गायत्री की सहस्र शक्तियाँ

October 1960

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विश्व व्यापी चेतन महाशक्तियों में गायत्री का स्थान सर्वोपरि है। ईश्वर की अनेक शक्तियाँ हैं जो स्थूल जगत के विभिन्न पदार्थों के उत्पादन-विकास और विनाश के कार्य का सम्पादन करती हैं तथा प्राणियों के मनःक्षेत्र में प्रवेश करके उन्हें प्रेरणा, अभिरुचि एवं प्रवृत्ति के लिए अग्रसर करती हैं। इन्हीं शक्तियों को देवता कहते हैं। वैज्ञानिक लोग इनमें से कुछ स्थूल शक्तियों को यंत्रों के द्वारा वशवर्ती करके आवश्यक लाभ उठाते हैं। पर सूक्ष्म चेतन शक्तियाँ यंत्रों की पकड़ में नहीं आतीं। उन्हें भावना के प्रयोग के माध्यम से पकड़ा जाता है।

इस भावना प्रयोग का भी एक महत्वपूर्ण विज्ञान है जिसे आध्यात्म विज्ञान कहते हैं। पदार्थ विज्ञान की तरह, भौतिक साइंस की तरह यह भी एक उच्च कोटि की साइन्स है जिसके द्वारा मनुष्य अपने अंतर्जगत का मनचाहा विकास कर सकता है। मस्तिष्क की शक्तियों का, मनोबल का विकास मनुष्य जीवन में कितना उपयोगी है, यह किसी से छिपा नहीं है। इन्हीं बलों के आधार पर मनुष्य कितनी उन्नति, कीर्ति और सम्पत्ति का अधिकारी बनता है इसके अनेकों उदाहरण हम नित्य देखते हैं। इनसे भी ऊंचा और सूक्ष्म आत्मबल है। इसके द्वारा जो उन्नति होती है उसका मूल्याँकन हो सकना भी कठिन है।

जैसे गड्ढे में भरा हुआ थोड़ा सा जल उस अखिल विश्वव्यापी जल तत्व का एक लघु अंश है, उसी प्रकार मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क तथा अन्तराल में निवास करने वाली अगणित महत्वपूर्ण शक्तियाँ भी उस अखिल विश्वव्यापी चेतना भण्डार की नहीं सी किरणें मात्र हैं। जैसे किसी विपुल जलशाली नदी से संबद्ध हो जाने पर किसी तालाब का पानी कभी सूखता नहीं, नदी का प्रवाह उसकी गहराई को सदा भरपूर ही रखता है, उसी प्रकार अखिल विश्वव्यापी चेतना शक्ति भाण्डागार से कोई आत्मा अपना सम्बंध बना लेती है तो वह शक्ति उस आत्मा में उतनी ही अपनी अनुकम्पा भरती रहती है जितनी धारण करने की उसमें क्षमता होती है।

गायत्री उस विश्वव्यापी चेतना शक्ति भण्डार का एक उच्चस्तरीय प्रवाह है। उस प्रवाह के साथ जिन व्यक्तियों ने अपने आपको जोड़ लिया वे अपनी पात्रता के अनुसार अभीष्ट तत्व प्राप्त कर लेते हैं। लघु आत्मा अपनी छोटी सी चेतना में विभु परमात्मा की महान चेतना शक्ति का प्रवाह अपने अन्दर धारण करने का जो प्रयत्न करती है उसे उपासना कहते हैं। उपासना कोई भावुकता, काल्पनिकता या भ्रान्ति नहीं है वरन् एक सुनिश्चित वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिस के आधार पर अतीत काल में बहुत से उपासक बहुत कुछ प्राप्त कर चुके हैं और अब भी बहुत कुछ प्राप्त कर रहे हैं।

विश्वव्यापी ईश्वरीय चेतना शक्ति प्रवाह गायत्री से सम्बंध स्थापित करके मनुष्य कितने प्रकार के लाभ प्राप्त कर सकता है? इसकी सही गणना कर सकना तो कठिन है पर प्राचीनकाल के तत्वदर्शियों ने उनकी एक अनुमानित सीमा एक सहस्र मानी है। जिस प्रकार किसी जड़ी बूटी का वैज्ञानिक विश्लेषण करके उसके भीतर पाये जाने वाले पदार्थों, क्षारों, विटामिनों तथा गुणों की व्याख्या की जाती है उसी प्रकार गायत्री महाशक्ति का विश्लेषण भी प्राचीन काल के अज्ञात तत्ववेत्ता लोगों ने किया है और निरूपण को ‘गायत्री सहस्रनाम’ नाम से प्रस्तुत किया है।

