पर-आश्रित होना पाप है।

October 1960

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(डॉ. लक्ष्मीनारायण टंडन ‘प्रेमी’)

पर-आश्रित होने पर मनुष्य को अपना सम्मान खोना पड़ता है। वह दूसरों की दया पर निर्भर रहता है। अतः इससे उसकी मानसिक परतंत्रता प्रारंभ हो जाती है। यह सब से बुरी गुलामी होती है। दूसरों की दया, कृपा, पक्ष पाने के लिए उसे अपनी आत्मा के विरुद्ध जाना पड़ता है, अपनी आत्मा को दबाना पड़ता है। इससे इसका घोर पतन होता है। अपनी स्वतंत्र इच्छा, अपने स्वाभाविक। निर्णय अपनी बुद्धि तथा मन निर्देशन पर चलने की स्वतंत्रता छिन जाती है। उसमें साहस ही नहीं रहता कि वह अपने उपकार दाता की इच्छा के विरुद्ध जा सके। कितनी परवशता होती है, कितना अधःपतन।

यदि दान और कृपा वह ग्रहण करे जो अंधा, अपंग, निराश्रित, वृद्ध हो, तो वह अवश्य क्षम्य है। पर जो दान इसलिए लेता है कि वह दान लेने का अभ्यस्त हो गया है, जिसके मुँह में हराम का खून लग चुका है, वह बुरा है, अधम है। दान लेना बुरा तब होता है जब वह उदारतावश दिया जाय और पाने वाले से इसके बदले से कुछ मिलने की आशा न हो। जब कोई मनुष्य अपने परिश्रम से ऊंचा उठना चाहता है तो उसके शरीर, मन तथा आत्मा की उन्नति होती है। जो सदा दान पर रहना चाहता है उसके सोचने-विचारने की शक्ति क्षीण हो जाती है।

अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक ओलिवर गोल्ड स्मिथ ने लिखा है कि जब कोई मनुष्य हमेशा दूसरों की कृपा पर निर्भर रहता है तो उसका सारा संकल्प, भावना और क्रिया दान देने वाले से नियंत्रित होती है और कुछ दिनों में धीरे-धीरे उसकी मानसिक स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है।

एहसान का बोझ बड़ा भारी होता है। एहसान लेने वाली जिह्वा बन्द हो जाती है। ‘आप ही मर जायेगा अहसान का मारा हुआ’। जब हम एहसान से दब चुके हैं तो हमसे नैतिक अनैतिक सभी कार्य कराये जा सकते हैं। धूर्त लोग अपना मतलब साधने के लिये पहले अहसान के बोझ से ही उसकी आत्मा खरीद लेते हैं।

दान देने से हमारे ग्रंथों में बड़ी महिमा गाई है। पर दान सच्चा वही है जो दान के उपयुक्त पात्रों को दिया जाय और निस्वार्थ भाव से दिया जाय। गीता में भी दान के तीन भेद बताये हैं-सात्विक, राजसिक, तामसिक। केवल सात्विक दान ही धर्म है। ओलीवर गोल्ड स्मिथ ने कहा है अगर आदमी को उसी प्रकार की दलीलों और जोरदार भाषणों से यह शिक्षा दी जाती है कि हमें बाँधने वाले दानों का लेना घृणास्पद है, जिस दलील और जोर से दान देने की शिक्षा दी जाती है तो हम देखते हैं कि समाज का प्रत्येक आदमी अपने पद के कर्त्तव्यों को प्रसन्नतापूर्वक परिश्रम से पूरा करता है। न तो वह आशा के कारण अपने परिश्रम में ढिलाव करता, न निराशा के कारण दुखी और क्रुद्ध होता है।

कपड़ा जब तक निर्मल स्वच्छ होता है तब तक मनुष्य का प्रयत्न सतत यही रहता है कि उसमें दाग न लग पाये, वह मैला न हो जाय। पर जहाँ एक बार दाग लगा कि फिर मनुष्य कपड़े की निर्मलता स्वच्छता की ओर से लापरवाह हो जाता है। दान लेने वाले से मनोवैज्ञानिक ढंग से उसकी भावना का विश्लेषण कीजिये। अपनी परवशता पर वह झुँझलाता है कि उसने क्यों दान लेकर अपनी आत्मा की शाँति और मानसिक स्वतंत्रता खोई। वह भविष्य में दया, पक्ष, या दान न लेने का संकल्प करता है। पर उसकी आदत तो बिगड़ चुकी होती है। एकबार जिससे वह दान ले चुकता है, उससे दूसरी बार भी वह इन्कार नहीं कर सकता। मानसिक झुंझलाहट के अवसर पर दानी के प्रति कृतज्ञ भी हो जाता है और फिर वह अपने स्वतन्त्र होने का विचार ही छोड़ देता है। अपने को दानी का आश्रित समझ कर वह उसकी चापलूसी करता है और उस पर आश्रित रहने का आदि हो जाता है और इस प्रकार आदर और तिरस्कार सहता है। उसे मानसिक जेलखाने में बराबर घुलना पड़ता है। हर एक नया दान उसके पहले वाले बोझ को और भारी बना देता है। और फिर वह इस सीमा तक दब जाता है कि वह गुलामी का आदी हो जाता है और गुलामी को वह कोई बुरी चीज नहीं समझता।

