आचार्यजी की डायरी के कुछ पृष्ठ

October 1960

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(अज्ञातवास से प्रेषित)

[शेषाँश]

प्रकृति का रुद्राभिषेक

आज भोजवासा चट्टी पर आ पहुँचे। कल प्रातः गोमुख के लिए रवाना होना है। यहाँ यातायात नहीं है उत्तरकाशी और गंगोत्री के रास्ते में यात्री मिलते हैं, चट्टियों पर ठहरने वालों की भीड़ भी मिलती है पर यहाँ वैसा कुछ नहीं। आज कुल मिलाकर हम छः यात्री हैं। भोजन अपना-अपना सभी साथ लाये हैं, यों कहने को तो भोजवासा की चट्टी है, यहाँ धर्मशाला भी है पर नीचे की चट्टियों जैसी सुविधा यहाँ कहाँ है?

सामने वाले पर्वत पर दृष्टि डाली तो ऐसा लगा मानो हिमगिरि स्वयं अपने हाथों भगवान शंकर के ऊपर जल का अभिषेक करता हुआ पूजा कर रहा हो। दृश्य बड़ा ही अलौकिक था। बहुत ऊपर से एक पतली सी जलधारा नीचे गिर रही थी। नीचे प्रकृति के निर्मित बड़े शिवलिंग थे, धारा उन्हीं पर गिर रही थी। गिरते समय वह धारा छींटे-छींटे हो जाती थी सूर्य की किरणें उन छींटों पर पकड़कर उन्हें सात रंगों के इन्द्रधनुष जैसे बना देती थी। लगता था साक्षात शिव विराजमान हैं उनके शीश पर आकाश से गंगा गिर रही है और देवता सप्त रंग के पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। दृश्य इतना मोहक था कि देखते-देखते मन नहीं अघाता था। उस अलौकिक दृश्य को तब तक वैसा देखता ही रहा जब तक अंधेरे ने उसका पटाक्षेप नहीं कर दिया।

सौंदर्य आत्मा की एक प्यास है पर वह कृत्रिमता की कीचड़ में उपलब्ध होना कहाँ संभव है? इन वन पर्वतों के चित्र बनाकर लोग अपने घरों में टाँगते हैं और उसी से संतोष कर लेते हैं पर प्रकृति की गोदी में जो सौंदर्य का निर्झर बह रहा है उसकी ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता। यों इस सारे ही रास्ते सौंदर्य बिखरा पड़ा था, हिमालय को सौंदर्य का सागर कहते हैं, उसमें स्नान करने से आत्मा में अन्त प्रदेश में एक सिहरन सी उठती है। जी करता है इस अनन्त सौंदर्य राशि में अपने आप को खो क्यों न दिया जाय?

आज का दृश्य यों प्रकृति का एक चमत्कार ही था, पर अपनी भावना उसमें एक दिव्य झाँकी का आनन्द ही लेती रही, मानों साक्षात शिव के ही दर्शन हुए हों। इस आनन्द की अनुभूति में आज अन्तःकरण गदगद हुआ जा रहा है। काश, इस रसास्वादन को एक अंश में लिख सकना मेरे लिए संभव हुआ होता तो जो यहाँ नहीं हैं वे भी कितना सुख पाते और अपने भाग्य को सराहते।

मील के पत्थर

आज फिर वही कठिनाई सामने आ गई जो उत्तरकाशी से चलते हुए आरंभिक दो दिनों में आई थी। भटवाडी चट्टी तक के रास्ते को चौड़ा करने और सुधारने का काम चल रहा था इसलिए मील के पत्थर उन दो दिनों में नहीं मिले। रास्ते में कड़ी चढ़ाई उतराई और कठिन मंजिल थोड़ी ही देर में थका देती थी। घने जंगलों का प्राकृतिक सौंदर्य था तो बहुत भला, पर रोज-रोज चौबीसों घंटे वही देखते रहने से आरंभ में जो आकर्षण था वह घट रहा था। सुनसान में अकेली यात्रा भी अखरने ही वाली थी। जब कोलाहल में व्यस्त जीवन बिताने के लिए नीरव एकाँत भी कष्टदायक होता है। यह सूनापन और कठोर श्रम जब शरीर और मन को थकाने लगता तो एक ही जिज्ञासा उठती-आज कितनी मंजिल पार कर ली? कितनी अभी और शेष है?

