विविधता में एकता का दर्शन

March 1961

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(श्री भीष्मलाल जवेरभाई देसाई)

मानव जीवन की तीन अवस्थायें है, अर्थात् तीन भूमिकाएँ हैं। इन तीनों में ही वह व्यक्तिगत अथवा एकदेशीय न होकर समष्टिगत है, बहुता के साथ मिलकर एक हैं। मानव जीवन को इस सार्वभौम सत्ता को अपनी संकीर्णता, क्षुद्रता से खण्ड-खण्ड करके देखना ही अज्ञान एवं अविवेक हैं। यही संसार में सारी कलह, अशान्ति एवं द्वेष की जड़ हैं। आज इस सत्य को भूल जाने के कारण ही विश्व पर विनाश के काले बादल मँडरा रहे हैं। मानव -जाति खण्ड-खण्ड होकर जाति, रंग वाद, पूर्व, पश्चिम, समाज, भाषा, प्रांतीयता आदि को लेकर परस्पर संघर्ष कर रही हैं। इसका एक मात्र कारण मानव की उस सार्वभौम सत्ता के प्रति आस्था न होना ही प्रमुख है और इन सबका हल भी एक मात्र इसी कमी को पूरा होने से होना सम्भव हैं। इस सब को अनुभूति प्राप्त करके दृश्य जगत में तदनुकूल आचरण करना ही आत्मज्ञान, साक्षात्कार, विराट दर्शन मुक्ति आदि है। अपने खण्ड माने हुए जीवन की भूमिका से उठकर उसे विश्वगत, सार्वभौम जीवन सत्ता से अपने आपको जोड़ देना ही सफल जीवन की प्रधान शर्त है।

मानव-जीवन की प्रथम अवस्था है पृथ्वी पर उसका निवास अर्थात् दृश्य जगत् से उसका सम्बन्ध। शीत प्रधान, उत्त्प्रत, बालू पूर्ण मरुभूमि, दुर्गम पहाड़ और समतल भूमि सभी जगह मनुष्य का निवास है। मनुष्य के लिए पृथ्वी का कोई भाग दुर्गम नहीं हैं। पृथ्वी माता ने अपने बच्चों को खेलने एवं सुखी-जीवन बिताने के लिए अपना वक्षस्थल ही खोलकर रख दिया है। इतना ही नहीं वह सभी तरह की सामग्री उत्सुक होकर लुटा रही हैं। वह उदार भाव से सबको ही धारण किए हुए हैं व्यक्ति अथवा समाज या जाति विशेष के लिए कोई प्रतिबन्ध अथवा छूट नहीं हैं। पृथ्वी पर निवास का अधिकार व्यक्तिगत नहीं, समष्टिगत हैं। अज्ञान से एवं संकीर्णता से मनुष्य पृथ्वी पर अपने सार्वभौमिक मानव-जीवन को खण्ड-खण्ड करके मानते है और साथ ही अपने वास-स्थान अलग अलग बना लेता है। अमेरिकनों का अमेरिका, रूसियों का रूस, भारतवासियों का भारत आदि भेद-विभेद पैदा कर लेता है। वह अपने जीवन को व्यक्तिगत मानव जीवन का अंग नहीं मानता और न यह सोचता है कि सभी मनुष्यों के साथ मेरा निवास पृथ्वी पर हैं, यही संकीर्णता का बन्धन हैं अल्पता हैं और दीन-हीनता हैं। यही दुखों का कारण हैं।

दूसरी अवस्था में मनुष्य का सम्बन्ध उस स्मृति लोक से है जहाँ उसने अतीतकाल से पूर्व पुरुषों के अनुभवों, अन्वेषणों से लाभ उठाकर विकास प्राप्त किया है, और काल का नीड़ तैयार किया है। यह नीड़ स्मृति द्वारा निर्मित और ग्रथित हैं। मनुष्य जाति ने जो विकास प्राप्त किया है वह समस्त मानव जाति की कमाई के परिणामस्वरूप ही हैं। यह किसी एक जाति अथवा समाज की चीज नहीं है। स्मृति लोक में समस्त मानव जाति का एकत्व निहित है, यह धरती एक देशीय एवं व्यष्टिगत नहीं वरन समष्टिगत हैं, विश्व- मानव की है। आज के विज्ञान युग के विकास की नींव में न मालूम कितने समय से असंख्यों का योग- दान रहा है।