गायत्री सहस्रनाम का महत्व पाठ उपासना की दृष्टि से तो है ही पर उसमें लिखे हुए गायत्री के एक हजार नाम केवल नाममात्र ही नहीं है, वरन् प्रत्येक नाम में गायत्री तत्व में सन्निहित तत्वों, तथ्यों, गुणों, प्रभावों और विशेषताओं का विश्लेषण है। उन एक हजार में से प्रत्येक नाम पर यदि हम ध्यान दें तो यह पता चलेगा कि गायत्री की कितनी बड़ी महत्ता है और उसके अंतर्गत तथ्यों का उपयोग हम अपनी किन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कर सकते हैं।

गायत्री के उन सहस्र नामों में से कुछ नामों का विश्लेषण उपस्थित किया जाता है-

अचिन्त्य लक्षणा

यह प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया गया है कि गायत्री के सम्पूर्ण लक्षणों, गुणों का वर्णन और विश्लेषण मानव की स्वल्प बुद्धि द्वारा सम्भव नहीं। उसकी गरिमा अत्यधिक विस्तृत एवं व्यापक है। अपने प्रयत्न और अनुभवों से मनुष्य ने गायत्री के 1 सहस्र गुणों का पता लगाया है। इसका अर्थ यह नहीं कि गायत्री इतनी ही सीमित है। इनसे अधिक और कुछ कार्य उसकी शक्ति से नहीं हो सकता। ऐसी बात नहीं है। चेतना जगत में जो कुछ भी हलचलें होती हैं उन सब का सम्बंध गायत्री महाशक्ति से है और उन सब पर उस महाशक्ति के माध्यम से नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है। गायत्री की सर्वांगीण सम्भावनाएं अत्यधिक हैं, इतनी अधिक कि उन सबका पता लगाना तो दूर ठीक प्रकार चिन्तन कर सकना भी कठिन है। अब तक जिन एक सहस्र प्रमुख गुणों का पता इस विद्या के वैज्ञानिकों ने लगाया है केवल उन्हीं का उल्लेख गायत्री सहस्र नाम से हुआ है।

अव्यक्ता

यों उपासना की अनिवार्य आवश्यकता के रूप में अन्य सभी साधनाओं की भाँति गायत्री का भी नाम और रूप व्यक्त करना पड़ा है। उच्चारण की दृष्टि से 24 अक्षरों में उसे स्वरबद्ध किया गया है और ध्यान का एकमात्र आधार रूप भी प्रस्तुत करके गायत्री माता की छवि में अंकित किया गया है पर यह ध्यान करना चाहिए कि यह नाम रूप पर आधारित माता का विग्रह केवल उपासना की अनिवार्य आवश्यकता के लिए ही है। वस्तुतः गायत्री मनुष्यों के समान शरीरधारी नहीं है वरन् वह अव्यक्त व्यापक शक्ति प्रवाह के रूप में उसी प्रकार फैली हुई है जैसे गर्मी, सर्दी विद्युत, ईथर आदि सूक्ष्म एवं अदृश्य रूप से सर्वत्र फैले रहते हैं। इस दृष्टि से उसे निराकार भी कहा जा सकता है।

अमृतार्णव मध्स्थला

अमृत के समुद्र में रहने वाली गायत्री है। मस्तिष्क के मध्य में जो सहस्रार कमल है, उसके मध्य में मधु-कोष या अमृत घट माना गया है। खेचरी क्रिया करते समय जब जिह्वा को उलट कर तालु के मूल में लगाते हैं तो इसी मधु कोष से अमृत की बूँद झरने ओर उसका रसास्वादन होने का अनुभव साधक को होता है। इस सहस्रार कमल पर ही विष्णु भगवान की शैय्या है। इसी को सहस्र फन वाला शेषनाग कहते हैं। इसका मध्य बिंदु जो अमृत कोष है, उसी में गायत्री शक्ति का मूल निवास है। शिवजी ने गंगा को जिस प्रकार मस्तिष्क के मध्य भाग में धारण किया हुआ है, इसी प्रकार प्रत्येक साधक उस विश्वव्यापी गायत्री शक्ति को सर्वप्रथम इस अमृतार्णव में उपस्थित चुम्बक केन्द्र में ही धारण करता है। फिर वह शरीर मस्तिष्क के विभिन्न भागों में तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विस्तृत होती है।

