ़ कर अन्य प्राणियों के साथ भी वैसी ही सुखानुभूति करने की प्रक्रिया सीख ली। अब इस निर्जन बन में भी कहीं सूनापन दिखाई नहीं देता।

आज कुटिया से बाहर निकल कर इधर- उधर भ्रमण करने लगा तो चारों ओर सहचर दिखाई देने लगे। विशाल वृक्ष पिता और पितामह जैसे दीखने लगे। कषाय वल्कल धारी भोज- पत्र के पेड़ ऐसे लगते थे मानों गेरूआ कपडे़ पहने कोई तपस्वी महात्मा खड़े होकर रहे हो। देवदारु और चीड़ के लम्बे- लम्बे पेड़ प्रहरी की तरह सावधान खड़े थे मानों मनुष्य जाति में प्रचलित दुर्बुद्धि को अपने समाज में न आने देने के लिए कटिबद्ध रहने का व्रत उनने लिया हुआ हो।

छोटे- छोटे लता- गुल्म, नन्हे मुन्ने बच्चे- बच्चियों की तरह पंक्ति बना कर बैठे थे। पुष्पों में उनके अपने सिर सुशोभित थे। वायु के झोकों के साथ हिलते हुए ऐसे लगते थे। मानों प्रारम्भिक पाठशाला के छोटे छात्र सिर हिला हिला कर पहाड़े याद कर रहे हों। पल्लवों पर बैठे हुए पक्षी मधुर स्वर में ऐसे चहक रहे थे, मानों यक्ष गन्धर्वों की आत्माएँ खिलौने जैसे सुन्दर आकार धारण करके इस वनश्री का गुणगान और अभिनन्दन करने के लिए ही स्वर्ग से उतरी हों। किशोर बालकों की तरह हिरन उछल कूद मचा रहे थे। जंगली भेडे़ (बरड़) ऐसी निश्चित होकर धूम रही थी मानों इस प्रदेश की गृह लक्ष्मी यही हो। मन बहलाने के लिए चाभीदार कीमती खिलौनों की तरह छोटे- छोटे कीडे़ पृथ्वी पर चल रहे हैं। उनका रंग रूप, चाल ढाल सभी कुछ देखने योग्य था उड़ते हुए पतंग, फूलों से अपने सौन्दर्य की प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। हममें से कौन अधिक सुन्दर, कौन अधिक असुन्दर है इसकी होड़ उनमें लगी हुई थी।

नव यौवन का भार जिससे सम्भलने में न आ रहा हो ऐसी इतराती हुई पर्वतीय नदी बगल में ही बह रही थी। उसकी चंचलता और उच्छृंखलता का दर्प देखते ही बनता था। गंगा में और भी नदी आकर मिलती हैं। मिलन के संगम पर ऐसा लगता था मानों दो सहोदर बहिनें सुसराल जाते समय गले मिल रही हों, लिपट रही हों। पर्वत राज हिमालय ने अपने सहस्त्र पुत्रियों (नदियों) का विवाह समुद्र के साथ किया है। सुसराल जाते समय में बहिनें कैसी आत्मीयता से मिलती है, संगम पर खड़े खड़े इस दृश्य को देखते-देखते जी नहीं अघाता। लगता है हर घड़ी इसे देखते ही रहें।

वयोवृद्ध राज पुरुषों और लोक नायकों की तरह पर्वत शिखर दूर-दूर तक ऐसे बैठे थे मानों किसी गम्भीर समस्याओं को सुलझाने में दत्त-चित्त होकर संलग्न हों। हिमाच्छादित चोटियाँ उनके श्वेत केशों की झाँकी करा रही थी। उन पर उड़ते हुए छोटे बादल ऐसे लगते थे मानो ठंड से बचाने के लिए कई रुई का बढ़िया टोपा उन्हें पहनाया जा रहा है। कीमती शाल-दुशालों में उनके नग्न शरीर को लपेटा जा रहा हो।

जिधर भी दृष्टि उठती उधर एक विशाल कुटुम्ब अपने चारों ओर बैठा हुआ नजर आता था। उनके जबान न थी, वे बोलते न थे पर उनकी आत्मा में रहने वाला चेतन बिना शब्दों के ही बहुत कुछ कहता था। जो कहता था हृदय से कहता था और करके दिखाता था। ऐसी बिना शब्दों की किन्तु अत्यन्त मार्मिक वाणी इससे पहले सुनने को नहीं मिली थी। उनके शब्द सीधे आत्मा तक प्रवेश करते और रोम-रोम को झंकृत किये देते थे। अब सूना पन कहाँ? अब भय किसका? सब ओर सहचर ही सहचर जो बैठे थे।

सुनहरी धूप ऊँचे पर्वत शिखरों से उतर कर पृथ्वी पर कुछ देर के लिए आ गई थी। मानों अविद्याग्रस्त हृदय में सत्संग वश स्वल्प स्थायी ज्ञान उदय हो गया। ऊँचे पहाड़ों की आड में सूरज इधर उधर ही छिपा रहता है केवल मध्याह्न को ही कुछ घण्टों के लिये उनके दर्शन होते हैं। उनकी किरणें सभी सिकुड़ते हुए जीवों में चेतना की एक लहर दौड़ा देती है। सभी में गतिशीलता और प्रसन्नता उमड़ने लगती है। आत्म ज्ञान का सूर्य भी प्रायः वासना और तृष्णा की चोटियों के पीछे छिपा रहता है पर जब कभी जहाँ कहीं वह उदय होगा वहीं उसकी सुनहरी रश्मियाँ एक दिव्य हलचल उत्पन्न करती हुई अवश्य दिखाई देगी।

