जीवन में अध्यात्मिकता को भी स्थान मिले

March 1961

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(श्री जयप्रकाश नारायण)

भारत की एक पुरानी सभ्यता रही है, एक ऊँची सभ्यता रही है। परिश्रम में आज भौतिक सुख के साधनों की जो प्रचुरता हम देख रहे है उसके मुकाबले भले ही हम पिछड़े हुए हों, लेकिन आज भी हम इस देश में दुनियाँ को सबक सिखाने वाले रामकृष्ण और अरविन्द जैसे महात्मा पैदा होते है।

ऐसी ऊँची सभ्यता के बावजूद भारत की आँखों में आज परिश्रम की भौतिक सभ्यता की चमक-दमक से चकाचौंध पैदा हो रही है और हम एक दोराहे पर खड़े है। हम यह निश्चय नहीं कर पा रहे है कि हमें किधर जाना है, किस दिशा में जाना है? एक तरफ हमारे सामने अमेरिका, यूरोप और रूस का रास्ता है। यह रूस भी हमारे लिए पश्चिम ही है। बुनियादी तौर पर अमेरिका, यूरोप और रूस की सभ्यताओं में कोई फर्क नहीं है। पूँजीवादी और साम्यवादी जीवन में वस्तुतः कोई भेद नहीं है। दोनों की संस्कृति, शुद्ध भौतिक संस्कृति है।

तो एक तरफ यह पश्चिम की भौतिक सभ्यता का रास्ता हमारे सामने है, दूसरी तरफ एक अपना रास्ता है- भारत की आध्यात्मिक सभ्यता का रास्ता, जिसके द्वारा हम जीवन का संतुलित विकास, जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा और मानवीय तथा नैतिक मूल्यों की स्थापना कर सकते है। मनुष्य ‘मनुष्य’ कितना है, उसमें भावना कितनी है, इस मापदण्ड से जीवन का स्तर मानने वाली सभ्यता का वह रास्ता है।

आज ये दो रास्ते हमारे सामने है। यह दूसरी बात है कि हम पश्चिम के रास्ते पर कितनी दूर चल सकते है। हमारी परिस्थिति अमेरिका, यूरोप और रूस की परिस्थिति से भिन्न है। फिर भी हमारे प्रधानमंत्री नेहरू उन्हीं देशों से विशेषज्ञ बुला रहे हैं और नए भारत के निर्माण की योजना बनवा रहे हैं।

जो भूखे हैं, उनके लिए रोटी ही सब कुछ है। इसलिए सम्भव है, वे इसी रास्ते पर दौड़ेंगे। भारत में भूखे लोग ही अधिक है। हम मध्यम वर्ग वाले भी एक भूखी जमात है और इस देश में ऐसे भी लोग है जो किसी भी शर्त पर भौतिक उन्नति चाहते है। उनका विचार हैं कि जब हमारे भौतिक जीवन का स्तर ऊँचा उठ जाएगा, तब फिर आध्यात्मिक स्तर उठाने की चिंता हम करेंगे। यह एक घातक विचार है।

प्रतिकूल परिस्थिति में एक यह विचार भी यहाँ चल रहा है कि हम मानवता को ऊपर उठायेंगे, अपना आध्यात्मिक स्तर ऊँचा करेंगे, चाहे हमारा भौतिक स्तर नीचा ही क्यों न रहें। जो भूखे है, उन्हें भी हम समझाएँगे और रोटी के लिए अपना आध्यात्मिक स्तर नहीं गिरने देंगे। हमें एक नया समाज बनाना है, एक नयी सभ्यता का निर्माण करना है। हमें कृषि एवं उद्योग का भी विकास करना है। लेकिन हमारे समाजिक प्रयोग और सामाजिक प्रयास का मुख्य लक्ष्य हमारा आध्यात्मिक उत्कर्ष तथा एक मानवीय समाज, एक मानवीय सभ्यता का निर्माण करना ही रहेगा।