व्यापक बाह्य जगत में प्रकृति का मध्य बिन्दु अमृतार्णव माना गया है। सब प्रकार के आनन्दों की किरणें इसी केन्द्र से उद्भूत होकर प्राणियों को नाना प्रकार के आनन्दों एवं उल्लासों का रसास्वादन कराती हैं। इस अमृतार्णव केन्द्र का जो रसोद्धव है, इसी गायत्री का निवास बताया गया है। इस प्रकार वह सब प्रकार के आनन्दों की मूल जननी मानी गई है।

अजिता

अर्थात्- जिसे कोई जीत न सके। गायत्री के टक्कर की और कोई शक्ति नहीं है जो उससे प्रतिद्वंदिता में ठहर सके या उससे अधिक बड़ी सिद्ध होकर उसे परास्त कर सके वशिष्ठ और विश्वामित्र का उपाख्यान प्रसिद्ध ही है कि गायत्री गौ के प्रताप से वशिष्ठजी ने राजा विश्वामित्र की विशाल सेना को भी भोजन से ही तृप्त नहीं किया था वरन् युद्ध होने पर उस गौ गायत्री ने ही उस सेना को परास्त कर दिया था। दूसरे शक्ति की उपासना से आश्चर्यचकित होकर विश्वामित्र ने राजपाट छोड़कर तप द्वारा गायत्री को सिद्ध करके विश्व का सर्वोपरि बल उपलब्ध करने का प्रयत्न किया और उसी की सिद्धि से वे एक अलग दुनिया की स्वतंत्र रचना करने तक में सफल हुए। अकेले विश्वामित्र ही नहीं, जिसने भी गायत्री का प्रत्यक्ष किया है उन्होंने उसे सर्वोपरि एवं अजिता ही पाया है।

अपराजिता

वह किसी से भी पराजित नहीं होता। संसार का कोई बड़े से बड़ा असुर, पाप, संकट, विघ्न या मनुष्य ऐसा नहीं है जो गायत्री को चुनौती दे सके, उससे अधिक प्रबल सिद्ध हो सके, उसे पराजित कर सके। उचित रूप से साधना की हुई गायत्री संकटों को भी पछाड़ती परास्त करती है, स्वयं कभी पराजित या परास्त नहीं होती।

अणिमा दिगुणाधार

अणिमा, लघिमा, महिमा आदि जो ऋद्धि सिद्धियाँ हैं उन चमत्कारी मानवी गुणों या विशेषताओं का मूल आधार गायत्री ही है। अष्ट सिद्धि, नव निद्धि जिन्हें उपलब्ध करके मनुष्य प्रकृति के विभिन्न क्षेत्रों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेता है और उनका इच्छित उपयोग करके देवताओं जैसे बल एवं ऐश्वर्य का अधिकारी बनता है। वे ऋषि सिद्धियाँ गायत्री शक्ति पर ही आधारित हैं। सिद्धि साधना के मार्ग पर चलने वाले योगियों का अनादिकाल में एकमात्र आधार ‘गायत्री’ ही रही है। अन्य साधनाओं द्वारा अस्थायी एवं हलकी सी ही सफलता किसी साधक को भले मिली हो पर चिरस्थायी और सर्वांगपूर्ण सिद्धियाँ तो केवल गायत्री के द्वारा ही संभव हुई हैं और हो सकती हैं।

अर्क मण्डल संस्थिता

अर्क अर्थात् सूर्य के मण्डल में बैठी हुई गायत्री का ही ध्यान पूजन किया जाता है। चित्रों में गायत्री माता को सूर्य मण्डल के बीच विराजमान ही चित्रित किया गया है। इस दृश्य सूर्य को प्राणतत्व का केन्द्र माना गया है। उससे केवल उष्णता या प्रकाश ही उपलब्ध नहीं होता वरन् वह समस्त संसार को प्राण भी देता है। प्राणियों में जो जीवन दिखाई देता है वह सूर्य से ही उद्भूत होता है। यदि सूर्य न हो तो इस पृथ्वी पर एक भी जीवित प्राणी दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। सूर्य मण्डल में जो प्राणशक्ति के रूप में विराजमान है वह गायत्री ही है। गायत्री शब्द का भी यही अर्थ है। गय-कहते हैं प्राण को और त्र- कहते हैं त्राण को। प्राणों का त्राण करने वाली जो शक्ति सूर्य मण्डल के माध्यम से इस पृथ्वी पर आती है वह गायत्री है। प्रकाश और उष्णता ज्ञान और पुरुषार्थ भी उसी के दो सहायक तत्व हैं।