अपना शरीर भी स्वर्णिम रश्मियों का आनन्द लेने के लिए कुटिया से बाहर निकला और मखमल के कालीन सी बिछी हरी घास पर टहलने के दृष्टि से एक ओर चल पड़ा कुछ ही दूर रंग बिरंगे फूलों का एक बड़ा पठार था। आँखें उधर ही आकर्षित हुई और पैर उसी दिशा में उठ चले।

छोटे बच्चे अपने सिर पर रंगीन टोपे पहने हुए पास-पास बैठ कर किसी खेल की योजना बनाने में व्यस्त हो ऐसे लगते थे वे पुष्प सज्जित पौधे मैं उन्हीं के बीच जाकर बैठ गया। लगा जैसे मैं भी एक फूल हूँ। यदि ये पौधे मुझे भी अपना साथी बना लें तो मुझे भी अपने खोये बचपन पाने का पुण्य अवसर मिल जाय।

भावना आगे बढ़ी जब अन्तराल हुलसता है तो तर्कवादी कुतर्की विचार भी ठण्डे पड़ जाते हैं। मनुष्य भावों में प्रबल रचना शक्ति है वे अपनी दुनियां आप बसा लेते हैं। काल्पनिक ही नहीं शक्तिशाली भी सजीव भी। ईश्वर और देवताओं तक की रचना उसने अपनी भावना के बल पर की है और उनमें अपनी श्रद्धा को पिरो कर उन्हें इतना महान बनाया है जितना कि वह स्वयं है। अपने भाव फूल बनने को मचले तो वैसा ही बनने में देर न थी। लगा कि इन पंक्ति बना कर बैठे हुए पुष्प बालकों ने मुझे भी सहचर मान कर मुझे भी अपने खेल में भाग लेने के लिए सम्मिलित कर लिया है।

जिसके पास मैं बैठा था वह बड़े से पीले फूल वाला पौधा बड़ा हँसोड़ तथा वाचाल था। अपनी भाषा में उसने कहा-दोस्त तुम मनुष्यों में व्यर्थ जा जन्मे। उनकी भी कोई जिन्दगी है, हर समय चिन्ता, हर समय उधेड़बुन, हर समय तनाव, हर समय कुढ़ना। अब की बार तुम पौधे बनना, हमारे साथ रहना। देखते नहीं हम सब कितने प्रसन्न हैं, कितने खिलते हैं, जीवन को खेल मान कर जीने में कितनी शान्ति है, यह हम लोग जानते हैं, देखते नहीं हमारे भीतर आन्तरिक उल्लास सुगन्ध के रूप में बाहर निकल रहा है। हमारी हँसी फूलों के रूप में बिखरी पड़ रहीं है। सभी हमे प्यार करते हैं, सभी को हम प्रसन्नता प्रदान करते हैं। आनन्द से जीते हैं और जो पास आता है उसी को आनन्दित कर देते हैं। जीवन जीने की यही कला है। मनुष्य बुद्धिमानी का गर्व करता है पर किस काम की वह बुद्धिमानी जिससे जीवन की साधारण कला, हँस खेल कर जीने की प्रकृया भी हाथ न आये।"

फूल ने कहा- "मित्र, तुम्हें ताना मारने के लिए नहीं, अपनी बडा़ई करने के लिए भी नहीं, यह मैंने एक तथ्य ही कहा है ?? अच्छा बताओं जब हम धनी, विद्वान, गुणी, सम्पन्न वीर और बलवान न होते हुए भी अपने जीवन को हँसते हुए तथा सुगंध फैलाते हुए जी सकते हैं तो मनुष्य वैसा क्यों नहीं कर सकता ?? हमारी अपेक्षा असंख्य गुने साधन उपलब्ध होने पर भी यदी वह चिन्तित और असंतुष्ट रहता है तो क्या इसका कारण उसकी बुद्धिहीनता न मानी जायगी ?"

"प्रिय, तुम बुद्धिमान हो जो उन बुद्धिहीनों को छोड़कर कुछ समय हमारे साथ हँसने खेलने चले आये। चाहो तो हम अकिंचनों से भी जीवन विद्या का एक महत्वपूर्ण तथ्य सीख सकते हो।"

मेरा मस्तक श्रद्धा से नत हो गया- "पुष्प मित्र, तुम धन्य हो। स्वल्प साधन होते हुए भी तुमने जीवन कैसे जीना चाहिये यह जानते हो। एक हम हैं- जो उपलब्ध सौभाग्य को कुढन में ही व्यक्तीत करते रहते हैं। मित्र, सच्चे उपदेशक हो, वाणी से सीखने आया हूँ तो तुमसे बहुत सीख सकूंगा। सच्चे साथी की तरह सिखाने में संकोच न करना।"

हँसोड़ पीला पौदा खिलखिला कर हँस पडा़ सिर हिला- हिला कर वह स्वीकृत दे रहा था। और कहने लगे- "सीखने की इच्छा रखने वाले के लिए पग- पग पर शिक्षक मौजूद हैं। पर आज सीखना कौन चाहता है। सभी तो अपनी अपूर्णता के अहंकार के मद में ऐंठे- ऐंठे से फिरते हैं। सीखने के लिए हृदय का द्वार खोल दिया जाय तो बहती हुई वायु की तरह शिक्षा, सच्ची शिक्षा स्वयमेव हमारे हृदय में प्रवेश करने लगे।"

*समाप्त*


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