मनुष्य की तीसरी अवस्था में वह आत्मलोक से सम्बन्धित हैं जिसका क्षेत्र उक्त दोनों अवस्थाओं से अधिक विस्तृत एवं व्यापक है, जहाँ मानव की विराट सत्ता एवं शक्ति निहित है। इसे सर्व मानव चित्त का महादेश भी कहा जा सकता है। समस्त मानव जाति के अंतर में यह आत्म- लोक स्थित है। इतना ही नहीं सम्पूर्ण चराचर जगत में एकमेव यही रस व्याप्त है। इस आत्म- तत्व में सभी चेतन समुदाय ''सूत्रे मणिगणाइव'' बँधा हुआ है। यह भी व्यक्तिगत एवं एकाकी नहीं वरन विश्वगत है। परिच्छत्र नहीं सर्वदेशीय है। एक देशीय नहीं।

बहुतों के बीच एकत्व होना ही सृष्टि का नियम है। प्रयोजनवश परस्पर पृथक होते हुए भी सारी सृष्टि, समष्टि, मानवता एक ही है। मनुष्य जाति के हिसाब से हम एक हैं जब हम व्यक्ति विशेष हैं तभी पृथक हैं। पुरुष होने पर स्त्री से भिन्न हैं, मनुष्य होने से अन्य जीव- जन्तुओं से अलग हैं किंतु प्राणी होने के नाते सभी स्त्री- पुरुष जीव- जन्तु प्राणिमात्र एक हैं। इसी प्रकार एक ही आत्मसत्ता में स्थित दृश्य जगत में पृथक-पृथक होते हुए भी मनुष्य का विराट विश्व के साथ एकत्व है। कृष्ण ने अर्जुन को, उसके व्यक्तिगत दृष्टिकोण एवं एकाकी, पृथक- मान्यताओं की विचार धारा को बदल कर इस विराट सत्ता की अनुभूति कराई थी, यही अर्जुन का भगवान के विराट स्वरूप का दर्शन करना था। इस आत्म- तत्व की अनुभूति प्राप्त करके जीवन में उतार लेना ही आत्म- दर्शन, साक्षात्कार मुक्ति आदि है। इस विश्वगत आत्म सत्ता, चेतन से सम्बन्ध स्थापित करके मनुष्य महामानव बन जाता है और उतना ही शक्तिशाली, विभु, महान बन जाता है। उस सर्व मानव चित्त के महादेश में पहुँच कर वह अपनी आत्मा का दर्शन करता है और कोटि- कोटि जन्मों से चली आ रही लम्बी जीवन- यात्रा से मंजिल पार करता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्पूर्ण मानव- जाति ही नहीं वरन सम्पूर्ण चराचर जगत ही एकत्वमय है। जीव- चेतना विकसित होकर ज्यों- ज्यों अपनी आत्म- स्थिति को उस विश्वगत, सर्व व्यापक, एक रम आत्म- चेतना में स्थित देखती है, स्वयं को उसी शृंखला की एक कड़ी अनुभव करती है। तभी वह विभु, परमात्मा बन जाती है। यही जीवन का रहस्य है।

विश्वगत अखण्ड गतिमान जीवन ही अपने आप में परम सत्य है। दु:ख द्वन्द, समस्यायें, कठिनाइयाँ इसलिए हैं कि हम वस्तु को जीवन को, उसकी समस्याओं को द्वन्दों में, खण्ड में देखते हैं ।। साथ ही उस खण्डता या उसके किसी अंश को मानकर ही समग्र मानव सत्य का मूल्यांकन करते हैं ।। किन्तु खण्ड के द्वारा, विविधता के माध्यम से समग्र का, परम सत्य का आंकलन सम्भव नहीं ।। जीवन को, इस जगत को, अपने सारे भयों, द्वन्दों क्रिया- कलापों को, समग्र जीवन, जो विश्वगत है उसके प्रकाश में देखने पर कुछ भी शेष नहीं रहता, क्योंकि समग्र ही, परम सत्य ही अपने आप में परिपूर्ण है। हर व्यक्ति की समस्या समग्र मानवता की समस्या है, हर मनुष्य का मन समग्र मानवता का मन है, इन सबका हल एक मात्र समष्टिगत मानवता, समग्र जीवन की अखण्ड अनुभूति और इस महासत्य के दर्शन में ही है। समग्र को पाते ही हमारा जीवन एक दम निर्द्वन्द्व, निर्विकल्प, शान्त हो जायगा ।।


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