अजरा

जो कभी वृद्ध नहीं होती, जिसकी शक्ति कभी क्षीण नहीं होती, जो सदा तरुण एवं प्रचण्ड ही रहती है। प्रकृति के नियमानुसार सभी वस्तुएं कालान्तर में दुर्बल हो जाती हैं और नष्ट होकर उनका पुनर्निर्माण होता है। प्रलय होने से पूर्व पंच तत्व तथा उनकी तन्मात्राएं इतनी दुर्बल हो जाती हैं कि सृष्टि का कार्य साधारण रीति से चलना कठिन हो जाता है। टूटी मशीनों की भाँति, बूढ़े की भाँति सृष्टि की व्यवस्था में आये दिन गड़बड़ी होती रहती है अन्ततः उनको बिगाड़ कर पुनर्निर्माण की आवश्यकता पड़ती है और प्रलय उपस्थित हो जाती है। किन्तु नव निर्माण होने पर हर तत्व नया होने और शक्ति में पूर्णता होने के कारण सतयुग में सारे काम विधिवत चलते हैं विकृतियाँ तो जैसे-जैसे वह सब पुराने होते जाते हैं, दुर्बल पड़ते जाते हैं तब बाद के युगों में होना आरंभ होती है। जो नियम सृष्टि की अन्य सब स्थूल सूक्ष्म वसुन्धरा पर लागू होता है पर गायत्री पर लागू नहीं होता। वह काल से प्रभावित नहीं होती उसमें कभी शिथिलता या जरावस्था का विकार नहीं आता।

अजा

उसका कभी जन्म नहीं होता। परमात्मा की अभिन्न सत्ता होने के कारण वह भी परमात्मा के समान ही अजन्मा है। उसका कोई आरम्भ काल नहीं जिस प्रकार सूर्य में उष्णता ओतप्रोत है उसी प्रकार ब्रह्म में जो चेतना समाई हुई है उसे गायत्री कहते हैं। साक्षी, दृष्टा, निर्विकार ब्रह्म में जो सक्रियता, विधि व्यवस्था, भावना, आकाँक्षा दिखाई देती है सत के साथ जो चित् और आनन्द जुड़ा हुआ है उसका कारण गायत्री महाशक्ति को ही समझना चाहिए । वह जन्मने व मरने वाली साधारण वस्तु नहीं है।

अकारादिज्ञकारान्ता

‘अ’ से लेकर ज्ञ अक्षरों तक ही जो वर्णमाला है। वह स्वर यंत्र से लेकर नाभि स्थान तक अवस्थित सूक्ष्म उपत्यिकाओं में से निरन्तर निकलती रहने वाली ध्वनियों के आधार पर विनिर्मित हुई है। इन 54 ध्वनियों को कंठ से नाभि तक स्थित इन उपत्यिकाओं को सन्निहित अनेक सद्गुणों के एक सत्प्रवृत्तियों का बीज मंत्र समझना चाहिए। देवनागरी लिपि के स्वर व्यंजनों की बनी वर्णमाला भी एक प्रकार की मंत्र साधना है। इस वर्णमाला को बालक जब बार-बार पढ़ते हैं तो उनकी इन अक्षरों से सम्बंधित देव शक्तियाँ जाग्रत होती हैं। इसीलिए इसे देवनागरी लिपि कहते हैं। इस वर्णमाला के 54 अक्षरों के लिए एक बार कण्ठ से नाभि तक आने और दूसरी बार नाभि से कण्ठ तक लौटने में 54+54=108 की संख्या हो जाती है। माला में 108 दाने होने का भी यही रहस्य है। देवनागरी वर्णमाला से सम्बोधित सभी 54 शक्तियाँ गायत्री स्वरूप हैं। इसलिये गायत्री को ‘अकारादिज्ञ कारान्ता’ माना गया है।

