नारी की महत्ता को समझा जाय

October 1960

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मनुष्य का जीवन दो धाराओं का सम्मिलन है, यह दो धाराएं नर और नारी कही जाती हैं। दिन और रात महाकाल के दो विभाग हैं इन दोनों के संमिश्रित एवं संतुलित क्रम से ही सृष्टि व्यवस्था चलती है। यदि इनमें से एक ही रहे, दूसरा नष्ट या क्षीण हो जाय तो जीवों का जीवित रहना ही संभव न रहे। इसी प्रकार अन्न जल, निद्रा-जागरण, जन्म−मरण के जोड़े भिन्न-भिन्न प्रकार होते हुए भी मिलकर एक क्रम व्यवस्था का निर्माण करते हैं। दो धागे या तिनके मिलाकर बटने से ही रस्सी बनती है यदि वह दो नहीं केवल एक ही धागा या तिनका हो तो रस्सी न बन सकेगी। ऋण और धन निगेटिव और पॉजिटिव दो विद्युत धाराएं आपस में न मिलें तो बिजली की जो प्रचंड शक्ति विभिन्न क्षेत्रों में काम करती है अपने अस्तित्व तक का परिचय देने में समर्थ न हो।

नर और नारी का भी जोड़ा इसी प्रकार का है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों के संतुलन सहयोग से ही एक स्वस्थ मानव जीवन विनिर्मित होता है। इसी संतुलन के आधार पर गृहस्थ जीवन की ही नहीं सारे सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था भी निर्भर है। इन दोनों में एक विकसित दूसरा अविकसित रहे, एक उन्नत दूसरा अवनत रहे तो पंगु, लंगड़े, काने, टोंटे, अर्धांग बाल रोग से पीड़ित मनुष्य की तरह कुसमता और अपूर्णता ही दिखाई पड़ेगी। सृष्टि संचालन की महत्वपूर्ण प्रक्रिया नर-नारी के संयोग पर निर्भर है, प्रकृति ने अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इन दोनों को अलग-अलग बनाकर भी सुदृढ़ स्नेह एवं आकर्षण के धागे से सींच दिया है। इतना ही नहीं दोनों में ऐसे अभाव भी रखे हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए उनका पारस्परिक सहयोग आवश्यक हो गया है। जिस प्रकार नर-नारी का असहयोग रहने से सृष्टि क्रम आगे चलना बन्द हो सकता है उसी प्रकार पारस्परिक प्रेम एवं सहविकास के बिना गृहस्थ की गाड़ी भी टूटे पहिये के छकड़े की तरह चर मर कर गिर सकती है और लकड़ियों का एक ढेर मात्र रह सकती है।

मनुष्य के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में नारी का सहयोग नितान्त आवश्यक है। यह सहयोग जितना ही हार्दिक, जितना ही वास्तविक जितना ही सक्रिय और जितना ही संतुलित होगा उतना ही जीवन की विभिन्न दिशाओं में प्रगति संभव रहेगी। ऐसा सोचा जाता है कि व्यवसायिक क्षेत्र की सफलता पुरुष के अपने प्रयत्न पर निर्भर है उसमें स्त्री का कुछ विशेष योग नहीं है स्त्री तो गृह व्यवस्था में ही सहायक हो सकती है। पर यह बात भी आँशिक रूप से ही सत्य है। स्त्री की उपयोगिता के बारे में आमतौर से इतना ही सोचा जाता है कि वासना तृप्ति शिशु पालन और गृह प्रबंध के लिए उसकी आवश्यकता है पर वस्तुतः उसका क्षेत्र इससे कहीं बड़ा है। नारी का सबसे बड़ा प्रभाव पुरुष के मनःक्षेत्र पर पड़ता है। आशा, उत्साह, प्रसन्नता, स्फूर्ति, संतोष आदि जीवन के बहुमूल्य तथ्यों को नारी के द्वारा दिए हुए वरदान कहें तो अत्युक्ति न होगी। एक सुविकसित सुखी जीवनसंगिनी नारी जिसे प्राप्त हुई हो उसे इन वरदानों की प्राप्ति होनी चाहिए।

