केवलाघो भवति केवलादी (kavita)

October 1960

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मोघमन्नं विंदते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि बध इतस तस्य

नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी। ऋ.10।1-17।6

भावानुवाद-

जग में कुछ जन भाँति-भाँति से, भरते निज भंडार।

अन्न-वस्त्र धन रजत हेम के संग्रह में ही सार-

समझ भोग सामग्री से नित, करते नवल विलास।

भोग सुखों में डूब मानते, अपना चरम विकास॥

पर एकाकी भोग भोगते, समझ न पाते आप॥

कौर और का छीन भोगना, कितना अनुचित पाप॥

इधर क्षुधातुर वस्त्रहीन जन, पाते हैं संताप।

उधर संग्रही भोगी जन का, बढ़ता जीवन माप॥

किंतु सत्य यह समझें सब, यह भोग नहीं दुर्भोग।

एकाकी अविवेकी भोक्ता, रहा पाप निज भोग॥

यह संचित सामान भोग का, सिर्फ रोग का हेतु।

मात्र स्वयं के पोषक जिनके, महानाश का केतु॥

बढ़े विपुल ऐश्वर्य बढ़ावें, जन-जन का सुख मान।

निज रक्षण-भक्षण में रक्खें अन्धों का भी ध्यान॥

ऋद्धि सिद्धि का, स्वर्ग सृष्टि का साधन है सहयोग।

सुधा समन्वित सदुपयोग से अर्जित है सहयोग॥

अविवेकी का संपत्ति पाना, संचित करना व्यर्थ।

जो न लगाना उसे यज्ञ के, परहित के कुछ अर्थ॥

संपत्ति नहीं विपत्ति वह उसकी, रही उसे ही भोग।

सुधी विमल संपद का करने, मिल जुलकर उपयोग॥

-यज्ञदत्त अक्षय

सम्पादकीय-


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