अपने आप पर तो विश्वास कीजिए

March 1961

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(श्री जाह्नवी चरण उपाध्याय शास्त्री)

किसी कार्य की सिद्धि में विश्वास नहीं है तो असफलता भी सम्भावित नहीं होगी। इसलिए आरम्भ से पूर्व उसके हिताहित पर विचार कर जाना चाहिए। यदि विश्वास हो जाए की यह कार्य न्यायोचित है और किसी को हानि पहुँचाने वाला नहीं हैं तो उसके पूर्ण होने तक प्रयत्न करना चाहिए।

कार्य को आरम्भ कर देने पर अनेक विघ्न-बाधाएँ दिखाई पड़ती है। परन्तु विघ्नों से डर कर कार्य को अधूरा छोड़ना भीरु प्रकृति का परिचायक हैं। जो लोग कार्य को बीच में ही छोड़ देते हैं, उनके जीवन में निराशा बढ़ जाती हैं और वे फिर किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते।

कार्य करते समय यदि विचार उत्पन्न हो कि उसका फल उतना उत्तम नहीं होगा, जितना की पहले सोचा था और इसी भय से उसे मार्ग में ही छोड़ दिया जाए तो वह भी कोई बुद्धिमानी नहीं होगी। किसी भी कार्य का फल उत्तम, मध्यम और निम्न हो सकता हैं, परन्तु उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। घोर परिश्रम के कारण कार्य का फल भी उत्तम हो सकता है और परिश्रम न करने की अवस्था में निम्नतम भी।

हमें कार्य करना चाहिए, उसके फल की कामना नहीं करनी चाहिए। ईश्वर ने हमें कर्म करने का ही अधिकार दिया है, फल तो स्वयं उसी हाथ में हैं। यदि मनुष्य के इच्छानुसार फल मिलने लगता तो दुःख, संताप, पश्चाताप और असफलता जैसे शब्द संसार में सुनाई ही नहीं पड़ते। तब न किसी को धन की चिंता रहती न ही मान सम्मान की। सभी कुछ मानवी इच्छा के बल पर प्राप्त हो जाता।

मनुष्य वह है जो बाधा रूपी चट्टानों को तोड़ कर गिरा देता है। संकटों से डर कर हट जाने से कभी कोई काम नहीं बनता। जिन कार्य के पूर्ण होने में बाधाएँ नहीं आती, वह कार्य भी कुछ उल्लेखनीय हो सकता है? कार्य तो वह है, जिसमें बाधाएँ आवें और कर्मवान वह है जो ऐसे ही काम को करें जिसमें बाधाएँ आ-आकर उसे सफलता के द्वार की ओर दृढ़ता से ढकेल दें। इसलिए बाधाओं का स्वागत करिये, वे आपको सफलता का रहस्य समझाएँगी

तुम जिस कार्य को कर रहे हो, वह यदि दूसरों की दृष्टि में तुच्छ भी हों तो तुम उसे उच्च समझने की चेष्टा करो। अपने मन में विश्वास बैठा लो कि वह कार्य तुच्छ नहीं हैं। छोटा कार्य करना कोई लज्जा का विषय नहीं है, यदि वह सच्चाई से किया जाए। लज्जा तो चोरी और व्यभिचार आदि दुष्कर्मों में होनी चाहिए। कार्य में कोई छोटाई नहीं है। पाश्चात्य देशों में तो छोटा-छोटा कार्य करने वाले भी आज कोषाधीश हो गए हैं।

विश्वास कीजिए कि अपने छोटे कार्य में भी सफल होने पर आपको अत्यन्त हर्ष होगा। अपने मन में उत्साह की मात्रा को बढ़ाते रहिये, अपने आत्मविश्वास को नहीं तोड़िए, आप अवश्य ही सफल होंगे।

कार्य की सफलता के लिए योग्यता तो होनी ही चाहिए उसके बिना आपका कार्य नहीं बन सकता, यदि आप योग्य नहीं है तो पहले योग्यता प्राप्त कीजिए, फिर उस कार्य में हाथ डालिए। अयोग्य व्यक्ति की सफलता अवश्य ही संदेहास्पद होती हैं।

मनुष्यों का स्वभाव है कि वे प्रत्येक कार्य में अपनी टाँग अड़ाना चाहते हैं। वे सत्पुरुषों के उत्कर्ष को भी नहीं देख सकते और निम्न व्यक्तियों की छोटी वृत्ति पर भी टीका टिप्पणी करना अपना कर्तव्य समझते है, परन्तु आप अपने विषय में दूसरों की सम्मति की कोई चिन्ता मत कीजिए, उसे सुनिये ही मत। केवल अपने कार्य में लगे रहिए। कोई आपके कार्य को पुरा बतावे तो उससे द्वेष मत मानिये और कोई अच्छा बतावे तो प्रशंसा से फूलिए मत, अन्यथा आपके मन में विकार उत्पन्न हो जायगा और अहंकार वृद्धि के कारण चलते हुए कार्य में शिथिलता आ जाएगी।

