हम अपनी ही सेवा क्यों न करें ?

March 1961

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सेवा मानव- जीवन का एक आवश्यक अंग है। आत्म- सन्तोष उसी के आधार पर मिलता है। सेवा से रहित जीवन एक निकृष्ट कोटि का स्वार्थी और संकीर्ण जीवन है। उसमें न लोक सधता है न परलोक। जो तुच्छ भौतिक सुखों, तृष्णाओं और वासनाओं की पूर्ति में लगा रहता है उसे नर- पशु ही कहना चाहिए।

अपने से पिछड़े हुओं को अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने समान बनाने का प्रयत्न 'सेवा' कहा जाता है। हर व्यक्ति की एक मर्यादा है और वह उतनी ही सेवा कर सकता है। अपने से छोटे, समीपवर्ती, सम्बद्ध और विश्वरत लोग ही सेवा के पात्र हो सकते हैं। इस मर्यादा से बाहर सेवा कर सकना किसी के लिये भी सम्भव नहीं फिर चाहे वह कितना ही उदार और परोपकारी क्यों न हो। समस्त विश्व की सेवा करके सबको सुखी बनाने की भावना तो रखी जा सकती है पर सेवा का क्षेत्र सारे संसार को, समस्त मानव समाज को नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि वें हमारी सेवा- सीमा से बाहर होते ।

मान लीजिए आप विश्व- सेवक है और अफ्रीका निवासियों के दु:ख दूर करना चाहते हैं, उन्हें अपनी सेवा का लाभ देने के इच्छुक हैं, पर वे आपसे इतनी दूर हैं, आपकी पहुँच से इतने बाहर हैं कि वहाँ तक पहुँचना, उनकी भाषा समझ सकना, उनके वातावरण में रह सकना, उनकी परिस्थिति को समझ सकना आपके लिए कठिन है, फिर आप किस प्रकार उनकी सेवा करेंगे ?

मान लीजिए आप आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में अमुक प्रकार का परिवर्तन चाहते हैं। इसके लिये आपके कुछ विचार भी हैं। आप सरकार के कर्णधारों, राजनीतिज्ञों, नेताओं, अग्रणी पुरूषों से अपने विचारों के अनुसार कार्य कराना चाहते हैं। उनसे लिखित या मौखिक अनुरोध भी करते हैं, पर वे आपका, आपके विचारों का महत्त्व स्वीकार नहीं करते। आपकी इच्छा और सलाह को पागलपन मात्र मान कर उपेक्षा कर देते हैं। फिर अपना क्या वश रह जाता है ?? देश के उच्च साहित्यकार केवल युग निर्माण की रचनाएँ लिखें, कवि जागरण के गीत बनावें, अध्यापक प्राचीन जैसे आदर्श गुरू बन जावें, धार्मिक नेता ऋषियों जैसा जीवन यापन करें- आप इन आकांक्षाओं के लिए उन्हें प्रेरणा भी करते हैं पर वे लोग आपको तुच्छ समझकर इन बातों को उपहास में डाल देते हैं। अब आप क्या करेंगे ?

आप चाहते हैं कि मुसलमान, सिख, नागा, द्रविड़, आदिवासी, अछूत, सभी लोग अपने को भारत माता की संतान और एक ही रक्त से अनुप्राणित एक ही वृत के डाली, पत्ते समझें और राष्ट्रीय एकता का परिचय दें। भाषा, सम्प्रदाय, जातिवाद की अपनी संकुचित वृत्ति को छोड़े। पर जिन वर्गों में आपका अधिक प्रवेश ही नहीं है जो आपको अपने से बाहर का, अपने स्वार्थों का विरोधी माने बैठे है, वे आपकी बात क्यों सुनेंगे, वे समझेंगे ये अपने हिंदूवाद की लाभ की बातें कर रहा है हमारा दुश्मन है। वह आपकी बात का तिरस्कार ही नहीं विरोध भी करेंगे, आप कैसे उन्हें समझा पावेंगे?