वासना तृप्ति, शिशु-पालन और गृह प्रबंध के लिए समाज में ऐसी अनेक सुविधाएं मौजूद हैं जिनके द्वारा कुछ थोड़ा अधिक खर्च करके यह तीनों ही सुविधाएं मिल सकती हैं। वेश्यावृत्ति मौजूद ही है, शिशु पालन और शिक्षण के लिए सुप्रबंध सज्जित संस्थाएं मौजूद हैं अपने संतान न हो तो संसार में इतने गरीब और बहु संतान से दुखी व्यक्ति मौजूद हैं जो खुशी-खुशी अपने बच्चों को गोद रखने के लिए दे सकते हैं। होटलों में चाहे जैसा भोजन तैयार है, गृह प्रबंध तो बड़े घरों में आमतौर से नौकरों पर निर्भर रहता ही है। इन कार्यों के लिये धर्मपत्नी का होना अनिवार्य नहीं है, यह कार्य उसके बिना भी चल सकते हैं। यह बात अलग है कि पत्नी सस्ती पड़ती है और बाहर इन कार्यों के लिए कुछ अधिक खर्च करना पड़े। यदि उन्हीं बातों तक नारी की उपयोगिता सीमित होती तो केवल गरीब लोग ही सस्तेपन की दृष्टि से विवाह के झंझट को सिर पर ओढ़ते अमीर लोग अपनी स्वच्छन्दता में नियंत्रण डालने वाले और अगणित उत्तरदायित्वों से लदे हुए विवाह बंधन में बंधने के लिये तैयार न होते।

नर और नारी दोनों की अन्तरात्मा का निर्माण कुछ ऐसे विचित्र ढंग से हुआ है कि उनके उल्लेख का प्रस्फुरण एक-दूसरे के अंतःस्पर्श से ही होता है। इस संयोग के बिना दोनों खोये-खोये से रहते हैं दोनों को कोई अज्ञात अभाव हर घड़ी खटकता रहता है। वयस्क कुमार कुमारी इस उल्लास की तलाश में तृषित नेत्रों से इधर-उधर झाँकते देखे जाते हैं। विधुर और विधवाएं जिनका साथी बिछुड़ गया है एक दर्द, टीस वेदना पीड़ा और कसक को अपने कलेजे में छिपाये फिरते हैं। समय कुसमय जब उनकी यह हूक प्रबल हो जाती है तो उनके भीतर कितनी असह्य ऐंठने होती हैं इसका वर्णन न तो शब्दों में सम्भव है और न व्याख्या करके किसी को समझाया जा सकता है। इसे तो केवल भुक्तभोगी ही जानते हैं।

दक्ष प्रजापति के यज्ञ में गई हुई सती जब अपने पति शंकर का अपमान सहन न कर सकी तो वे यज्ञ में ही कूद पड़ीं। यह दर्द भरा समाचार जब शिव को मिला तो उनका अन्तःकरण हाहाकार कर उठा। वेदना से उनका हृदय फूट कर बाहर निकलने लगा। योगेश्वर सदा समाधि में रहने वाले शिव का कामदेव को तीसरे नेत्र से जलाकर भस्म कर देने वाले शिव का धैर्य और विवेक धर्मपत्नी के वियोग की उस प्रचंड पीड़ा के सामने ठहर न सका। शंकर हतप्रभ हो गये। उनका आन्तरिक हाहाकार ऐसा उमड़ा कि मानों प्रलय ही फूट रही हो। उसने मरी हुई सती की जली हुई लाश को कंधे पर लादा और पागल उन्मत्तों की तरह अपनी वेदना की लहरों के साथ-साथ उछलने लगे। सती की लाश को कंधे पर रखे शंकर का रोम-रोम जो हाहाकार कर रहा है जैसी प्रचंड पीड़ा से आलोकित हो रहा है उसे देखते हुए देवता काँपने लगे। उन्हें लगा मानों शंकर के अन्तस्तल का चीत्कार अपने कलेवर को फाड़ कर अब तब में फट पड़ने वाला ही है। दशों दिशाओं में हाहाकार मच गया। विष्णु ने उस विपत्ति की घड़ी को टालने के लिए शोक के प्रचण्ड वेग को शमन करने के लिए अपने चक्र से उस लाश के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। वे टुकड़े जहाँ-जहाँ गिरे वहाँ शक्ति पीठ बने।

नारी के अभाव की जो क्षति ज्ञान विज्ञान के अधिपति शंकर के लिए असह्य थी कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है इसका उपयोग हम वासना के कीड़े, उसके द्वारा उपलब्ध होने वाले लाभों के आधार पर सोचें और इसी दृष्टि से मूल्याँकन करते हैं तो हमारी हीन दृष्टि ही है इससे नारी की महत्ता कम नहीं होती। देवता और भगवान कहने वालों ने अपने नाम का गौरव तभी सार्थक माना जब उनकी पत्नियों के नाम उनके नाम से पहले जुड़े। लक्ष्मी नारायण, सीताराम, शची पुरन्दर आदि युग्मों में पतियों से पहले पत्नियों का ही उल्लेख हुआ है। यह तथ्य बताते हैं कि जिन्हें आत्मा की प्रकृति का ज्ञान है, वे यह जानते हैं कि नारी के द्वारा नर को क्या मिलता है।