अब वह एक को छोड़ कर दूसरे से दान लेना आरम्भ करता है और फिर दूसरे को छोड़ कर तीसरे से। बराबर दान लेने वाला आदमी आलसी हो जाता है और इस प्रकार वह समाज के लिए एक भार स्वरूप हो जाता है। ऐसे को दान देना बेकार है। जिसमें आत्म सम्मान नहीं है, वह क्या और नीचे गिरेंगे। वे तो गिरे हुए हैं ही। पर जिसमें तनिक भी आत्म सम्मान शेष है, नीचे तो वे गिरते हैं दान लेने से। दान लेना मनुष्य को निकम्मा बना देता है।

लूले-लँगड़े, अपाहिज आदि को दान दिया जाता है कर्तव्य की भावना से प्रेरित होकर। अतः देने तथा लेने वाले दोनों ही न्याय-स्तर पर हैं। अब उस कृपा, दया, सहायता या दान के विषय में सोचिये जो माता-पिता या गुरुजन अपनी सन्तानों या छोटों को देते हैं। यह दान न देना बुरा है न लेना। क्योंकि दान देने वाला इस आशा से देता है कि आगे चलकर सन्तान अपने माता-पिता का पालन करेगी। अतः ये दोनों ओर से दान न होकर कर्तव्य हुआ। दान बुरा वहाँ है जहाँ वह भिक्षा समझ कर दिया जाता है।

दान लेने वाला, पर आश्रित तो पाप का भागी है ही, जो दान देता है वह भी कम पापी नहीं है क्योंकि वह दान ग्रहण करने वाले को सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने की क्षमता या इच्छा से वंचित करता है। मातहत होना दूसरी बात है। अपने से बड़े, अपने अफसर पर निर्भर रहना निन्दनीय नहीं है क्योंकि हम अपने अफसर की आज्ञा का पालन करते हैं और उसके बदले में उससे कुछ रियायतें माँगते हैं।

दान देने वालों का भी पतन होता है केवल दान लेने वाले का ही नहीं होता। दान देने वाला सदा जी हुजूरों, चापलूसों से घिरा रहेगा। अतः वह वास्तव में क्या है? इसे वह कभी न समझ पावेगा। वह अपने को उस बड़प्पन का अधिकारी समझेगा जिसके योग्य वह नहीं है।

अतः दान लेना हमारे लिए शर्म की बात होनी चाहिए। जो दूसरों की भिक्षा प्राप्त करके जीवन में सुख और सफलता चाहते हैं उन्हें सिवाय कष्ट, निराशा, पश्चाताप और निरादर के और कुछ नहीं मिलता। अपनी मेहनत से कमाई रूखी रोटी भी दान के मालपुओं से अधिक उत्तम है।

अतः अपने पैरों पर स्वयं खड़े हो। दूसरों का मुँह न ताको। तुम मनुष्य हो, कुत्ते नहीं कि किसी ने दया करके एक टुकड़ा फेंक दिया और तुम दुम हिलाने लगे। तुम ईश्वर के महान पुत्र हो, तुम सर्व समर्थ हो, तुम क्षमतावान हो। तुम केवल अपने असीम बल को भूले हुए हो। अपने ऊपर भरोसा रखो, अपनी महानता को सोचो, अपने अज्ञान का परित्याग करो। शेर के पुत्र होकर तुम बकरियों की तरह क्यों मिमियाते हो। याद रखो भगवान् ने तुम्हें हाथ, पैर, बुद्धि सब दी। यदि परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं हैं और तुम्हें कभी दूसरे का आश्रय ग्रहण करने को बाध्य हो तो उससे जल्दी से जल्दी भागने का प्रयत्न करो, आत्म निर्भर बनो।


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