लक्ष्मी कहाँ निवास करती हैं

March 1961

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एक बार इन्द्र कहीं जा रहे थे, उन्हें लक्ष्मी रास्ते में बैठी दिखाई दी। तब इन्द्र ने पूछा- लक्ष्मी, आजकल कहाँ रहती हो? लक्ष्मी ने कहा- आजकल का प्रश्न ही क्यों? मैं जहाँ रहती हूँ, वही रहती हूँ, मैं ऐसी भगोड़ी नहीं कि कभी कहीं और कभी कहीं रहूँ। तो हमेशा रहने की जगह पूछो तो बतला दूँ। इन्द्र ने मुस्करा कर कहा- यह तो और भी अच्छी बात हैं बतला दीजिए। तब लक्ष्मी ने कहा-

गुरवो यत्र पूज्यते वाणी यत्र सुसंकृता। अदन्त कलहो यज्ञ तत्र शक्र वासाम्यहम्॥

बड़ी सुन्दर बात कही हैं, बात क्या हैं संसार के लिए एक महान आदर्श हैं। वास्तव में लक्ष्मी ने अपनी ठीक जगह बतला दी हैं, लक्ष्मी कहती हैं-इन्द्र मैं वहाँ रहती हूँ, जहाँ और जिस परिवार एवं समाज में आपस में कलह नहीं हैं, मैं उन लोगों के पास रहती हूँ, जिनके दाँत नहीं बजते- जो दाँत नहीं मिसमिसाते, जो लोग प्रेमपूर्वक मिल जुलकर काम करते हैं, एक दूसरे को सहकारी बनकर लोग अपनी जीवन यात्रा करते हैं। जहाँ संगठन हैं और जो एक दूसरे के लिए अपनी स्वार्थ को न्यौछावर कर देने को तैयार रहते हैं और अपनी इच्छाओं को भी कुचलने के लिए तैयार रहते हैं, जहाँ प्रेम की जीवनदायिनी धाराएँ बहती रहती हैं, जहाँ कलह घृणा और द्वेष नहीं हैं, मैं उसी जगह रहती हूँ।”

लक्ष्मी के इस कथन में अनन्त काल के प्रश्न हल कर दिये गये हैं। बड़े- बड़े परिवारों को देखा वहाँ लक्ष्मी के ठाठ लगे रहते थे, किन्तु जब उन परिवारों में मन मुटाव आया, क्रोध की आग जलने लगी और बैर भाव पैदा हो गया, तो वह वैभव आनन्द आनन्द बना नहीं रहा, धीरे- धीरे वह क्षीण होने लगा और लक्ष्मी रूठ कर चल दी।


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