पश्चिम का रास्ता वस्तुओं के विकास का रास्ता है। यूरोप के लोगों की आकांक्षाएँ आज 'टेलीफोन' वाशिंग मशिन', और 'रेफ्रीजरेटर' जैसे भौतिक सुख के साधनों पर केन्द्रित है। इंगलैंड में अभी हाल में चुनाव लड़ा गया, उसमें कंजर्बेटिव पार्टी और लेबर पार्टी दोनों ने भौतिक वाद को खूब उछाला। कंजर्वेटिव पार्टी ने ज्यादा उछाला । उसने जनता की उपयुक्त आकांक्षाएँ पूरी करने का अश्वासन दिया और उसकी विजय हुई।

पश्चिम में भी इस भौतिकवादी प्रवृत्ति के विरूद्ध चिल्लाने वाले लोग हैं लेकिन उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। वहाँ के जीवन की मुख्य धारा भौतिकवादी है। वहाँ के चिन्तन में आणविक अस्त्रों और क्षेपास्त्रों से भय अवश्य पैदा हुआ है। लोग यह समझने लगे कि लड़ाई होगी तो सर्वनाश होगा पर उनको यह विश्वास हो रहा है कि रूस और अमेरिका नहीं लड़ेंगे, यानी बड़ी लड़ाई नहीं होगी। छोटी लड़ाई हो सकती है लेकिन आणविक युद्ध नहीं होगा- इस विश्वास के बावजूद उसके जीवन मुख्य धारा आज भी भौतिकवादी है। वह यह नहीं समझते कि बड़ी या छोटी लड़ाई के बीज भौतिकवादी विचार में ही निहित है।

अब देखना यह है कि भारत की जनता क्या करती है क्या उसे अमेरिका और युरोप जैसा विकास चाहिए ? अगर उसके दिल की यही आवाज है तो उसे कोई दूसरी दिशा में नहीं लेजा सकता । भारत का निर्माण भारत की जनता को करना है, इसीलिए यह वही निश्चय करेगी कि वह किस दिशा में जाय।

हमें अपना पेट अवश्य भरना है और तन भी ढकना है, हमारी जो प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं उनकी पूर्ति अवश्य हो। रोटी कपड़े के अलावा साफ-सुथरा हवादार मकान भी हमें मिले, आलीशान इमारत न हो तो कोई बात नहीं। अगर इतना हो जाता है तो फिर बाकी ध्यान हम दूसरी तरफ, जीवन के विकास, चिन्तन, शोध, संस्कृति के विकास आदि में लगायें।

हमारे देश में हजारों वर्ष जीवन का चिन्तन हुआ फिर भी आज हम उलझन में पड़े हैं और निश्चय नहीं कर पा रहे हैं कि किस दिशा में कदम बढ़ायें। तो सर्व प्रथम भारत की जनता को यह निश्चय करना है कि वह किधर जाय, उसका क्या आदर्श हो। हमारे देश में जो चुने हुए लोग है, जो समाज का नेतृत्व करते हैं, उन पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। आज दिल्ली, बम्बई और कलकत्ता जैसे नगरों में जो आदर्श वे स्थापित कर रहे हैं, जो शान-शौकन की जिन्दगी का नमूना वे पेश कर रहे हैं, वह हमारा आदर्श नहीं हो सकता।

उद्योगीकरण से सम्भव है, वह भौतिक शक्ति हमें न प्राप्त हो सके, जो आज अमेरिका और यूरोप को प्राप्त है। अगर हम यह निश्चय कर लेते हैं कि हमारी सभ्यता का अधार वस्तु नहीं, मनुष्य होगा, तो फिर हमें पाश्चात्य ढंग के उद्योगीकरण का मोह छोड़ना पड़ेगा और जिस मानवीय सभ्यता का हम निर्माण करना चाहते हैं, उसकी तरफ अपने ढंग से कदम बढ़ाना होगा।


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