नर का रोम-रोम नारी की अनुकम्पा का नन्हा सा खिलौना मात्र है। पिता के एक बूँद पानी मात्र को लेकर माता ने बच्चे को अनन्त दान दिया है। उसने अपने खून में खून, माँस में से माँस प्राण में से प्राण का दान नौ महीने तक अजस्र रूप से जारी रखा, तब उसका शरीर इस योग्य बन पाया कि धरती पर पैर रखकर यहाँ की परिस्थितियों को सहन कर सके। इसके बाद भी उसका यह दान समाप्त नहीं होता अपनी छाती के वह खारी और लाल खून को बच्चे की प्रवृत्ति के अनुकूल न पाकर वह उसे सफेद रंग में मीठे स्वाद में बदलती है और दूध के रूप में पिलाती है। इतना ही नहीं उसने अपने आपको उसकी आत्मीयता के रंग से इतना रंग दिया कि यही पता नहीं चलता कि बच्चा और वह एक है या दो। बच्चा जब कपड़ों में टट्टी कर देता है, पेशाब फिर देता है तब उसे उतना भी क्रोध नहीं आता जितना स्वयं बीमार हो जाने पर अपना मल-मूत्र कपड़ों में निकल जाने पर आता। बच्चा बीमार हो जाता है तो वैसी ही बेचैनी अनुभव करती है जैसी किसी को स्वयं अपने बीमार होने पर हो सकती है। इस सृष्टि में माता की उदारता, आत्मीयता और अनुकम्पा अद्वितीय कही जाती है।

नारी दान की मूर्ति है वह बालक को जो देती है वह प्रकट है क्योंकि लोग जानते हैं कि यह उसे सब देने वाला और कोई नहीं है। पर वह पति को भी देती है वह पुत्र से किसी भी प्रकार कम नहीं है। भूल उसके मूल्याँकन में होती है। जो मानसिक वरदान नारी अपनी अन्तरात्मा को निचोड़ कर पति को देती है उसे लोग सोच नहीं पाते, समझ नहीं पाते। बालक के प्रति दान की भाँति उनका प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है इसलिए लोग समझते हैं कि यह सब उसने स्वयं उपार्जित किया है। पर तथ्य यह नहीं है। वास्तविकता यह है कि माता से प्रतिदिन पाने के बाद बालक में जो कमी रह गई थी उसकी पूर्ति वह पत्नी से करता है, तब वह इस योग्य बनता है कि उसे एक सुविकसित सुसंस्कृत मनुष्य कहा जा सके।

पैदा काई भी क्यों न हो उसे उपयुक्त भूमि की, एवं पानी की आवश्यकता होती ही है उसके बिना उसका विकास संभव नहीं। इसी प्रकार व्यक्ति के मानस संस्थान का उचित विकास होने के लिए माता तथा नारी का अभीष्ट सहयोग अपेक्षित है। इन पंक्तियों में अभीष्ट सहयोग से मतलब माता के लाड़ प्यार से पालन पोषण और पत्नी के वासना तृप्ति करने से नहीं है। यह तो आमतौर से सर्वत्र ही होता रहता है। माता अपने आन्तरिक संस्कारों को बालक के जन्म में पूर्ण पर्याप्त मात्रा में उसके मन, मस्तिष्क, हृदय या नाड़ी संस्थान में भर देती है। बच्चे की प्रकृति का आधे से अधिक भाग उसके जन्म से पूर्व बन चुका होता है। शेष आधा ही सत्संग, स्वाध्याय, वातावरण अनुकरण आदि के आधार पर बनता है। यदि माता ने बालक का निर्माण केवल शरीर तक ही सीमित नहीं रखा है उसे अपने उच्च संस्कार भी प्रदान किये हैं तो यह माना जायेगा कि निर्माण में उसने अभीष्ट सहायता दी है। इसी प्रकार पत्नी ने वासना और व्यवस्था तक ही सीमित न रहकर यदि पति की अन्तरात्मा को छुआ है, उसकी प्रसुप्त मनोभूमि को सुविकसित करने में प्रसन्नता, उत्साह, आशा, स्फूर्ति, धैर्य, साहस आदि गुणों को प्रस्फुटित करने में योगदान दिया है तो इसे भी अभीष्ट सहयोग कहा जायेगा। जिस व्यक्ति को सहृदय और सुसंस्कृत माता एवं पत्नी प्राप्त हुई है उसे सब प्रकार सौभाग्यशाली ही कहा जा सकता है और इन दोनों के द्वारा उसका अंतस्तल इतना विकसित हो गया होता है कि वह जीवन की किसी भी दिशा में आशाजनक प्रगति कर सकता है और बड़ी कठिनाई के साथ हँसते-हँसते टक्कर ले सकता है।