अरिषड़वर्ग भेदिनी

1. काय 2. क्रोध 3. लोभ 4. मोह 5. मद 6. मत्सर यह छः वास्तविक शत्रु माने गये हैं। साँसारिक शत्रु तो कुछ देर के लिए थोड़ी आर्थिक या शारीरिक हानि ही पहुँचा सकते हैं पर यह आन्तरिक शत्रु दिन-रात साथ रहने के कारण लोक और परलोक दोनों को ही नष्ट कर डालते हैं। अन्तःकरण की शान्ति, सदाशयता, सद्भाव, सद्वृत्तियां सभी कुछ इन शत्रुओं द्वारा तहस-नहस करके उनके स्थान पर भय, रोग, शोक, चिन्ता, द्वेष, क्लेश, कुढ़न, असन्तोष तथा नाना प्रकार की उलझनें दुर्गुण एवं कुसंस्कार उत्पन्न हो जाते हैं। उनका परिणाम पतन एवं नरक ही होता है। गायत्री शक्ति का आविर्भाव अन्तःकरण में होने से यह छहों आन्तरिक शत्रु दुर्बल होने लगते हैं और धीरे-धीरे वे समाप्त होते चले जाते हैं। साँसारिक शत्रुओं का भी मुकाबला जिस प्रकार कानून, दृढ़ता, चतुरता संगठन तथा शस्त्रों की सहायता से रोग का निवारण चिकित्सा से किया जाता है उसी प्रकार षडरिपुओं के भेदन के लिये गायत्री राम बाण है।

असुरघ्नी

असुरों की असुरता को नाश करने वाली है। किसी की दुष्टता को नष्ट करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उस दुष्ट व्यक्ति को मार ही डाला जाय। रोग निवारण के लिये ऐसा नहीं किया जाता कि रोग के साथ रोगी को भी नष्ट किया जाय। गायत्री उपासना से अंतःकरण की दुष्टता-सज्जनता में परिणित होने लगती है और जिस प्रकार अजामिल आदि अनेकों पापी भगवान की शरण में आ कर साधु सज्जन बन गए। उसी प्रकार गायत्री की प्रकाश किरणें जिन अन्तःकरणों पर पड़ती हैं उनके भीतर काम करने वाली असुरता की मात्रा घटनी आरंभ हो जाती है और वे सज्जन देवता बनने लगते हैं। इसके अतिरिक्त गायत्री अभिचार की ताँत्रिक प्रक्रिया में वह शक्ति भी है कि असुर को जड़मूल से भी नष्ट कर सके उसके कुकृत्य का समुचित दण्ड भी दे सके।

अलक्षमीघ्नी

अलक्ष्मी दरिद्रता को दूर करने वाली गायत्री है। दरिद्रता के मुख्य कारण प्रारब्ध पुण्यों की समाप्ति, आलस्य, अयोग्यता परिस्थितियों की प्रतिकूलता, साधनों की कमी सन्मित्रों का अभाव आदि है। गायत्री की उपासना से मनुष्य के स्वभाव में आवश्यक परिवर्तन तुरन्त ही आरंभ हो जाते हैं। उसके गुणों में, कार्यों में, स्वभाव में ऐसा हेर-फेर होता है कि प्रतिकूलताएं भी अनुकूलता में बदलने लगती हैं। आलस्य के स्थान पर उत्साह, योग्यता सम्पादन करने को तत्परता, परिस्थितियों को सुलझाने में योग्य सूझ-बूझ स्वभाव में स्नेह सौजन्य एवं माधुर्य बढ़ने से मित्रों की संख्या तथा उनके सहयोग की मात्रा में वृद्धि के साधन जुटने लगते हैं। मितव्ययिता का स्वभाव बनता है और जितना उपलब्ध है उतने से काम चलाने एवं सन्तुष्ट रहने की प्रवृत्ति विकसित होती है। दैवी अनुग्रह के आकस्मिक अवसर भी ऐसे मिलते हैं जिससे दरिद्रता जन्य दुखों से छुटकारा मिलता है। आमतौर से गायत्री उपासक सदा भरे पूरे ही रहते हैं। भूखा नंगा दीन दरिद्र उनमें से कोई बिरला ही मिलेगा।

आदिलक्ष्मी

जिस लक्ष्मी से हम सभी परिचित हैं वह रुपया पैसा, सोना, चाँदी, जमीन जायदाद आदि के रूप में देखी और समझी जाती है। यह स्थूल है, इसका महत्व भी मामूली सा ही है। इसे उलूक वाहिनी चंचला, माया आदि के अनेक नामों से भी सम्बोधित किया जाता है। यह नशे के समान मादक और अविवेक लोगों के लिए उनके अधिक दुर्गुणी होने का कारण भी मानी जाती है। इसलिये महापुरुष इसे त्याज्य भी बताते हैं, आत्मकल्याण के तीव्र आकांशी इसे त्याग देते हैं और साधारण लोगों को भी इसकी सीमित संचय करने एवं अपरिग्रही स्वभाव बनाने का आदेश है। पर आदि लक्ष्मी गायत्री उन 26 संपदाओं की जननी है जिनका वर्णन गीता के सोलहवें अध्याय के आरंभिक तीन श्लोकों में किया गया है। इन्हें प्राप्त करने वाला विपुल रत्न राशि के भण्डार का स्वामी बनने की अपेक्षा अधिक उन्नतिशील, सुखी तथा सन्तुष्ट देखा जाता है। दैवी सम्पदाएं जो आत्मा के लिए आध्यात्मिक रत्न जटित आभूषणों के समान शोभनीय हैं, गायत्री के द्वारा ही प्राप्त होती हैं।