मनुष्य के गुणों का अनुमान उसके कार्यों की सफलता से ही नहीं लगाया जाता, बल्कि उसके कार्य का अदम्य उत्साह से ही पता चलता है। जो व्यक्ति कांटों पर चढ़ कर फल तोड़ता है, वह उससे अधिक साहसी है जो किसी वस्तु के सहारे से ही उसे तोड़ लेना चाहता है, अथवा कोई सहारा न मिले तो फल तोड़े बिना ही घर लौट जाता है। जो लोग निर्भय होकर कांटों पर चढ़े चले गए, उनकी प्रारम्भ में चाहे कितनी ही टीका टिप्पणी क्यों न हुई हो, सफल होने पर सभी ने प्रशंसा की। इस लोकोक्ति में कुछ असत्य नहीं है कि ''धैर्य का फल मीठा होता है।'

इसका यह अर्थ नहीं है कि ईश्वर पर विश्वास रखने वाले भक्तों को सफलता शीघ्र मिल जाती है, बल्कि जो व्यक्ति ईश्वर को सहायक मानता हुआ अपने लक्ष्य की ओर सपरिश्रम बढ़ता चला जाता है, वही उसमें सफलता प्राप्त करता है।

जो व्यक्ति अपने आत्म- बल पर भरोसा नहीं करते और साधनों को सर्वोपरि मानते हैं, वे संसार में कुछ कर सकेंगे इस पर विश्वास नहीं होता। साधनों का आश्रय हमारे उत्थान में बाधक है। जो व्यक्ति आत्म- विश्वासी होते हैं, वे जीवन- पथ में बढ़े चले जाते हैं, वे किसी का सहारा नहीं टटोलते।

सीता हरण के पश्चात यदि भगवान राम चाहते तो अयोध्या और मिथिला की सेनाएँ बुलवा सकते थे और तब खोज में भी इतना समय नहीं लगता और राक्षसराज भी शीघ्र वश में आ जाता ।। परन्तु राम को अपने बल पर भरोसा था, उनके हृदय में आत्म- विश्वास भरा था और उन्हें अपनी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों पर पूर्ण भरोसा था, क्योंकि वे अत्यन्त वीर, चरित्रवान् और धैर्यवान् थे सच्चरित व्यक्तियों को बाहरी सहायता की आवश्यकता नहीं होती और यदि आवश्यकता होती भी है तो सहायता मिलने में कुछ कठिनाई नहीं होती।

जिन्हें अपने बल पर भरोसा है, उन्हें असफलता का सामान्य नहीं करना पड़ता। वे जब वह विश्वास कर लेते हैं कि अमुक कार्य होना ही है तो वह होकर ही रहता है। परन्तु यह विश्वास अपने मन पर निरन्तर अंकुश रखने से प्रकट होता है।

मन पर नियन्त्रण रखने से अपनी सोयी हुई शक्तियों का ज्ञान होने लगता है और तब यह अनुभव होता है कि अमुक कार्य हो सकेगा, अमुक नहीं हो सकेगा। यदि भाग्य के आधीन कार्यों को छोड़ दिया जाय तो कोई कार्य नहीं बन पाता ।। बहुत से विद्वानों का तो विश्वास है कि भाग्य हमारा निर्माता नहीं, हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं है। इसलिए उचित है कि हम अपनी शक्तियों को पहचान कर उन्हें कार्य रूप में परिणित करें।

हम किसी कार्य को दूसरों के बल पर करना चाहें तो यदि वह कार्य हो जाय, तो भी हमारे मन में आनन्द और स्फूर्ति का अनुभव नहीं हो पाता। वैसे किसी से सहायता लेना बुरी बात नहीं है, फिर भी अनेक कार्य ऐसे हैं जो दूसरों के द्वारा अपने मन के अनुसार नहीं हो पाते और कुछ कार्यों में दूसरे व्यक्ति उपेक्षा दिखा कर उन्हें बिगाड़ देते है।

इस सम्बन्ध में एक उदाहरण लीजिए -एक व्यक्ति को दूसरा व्यक्ति पीड़ित करता है। जो पीड़ित होता है वह स्वयं उसका सामना करने में समर्थ नहीं है तो वह किसी दूसरे की सहायता लेता है। दूसरा व्यक्ति सोचता है कि मैं क्यों व्यर्थ ही उससे शत्रुता लूँ अत: वह उसे टालता रहता है, तो बाह्य सहायता का यह रूप कितना भ्रमपूर्ण रहा?