कोई व्यक्ति आपको धूर्त, ढोंगी, चालाक, वाचाल, बेईमान, विरोधी मान बैठा है, आपके प्रति घृणा, ईर्ष्या, द्वेष के भाव उसके मन में भरे हुए है, तब आप उसे कैसी ही उत्तम सलाह क्यों न दें, कैसा ही हितकर मार्ग क्यों न बतावें, वह उस पर ध्यान ही नहीं देगा और इस शिक्षा में भी कोई चाल या छिपा हुआ रहस्य ढूँढ़ेगा और ऐसा सोचेगा कि मुझे किसी चाल में फँसाने के लिए ऐसी मीठी बातें बनायी जा रही है। आपका सारा प्रयत्न निष्फल चला जाएगा।

कहने का तात्पर्य है कि अपने से अधिक ऊँची स्थिति के, दूरवर्ती, असम्बद्ध और अविश्वासी लोगों की कोई व्यक्ति चाहते हुए भी कुछ सेवा नहीं कर सकता। उसका क्षेत्र तो अपने से छोटे, पिछड़े हुए, समीपवर्ती- परिचित जाति धर्म, भाषा व्यवसाय, मित्रता रिश्तेदार आदि किन्हीं आधारों पर संबंधित तथा वे ही लोग हो सकते है जो उसे भला आदमी मानते है, उसे योग्य चरित्रवान और विश्वासी मानते है। हर सेवा परायण व्यक्ति का अपनी सेवा भावना जहाँ तहाँ बिखेरने की अपेक्षा इसी दायरे में सीमित करनी पड़ती है। आकस्मिक विपत्ति की बात दूसरी है, चोट, दुर्घटना, भूकंप, अग्निकांड आदि से पीड़ित व्यक्तियों की तात्कालिक सेवा के अचानक अवसर कभी भी आ सकते है। उनके लिए योजनाबद्ध सेवा वाली बात नहीं लागू होती है।

संसार में अनेक प्रकार की व्याधि दिखाई देती है। लोग नाना प्रकार के शोक संतापों से व्यथित है। इनके दुःख मिटाने के लिए सहृदय के मन में करुणा उत्पन्न होनी चाहिए और उसके लिए उसे प्रयत्न और त्याग भी करना चाहिए। किंतु इससे पूर्व सेवा भावी को यह जानना भी होगा कि विश्वव्यापी शोक संतापों, व्याधि- व्याधियों और द्वेष क्लेशों का कारण है? कारण को जानने के बाद ही उसका उचित उपचार हो सकता है। निदान हो जाने पर ही रोग की सही हो सकती है।

विश्वव्यापी समस्त दुःखों का कारण है अज्ञान और पाप, स्वार्थ और मोह, तृष्णा और वासना। इन महाव्याधियों को हटाये बिना, दुखों को दूर करने के समस्त प्रयत्न ऐसे ही है जैसे रक्त- विकार की फुंसियों पर मरहम लगाना। इससे व्याधि का समाधान नहीं होता। तात्कालिक कष्टों से तथा सामयिक अभावों से पीड़ित मनुष्यों की सहायता करना कर्तव्य है पर उतने मात्र से न तो मानव जाति के कष्ट दूर हो सकते है और न समस्याएँ सुलझ सकती है।

धन देकर हुई सेवा सबसे साधारण मानी जाती है। उससे मनुष्यों की कुछ समस्याएँ थोड़ी देर के लिए सरल होती है। किसी को शरीर सुख पहुँचाकर की हुई सेवा भी कुछ समय तक ही दुःख दूर करती है। तन और धन की सेवा नहीं करनी चाहिए, यह प्रयोजन नहीं है, वह तो उदार हृदय व्यक्ति समय- समय पर करता ही रहेगा, उन्हें तो करनी ही चाहिए, पर किसी का जीवन क्रम जब तक न सुधरेगा तब तक इन तन और धन की सहायताओं से भी उसका काम न चलेगा। आज तो सर्वत्र अशान्ति क्लेश और पीड़ा का साम्राज्य छाया हुआ है उसका कारण धन या तन के सुखों की कमी नहीं है। ये तो समयानुसार दिन- दिन बढ़ते ही जाते है, फिर भी जो क्लेश बढ़ रहे है उसका कारण व्यक्ति और समाज का आंतरिक स्तर, चरित्र एवं आदतों का गिर जाना ही है। इसे उठाने की जो सेवा उसी से विश्वव्यापी समस्याएँ सुलझेंगी। अन्यथा कुआँ बनवाने या प्याऊ लगाने से, दवाखाने और धर्मशाला बनवाने से भी क्या काम चलने वाला है। जब लोगों का चरित्र चोरी, बेईमानी, झूठ, दगाबाजी, लूट, शोषण, अपहरण, विलासिता, फिजूलखर्ची, व्यसन व्यभिचार आदि अनैतिक दशाओं में और तेजी से अग्रसर हो रहा तो इन कुकृत्यों से जो दुष्परिणाम और दु:ख उत्पन्न होंगे उन्हें देखते हुए प्याऊ लगवाने, गौ को चारा डाल देने या चिड़ियों को चुगाने का पुण्य जलते तवे पर दो- चार बूँद पानी डालने के समान ही होगा।