थोड़ी-थोड़ी दूर चलकर सामने से आने वाले से पूछते अब अगली चट्टी कितनी दूर है? उसी से अन्दाज लगाते कि आज अभी कितना और चलना है। कुछ रास्तागीर घमंडी होते, जानकर भी उपेक्षा करते न बताते, कुछ को मालूम ही न था, कुछ अंदाज से बताते तो उसमें मीलों का अन्तर होता, इससे यह आशा कम ही रहती थी कि पूछने पर भी समाधानकारक उत्तर मिल ही जायेगा। यह एक बड़ी कमी थी, खासतौर से अकेले चलने वाले के लिए। सात-पाँच की भीड़ में हंसते बोलते आसानी से मंजिल कट जाती है पर अकेले के लिए तो उसे काटना काफी कठिन होता है। इस कठिनाई से मील के पत्थर कितना काम देते हैं उसका अनुभव भटवाडी चट्टी से लेकर गंगोत्री तक की यात्रा में किया। इस बीच में मील तो नहीं गढ़े थे पर पहाड़ों की दीवार पर सफेदी पोत कर लाल अक्षरों में 25-7 इस प्रकार के संकेत जहाँ-तहाँ लिख दिये थे। इसका अर्थ था धरासूँ से पच्चीस मील सात फलाँग आ गये। पिछली चट्टी पर कौन सा मील था, अगली चट्टी पर कौन सा मील पड़ेगा यह जानकारी नक्शे के आधार पर थी ही मंजिल का पता लगता रहता। इस सुनसान में यह मील फर्लांग के अक्षर बड़े सहायक थे, इन्हीं के सहारे रास्ता कटता था। एक फर्लांग गुजरने पर दूसरे की आशा लगती और वह आ जाती तो संतोष होता कि इतनी सफलता मिली अब इतना ही तो शेष रह गया?

आज फिर गंगोत्री से गोमुख के रास्ते में मील फर्लांग नहीं है तो फिर वैसी ही असुविधा हुई जैसी उत्तरकाशी से चलते समय आरंभिक दो दिनों में हुई थी। यह गंगोत्री से गोमुख का 18 मील का रास्ता बड़ी मुश्किल से कटा, एक तो यह था भी बड़ा दुर्भाग्य फिर उस पर भी मील फर्लांग जैसे साथी और मार्गदर्शकों का अभाव आज यह पंक्तियाँ लिखते समय यह परेशानी कुछ ज्यादा अखर रही है।

सोचता हूँ मील का पत्थर अपने आप में कितना तुच्छ है। उसकी कीमत, योग्यता, सामर्थ्य, विद्या, बुद्धि सभी उपहासास्पद है। पर वह अपने एक निश्चित और नियत कर्त्तव्य को लेकर यथास्थान जम गया है। हटने का सोचा तक नहीं। उसे एक छोटी सी बात मालूम है धरासूँ इतने मील इतने फर्लांग है। बस, केवल इतने से ज्ञान को लेकर वह उस सेवा के पथ पर अड़ गया है। उस पत्थर के टुकड़े की, नगण्य और तुच्छ की- यह निष्ठा अंततः कितनी उपयोगी सिद्ध हो रही है। मुझ जैसे अगणित पथिक उससे मार्ग दर्शन पाते हैं और अपनी परेशानी का समाधान करते हैं।

जब यह जरा सा पत्थर का टुकड़ा मार्ग दर्शन कर सकता है, जब मिट्टी का जरा सा एक दो पैसे मूल्य का दीपक प्रकाश देकर रात्रि के खतरों से दूसरों की जीवन रक्षा कर सकता है, तो क्या सेवाभावी मनुष्य को इसलिए चुप ही बैठना चाहिये कि उसकी विद्या कम है, बुद्धि कम, सामर्थ्य कम है, योग्यता कम है? कमी हर किसी में है। पर हममें से प्रत्येक अपने क्षेत्र में अपने से कम जानकारों में, क्या स्थिति के लोगों में बहुत कुछ कर सकता है। ‘अमुक योग्यता मिलती तो अमुक कार्य करता’ ऐसी शेखचिल्ली कल्पनाएं करते रहने की अपेक्षा क्या यह उचित नहीं कि अपनी जो योग्यता है उसी को लेकर अपने से पिछड़े हुए लोगों को आगे बढ़ाने का मार्ग दर्शन का काम कर दें। मील का पत्थर सिर्फ धरासूँ और गंगोत्री का अंतर मात्र जानता है, उतना ही बता सकता है पर उसकी उतनी सेवा भी क्या कम महत्व की है। उसके अभाव में उत्तरकाशी से भटवाडी तक परेशानी रही और कल गौमुख दर्शन का जो सौभाग्य मिलने वाला है उसकी सुखद कल्पना में उन पत्थरों का अभाव बुरी तरह खटक रहा है।

हममें से कितने ऐसे हैं जो मील के पत्थरों से अधिक जन सेवा कर सकते हैं। पर आत्मविश्वास, निष्ठा और जो कुछ है उसी को लेकर अपने उपयुक्त क्षेत्र में अड़ जाने की निष्ठा हो तभी तो हमारी उपयोगिता को सार्थक होने का अवसर मिले।