आदिशक्ति

संसार में अगणित शक्तियाँ अपने-अपने क्षेत्रों में काम कर रही हैं और उनके अपने-अपने महत्व भी हैं पर इन शक्तियों का मूल उद्गम उस आदि शक्ति में है जिसे गायत्री कहा जाता है। सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्म के अन्तःकरण के रूप में यही प्रादुर्भूत हुई, पीछे सूर्य की सहस्रों किरणों के समान पानी के सहस्रों बुदबुदों के समान और भी अगणित शक्तियाँ आवश्यकतानुसार समय-समय पर उत्पन्न और विकसित होती गईं। जैसे विश्व का आदि मूल परमेश्वर है, जीवों का मूल उद्गम ब्रह्मा है उसी प्रकार विश्व की समस्त शक्तियों का उद्गम गायत्री है। इससे उसे आदि शक्ति कहा जाता है।

आदित्य परिसेविता

प्राण शक्ति के केन्द्र हमारे इस नव ग्रह वाले सूर्य के मध्य में प्राण केन्द्र गायत्री का उल्लेख पहले हो चुका है। विश्व ब्रह्मांड में ऐसे-ऐसे अगणित सूर्य हैं। जैसे हमारे सूर्य में प्राण शक्ति प्रधान है वैसे ही अन्य सूर्यों में अन्यान्य प्रकार के तत्व प्रधान हैं कुछ सूर्य ऐसे हैं जो प्राण नहीं वरन् रेडियो तरंग प्रवाह प्रस्फुटित करते हैं और उसी के माध्यम से आज मनुष्य विभिन्न ग्रहों से संपर्क स्थापित करने की कोशिश कर रहा है। ईश्वर से जितना रेडियो तरंग प्रवाह इस पृथ्वी पर है वह किन्हीं सूर्य से इसी प्रकार आ रहा है जैसे सूर्य में गर्मी और रोशनी आदि है। विभिन्न सूर्यों में ऐसे-ऐसे विभिन्न प्रकार के असंख्य शक्ति तत्व हैं उन सबके उद्भव तथा पोषण का केन्द्र वह महान सूर्य है जिसका संकेत गायत्री के प्रथम और द्वितीय शब्द ‘तत्सवितु’ में किया गया है। यह साधारण सूर्य नहीं गायत्री रूप वह सूर्य है जिससे ब्रह्माण्ड के समस्त सूर्य शक्ति प्राप्त करते हैं जो सभी आदित्यों द्वारा परिसेवित है।

आचार्य वर्तनाचारा

आचार्यों के बरतने योग्य आचार वाली व्यवस्था गायत्री में अभिप्रेत है। सर्वसाधारण को अपने विचारों और कार्यों को किस ढाँचे में ढालना चाहिए इसका विस्तृत विवेचन गायत्री गीता और गायत्री स्मृति विवेचन में हुआ है। इसे मानव जाति का सार्वभौम धर्मशास्त्र कह सकते हैं। इस विधि व्यवस्था का जो जितना पालन करता है वह उतने अंशों में धर्मात्मा एवं कर्त्तव्यपरायण कहा जा सकता है। जिसने अपने आचरण को, आचार विचार को, इसी व्यवस्था के ढाँचे में भली प्रकार ढाल लिया है- जिसने मानवता के सभी आवश्यक गुणों और कर्त्तव्यों को अपने व्यवहारिक जीवन में उतार लिया है वही ‘आचार्य’ कहलाता है। अमुक परीक्षा उत्तीर्ण या अमुक विद्यालय के संचालक को आज की व्यावहारिक भाषा में ‘आचार्य’ कहा जाता है परन्तु वस्तुतः आचार्य वही है जिसने गायत्री गीता एवं गायत्री स्मृति में बताये हुए आचरण को अपनाया है।


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