उपार्जन, उन्नति और प्रसन्नता के अनेकों साधन जुटाने के लिए हम दिन रात जी जान से प्रयत्न करते हैं। फलस्वरूप बहुत कुछ उपकरण जुटा भी लेते हैं परन्तु उनका प्रभाव केवल बाहरी जीवन तथा इन्द्रियों की प्रसन्नता तक ही सीमित रहता है। अन्तस्तल को छूने और विकसित करने वाली वस्तु उनमें से कोई नहीं होती। मनुष्य की महानता उसकी साधन सामग्री पर नहीं वरन् उसके आन्तरिक गुणों पर निर्भर करती हैं। अनेक व्यक्तित्व के आन्तरिक दुर्बलता और हीनता की भावना से ग्रसित व्यक्ति कोई कहने लायक उन्नति नहीं कर सकते। ऐसे भाग्य से अनायास ही कोई लाभदायक अवसर प्राप्त ही हो जाय तो वह स्थिति देर तक कायम नहीं रह सकती। व्यक्तित्व के दोषों के कारण अन्ततः दुख दुर्भाग्य ही सामने आ खड़ा होगा। इसलिए बुद्धिमान लोग अपने में, अपने स्त्री बच्चों और परिजनों में अच्छे स्वभाव गुण और आचार की अभिवृद्धि का प्रयत्न करते हैं। क्योंकि स्थायी उन्नति केवल सुविकसित मनोभूमि पर ही अवलम्बित है। दुर्बुद्धि मनुष्य किसी प्रकार कुछ उपार्जन भी कर ले तो उससे उसके अहंकार एवं दुर्गुणों की वृद्धि में ही सहायता मिलती है और पतन की घड़ी तेजी से समीप आने के कारण बनने लगते हैं।

सुसंस्कारों के संग्रह होने में और भी अनेकों कारण हैं। सबसे बड़ा कारण माता द्वारा गर्भ काल में ही बालक को अपनी अन्तः स्थिति का दान और बड़े होने पर पत्नी द्वारा उसके अहम का उद्बोधन, शोधन और अभिवर्धन ही है। इन दोनों के द्वारा जितनी वास्तविकता के साथ यह व्यक्ति के अन्तःनिर्माण कार्य हो सकते हैं उतना अनेकों विश्वविद्यालय मिल कर भी नहीं कर सकते। अपार सम्पत्ति का स्वामी होकर भी विपुल कीर्ति और सत्ता का अधिकारी होकर भी मनुष्य इतनी शाँति और प्रसन्नता प्राप्त नहीं कर सकता जितनी कि नारी अपनी अन्तरात्मा को निचोड़ कर नर को मिलाने की प्रक्रिया में प्रदान कर देती है। माता केवल दूध ही नहीं पिलाती स्नेह भरा वात्सल्य भी पिलाती है साथ ही अगणित सुसंस्कार भी। इसी प्रकार पत्नी केवल वासना की तृप्ति ही नहीं करती वरन् अंतर की अनेकों उत्तेजनाएं, अशांतियों और अव्यवस्थाओं का भी शमन कर देती है, वह माता की तरह भले ही दूध न पिलाती हो पर दृश्य रूप से जो कुछ पिलाती है वह अंतः तृप्ति के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है।

हमारे समाज की नारी आज जिस हीन दशा में पड़ी है उसमें तो पाक-विज्ञान, शिशु पालन, गृह व्यवस्था, परस्पर, शिष्टाचार सम्बंध, आरोग्य ज्ञान, हिसाब किताब, सामान्य ज्ञान, जैसी गृहस्थोपयोगी मामूली बातों की भी आशा नहीं की जा सकती, उसके यह साधारण कार्य भी भोंड़े, त्रुटिपूर्ण और अस्त-व्यस्त पड़े रहते हैं फिर उन सुसंस्कारों की आशा कैसे की जाय जो वे अपने तक ही सीमित न रखकर अपने पति और पुत्रों को प्रदान कर सकती हैं।