यदि उसने आत्मबल से काम लिया होता तो पीड़ित को अवश्य झुकना पड़ता और उसे किसी प्रकार निराश नहीं होना पड़ता।

आत्म-शक्ति का उत्कर्ष होने पर मनुष्य में इतना बल आ जाता है कि वह संसार भर को हिला सकता है। दूसरे का मुख देखने वाले व्यक्तियों को पग-पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति अपने भाग्य को दोष देते हुए निराश बैठे रहते हैं और वह अपमान, दुर्व्यवहार आदि के शिकार होते रहते है।

मनुष्य जब अपनी कार्य क्षमता को जानने लगता हैं, तभी उसमें आत्म-विश्वास की भावना जागृत होती हैं। जरा सोचिए कि तूँबे के सहारे तैरने वाला व्यक्ति कभी अच्छा तैराक हो सकता है? नकल करने वाला लेखक क्या सचमुच में लेखक हैं? यदि आत्म-बल नहीं हैं तो शक्ति होते हुए भी पर्वत की चोटी पर कैसे चढ़ेगा?

कुछ ऐसे अवसर आते है, जबकि अपने निर्णित कार्य को करते हुए उस पर पुनर्विचार करना होता हैं। ऐसा करना कोई बुरी बात नहीं है, क्योंकि शीघ्रता करने से भी कार्य बिगड़ जाते हैं? परन्तु बिना कारण किसी कार्य को लापरवाही में डाल देना और कार्य काल को व्यर्थ बढ़ाना भी हानिकारक सिद्ध होता है। कार्य के आरम्भ में दो बार, तीन बार भी सोचा जाए तो भी निर्णय शीघ्र करना चाहिए।

कभी-कभी किसी कार्य में सोचने-विचारने का अवसर ही नहीं मिलता और क्षणभर में ही जो कार्य-प्रणाली निश्चित हो जाय, उसी के अनुसार तुरंत कार्य करना होता है। ऐसे कार्य की बागडोर आत्मविश्वासी ही संभाल सकते है। न जाने कब, किस मनुष्य के सामने कोई ऐसी गम्भीर समस्या उत्पन्न हो जाय, इसलिए भलाई इसी में हैं कि हम अपने मन को नियन्त्रित और गम्भीर रखें।

आत्म-विश्वासी पुरुष शारीरिक कष्टों से नहीं डरते और वे कठिन कामों में जुट जाते हैं, यद्यपि यह आवश्यक नहीं कि उन्हें प्रत्येक कार्य में सफलता ही मिलती जाय, फिर भी विश्वास पूर्वक कार्यों में जुटे रहने पर वह सफल हो ही जाते हैं।

कुछ व्यक्तियों में विचार शक्ति तो होती ही हैं। परन्तु निर्णय करने के पश्चात् वह उसमें शंका करने लगते हैं। उस समय सही निर्णय न हो सकने से या तो कार्य का समय निकल जाता है अथवा बनता हुआ कार्य अपनी ही बहक के कारण नहीं बनता।

मनुष्य जीवन में प्रायः नवीन उलटफेरों की सम्भावना रही आती हैं। जब कोई कठिन विषय सामने आता हैं तो निर्बल विचार शक्ति वाले मनुष्य उनसे घबराते हैं, परन्तु जिन पुरुषों में आत्म-बल होता है, वे ऐसे अवसरों पर अधिक उत्साहित होते हैं क्योंकि वह किसी भी भीषण परिस्थिति से सामना करने को सदा कटिबद्ध रहते हैं।

संसार के सभी कार्यों में थोड़े-बहुत आत्म-बल की आवश्यकता होती ही हैं। परन्तु विवेकी पुरुष वही है जो छोटे कार्य को भी बड़े कार्य के समान सावधानी से करें। कभी-कभी असावधानी के फलस्वरूप छोटे काम भी बिगड़ जाते हैं। इस सम्बन्ध में किसी वकील को देखिये- उसे कानून की धाराएँ याद रहती हैं। फिर भी कभी-कभी ऐसे प्रश्न सामने आते हैं, जिनका उत्तर तत्काल देना होता हैं। उसमें उनकी स्मरण शक्ति जितना कार्य करती हैं, उससे अधिक कार्य आत्म-बल को करना होता हैं।

इसलिए कुतर्क का त्याग कीजिए, संशयों को छोड़िये और भगवान् श्री कृष्ण के वचन ‘संशयमा विनश्यति’ पर भले का ध्यान दीजिए। इससे आपके मनोबल की वृद्धि होगी, आपका आत्म-विश्वास सुदृढ़ होगा, आपका चरित्र उज्ज्वल होगा। फिर आपकी सफलता में कोई संदेह नहीं रहेगा।


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