जैसे एक व्यभिचार अनेकों अपनी बुराई में सान लेता है, जैसे एक नशेबाज अपनी लत कई औरों को भी सिखा देता है उसी प्रकार एक भले गुण कर्म स्वभाव का व्यक्ति भी अपने प्रभाव से कुछ न कुछ व्यक्तियों को अवश्य ही अपने समान बना सकता है, सुधार सकता है। यदि उसका मनोबल और चरित्र उच्चकोटि का है तब तो उसका सूक्ष्म प्रभाव इतना प्रचण्ड भी हो सकता है कि असंख्यों व्यक्तियों को कुछ से कुछ बना दे। भगवान बुद्ध, महात्मा गाँधी आदि महापुरूषों ने अपने आत्मबल से कितने लोगों को क्या से क्या बना दिया यह उदाहरण हमारे सामने हैं। पूर्वकाल में भी, सारे संसार में यही प्रक्रिया काम करती रहा है। चरित्रवान और आत्मबल सम्पन्न लोगों ने अकेले ही विश्व को, मानव- जाति को ऊपर उठाने का इतना अधिक कार्य किया है जितना कि आत्मबल से रहित हजारों उपदेशक गला फाड़- फाड़ कर जीवन भर चिल्लाते रहने से भी नहीं कर सकते।

यदि अपने पास गोली बारूद पर्याप्त हो, उत्कृष्ट हो तो अनेक शत्रुओं को मार गिराया जा सकता है। पर यदि लकड़ी की तलवार लेकर युद्ध के मोर्चे पर हुङ्कार मचावेंगे तो विजय की माला पहनने का लाभ नहीं मिलेगा। संसार के कष्टों को मिटाने के लिये जन समाज का नैतिक और मानसिक स्तर ऊँचा उठाना आवश्यक है। इस प्रकार की सेवा तभी हो सकती है जब अपनी निज की स्थिति भी वह सब कर सकने के लिये शक्तिशाली एवं उपयुक्त हो। पटरी से नीचे उतर कर नीचे गिरी हुई रेलगाड़ी के डिब्बों को उठाकर खड़ा करने के लिए मजबूत क्रेन मशीन की जरुरत पड़ती है। यदि वह क्रेन कमजोर हो, नकली हो, टूटी- फूटी हो, बेकार हो तो कितना ही प्रयत्न और प्रदर्शन करने पर भी गिरी हुई रेल के डिब्बे न उठेंगे। यही बात आज के व्यक्ति और समाज को ऊँचा उठाने के सम्बन्ध में है। उसे साधारण प्रचार के बल पर नहीं उठाया जा सकता ।। उसके लिए मजबूत क्रेन मशीन की ही आवश्यकता है। अपने आपको फौलादी निर्माण करके क्रेन की आवश्यकता स्वयं पूरी करेंगे तभी वह सभी सेवा की योग्यता होगी। इसी से विश्व का कल्याण और सच्ची मानव सेवा हो सकेगी।

किसी बर्तन का एक भाग आग पर रखा जाय तो वह सारा बर्तन गरम हो जाता है और उसके भीतर रखी हुई चीजें पकने लगती हैं। आग केवल बर्तन के पेंदे को छूती थी पर गरमी केवल पेंदे तक ही सीमित न रही वरन सारे बर्तन में फैल गई। विश्व सेवा का आरम्भ हम अपने आपकी सेवा करके कर सकते हैं। व्यक्ति अकेला नहीं है। सारे समाज के साथ, सारे विश्व के साथ उसकी श्रृंखला जुड़ी हुई है। सुधार कार्य, सेवा कार्य किसी भी व्यक्ति से आरम्भ किया जाय उसका परिणाम निश्चित रूप से पूरे समाज पर होता है। यदि हम अपनी सेवा कर लें, अपने को सुधार लें तो सारी मनुष्य जाती की सेवा उससे हो सकती है।

किसी को सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा देकर ही उसके कष्टों और चिन्ताओं का समाधान हो सकता है। यह कार्य उपदेशों से नहीं, अपना आदर्श उपस्थित करके ही किया जा सकना सम्भव है। हम अपने को सुधार कर न केवल अपनी समस्याओं को हल करते हैं वरन औरों के लिए आदर्श उपस्थित करके उनको ऐसी ठोस शिक्षा देते हैं जिससे ये भी हमारी तरह शान्ति प्राप्त कर सकें। सेवा का यही सच्चा मार्ग है। आत्म सुधार के आत्म सेवा के प्रयत्न में ही स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय है।


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