नारी को अविकसित और पद दलित रखकर पिछली शताब्दियों में अपने पाशविक अहंकार की पूर्ति की है। मैं समर्थ हूँ, मेरे पुरुषार्थ पर ही नारी जीवित रहे, इस अहंभाव से प्रेरित होकर उसने नारी को एक कोने में बिठा दिया पर्दे में रखा, घरों की चहार दीवारी में कैद किया और घर में या घर से बाहर निकल कर कुछ भी न करने की व्यवस्था बना दी। उसका अहंकार फूला न समाया। मैं कितना समर्थ हूँ कि एक नारी की स्वाभाविक क्षमता की पूर्ति भी अपने ही द्वारा कर सकता हूँ। इसे उसने अपना बड़प्पन माना और गर्व भी अनुभव किया। इस व्यर्थ के अहंकार में पुरुष का तो कुछ लाभ हुआ नहीं, नारी की सारी क्षमताएं कुँठित हो गईं वह सभी दृष्टियों से लुँज पुँज बन गई। ऐसी दीन स्थिति में पड़ी हुई गृहिणी जिसने अपने मानसिक संस्थान को शिक्षा और अनुभव के रहित परिस्थितियों में पड़े रहकर सब प्रकार दुर्बल बना लिया है, पुरुष के लिए अपने परिवार के लिए, स्वयं अपने लिए उपयोगी भी क्या हो सकती है। वह एक बोझे की तरह लदी रहती है और दुर्भाग्यवश बीच धारा में ही नाव डूबी, पति का विछोह हुआ तो स्वयं की अयोग्यता, आजीविका के अभाव और कुटुम्बियों के अपमानजनक संकीर्ण व्यवहार के कारण उसे कितनी व्यथा के साथ शेष जीवन पूरा करना पड़ता है ऐसी प्रत्यक्ष देखी अगणित घटनाओं की यदि कुछ भी चर्चा की जाय तो सहृदय पाठकों का हृदय द्रवित हुए बिना न रहेगा। इस दुर्दशा में पुरुष का वह अहंकार ही कारण है जिसने नारी को पिंजड़े के पक्षी की तरह कैद करके अपने मनोरंजन का साधन तो बनाया पर उस बेचारी को उड़ने की शक्ति से वंचित कर दिया।

नारी को ‘गृह लक्ष्मी’ बताया गया है। मान्यता है कि जहाँ लक्ष्मी का पदार्पण होता है वहाँ सुख सम्पदा की कमी नहीं रहती। नारी लक्ष्मी का साक्षात जीता स्वरूप है। सुविकसित, सुशिक्षित, सुसंस्कृत नारी अपने पति के लिए, सन्तान के लिए, परिवार के लिये स्वयं अपने लिए एक वरदान है।’ शरीर का निर्माण बढ़िया आहार-बिहार से हो सकता है पर मनोभूमि का विकास जिस पर सर्वतोन्मुखी उन्नति अवलम्बित है, आदर्श नारी के समुचित सहयोग के बिना सम्भव नहीं। इस कार्य को अध्यापक और उपदेशक भी नहीं कर सकते क्योंकि माता के गर्भ से ही जो बालक रुचिपूर्ण आदतें और दुर्गुण लेकर पैदा हुआ है इसमें एक सामान्य सी सीमा तक ही बाह्य प्रयत्नों द्वारा सुधार सम्भव है।

समाज को सुखी और सम्पन्न बनाने के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यवसाय और राजनैतिक प्रयत्न हो रहे हैं। यह उचित भी है और सराहनीय भी। पर यदि समाज का आधा भाग ही उससे लाभान्वित हो तो यही मानना पड़ेगा कि यह एक बाँह की कमीज एक टाँग का पाजामा पहनने जैसा उपहासास्पद कार्य होगा। इसे व्यवस्थित प्रगति नहीं कहा जायेगा। समाज को सुविकसित और सच्चे अर्थों में समृद्ध बनाने के लिए नारी की उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा। उसकी भी मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक एवं साँस्कृतिक उन्नति के साधन उसी प्रकार जुटाने पड़ेंगे जैसे पुरुष वर्ग की उन्नति के लिए जुटाये जा रहे हैं।

सामाजिक और पारिवारिक जीवन की सुव्यवस्था विकसित नारी के ही द्वारा सम्भव है। इतना ही नहीं मनुष्य का मनःक्षेत्र जो समस्त प्रकार की प्रगति, समृद्धि एवं शक्ति का केन्द्र है। नारी के सहयोग पर ही प्रफुल्लित और प्रस्फुट हो सकेगा। अपने भाग्य निर्माण की, भविष्य निर्माण की इन मंगलमयी घड़ियों में हमें इधर भी ध्यान देना होगा। इस अनिवार्य आवश्यकता की उपेक्षा से जितनी जल्दी विमुख हो सकना सम्भव हो, उतना उत्तम है।


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