अपने और पराये

लगातार की यात्रा ने पैरों में छाले डाल दिये। आज ध्यानपूर्वक पैरों को देखा तो दोनों पैरों में कुल मिलाकर छोटे बड़े दस छाले निकले। कपड़े का नया जूता इसलिये पहना था कि कठिन रास्ते में मदद देगा पर उस भले मानस ने भी दो जगह काट खाया। इन छाले और जख्मों में से जो कच्चे थे वे सफेद और जिनमें पानी पड़ गया वहाँ वे पीले हो गये हैं। चलने में दर्द करते हैं और दुखते हैं। लगता है पैर अपने सफेद पीले दाँत निकाल कर चलने में लाचारी प्रकट कर रहे हैं।

मंजिल दूर है। गुरुपूर्णिमा तक हर हालत में नियत स्थान पर पहुँचना है। पैर अभी से दाँत दिखाएंगे तो कैसे बनेगी? लंगड़ा-लंगड़ा कर कल तो किसी प्रकार चल लिया गया, पर आज मुश्किल मालूम पड़ती है। दो तीन छाले जो फूट गये। जख्म बनते जा रहे हैं। बढ़ गये तो चलना कठिन हो जायेगा और न चला जा सका तो नियत समय पर लक्ष्य तक पहुँचना कैसे संभव होगा? इस चिन्ता ने आज दिन भर परेशान रखा।

नंगे पैर चलना और भी कठिन है। रास्ते भर ऐसी पथरीली कंकड़ियाँ बिछी हैं कि वे जहाँ पैर में गढ़ जाती हैं काँटे की तरह दर्द करती हैं। एक उपाय करना पड़ा। आधी धोती फाड़ कर दो टुकड़े किये गये और उन्हें पैरों से बाँध दिया गया। जूते उतार कर थैले में रख लिये। काम चल गया। धीरे-धीरे रास्ता कटने लगा।

एक ओर तो यह अपने पैर हैं जो आड़े वक्त में दाँत दिखाने लगे दूसरी ओर यह बाँस की लाठी है, जो बेचारी न जाने कहाँ जन्मी, कहाँ बड़ी हुई और कहाँ से साथ हो ली। यह सगे भाई जैसा काम दे रही है। जहाँ चढ़ाई आती है तीसरे पैर का काम करती है। जैसे बूढ़े बीमार को कोई सहृदय कुटुम्बी अपने कंधे का सहारा देकर आगे ले चलता है वैसे ही थकान से जब शरीर चूर-चूर होता है तब यह लाठी सगे संबंधी जैसा ही सहारा देती है।

गंगनानी चट्टी से आगे जहाँ वर्षा के कारण बुरी तरह फिसलन हो रही थी। एक ओर पहाड़ दूसरी ओर गंगा का तंग रास्ता उस कठिन समय में इस लाठी ने ही कदम-कदम पर जीवन मृत्यु की पहेली को सुलझाया। उसने भी यदि जूतों की तरह साथ छोड़ दिया होता तो कौन जाने आज यह पंक्तियाँ लिखने वाली कलम और उंगलियों का कहीं पता भी होता।

बड़ी आशा के साथ लिए हुए जूते ने काट खाया। जिन पैरों पर बहुत भरोसा था उसने भी दाँत दिखा दिए। पर वे पैसे की लाठी इतनी काम आई कि कृतज्ञता से इसका गुणानुवाद गाते रहने को ही जी चाहता है।

अपनों से आशा थी पर उसने साथ नहीं दिया। इस पर झुँझलाहट आ रही थी कि दूसरे ही क्षण पराई लगने वाली लाठी की वफादारी याद आ गई। चेहरा प्रसन्नता से खिल गया। जिसने अड़चन पैदा की उनकी बजाय उन्हीं का स्मरण क्यों न करूं जिसकी उदारता और सहायता के बल पर यहाँ तक आ पहुँचा हूँ। अपने पराये को क्या सोचूँ? उस ईश्वर की दृष्टि से सभी अपने सभी पराये हैं।

स्वल्प से संतोष

आज रास्ते भर पहाड़ी जनता के कष्टसाध्य जीवन को अधिक ध्यान से देखता आया और अधिक विचार करता रहा। जहाँ पहाड़ों में थोड़ी-थोड़ी चार-चार, छः-छः हाथ जमीन भी काम की मिली है। वहाँ उतने ही छोटे-छोटे खेत बना लिए हैं। बैलों की गुजर वहाँ-कहा? कुदाली से ही मिट्टी को खोद कर जुताई की आवश्यकता पूरी कर लेते हैं। जब फसल पकती है तो पीठ पर लाद कर इतनी ऊंचाई पर बसे हुए अपने घरों में पहुँचते है और वहीं उसे कूट-पीट कर अन्न निकालते हैं। जहाँ झरने का पानी नहीं वहाँ बहुत नीचे गहराई तक को पानी सिर और पीठ पर लाद कर ले जाते हैं। पुरुष तो नहीं जहाँ-तहाँ दीखता है सारा कृषि कार्य स्त्रियाँ ही करती हैं। ऊंचे पहाड़ों पर से घास और लकड़ी काट कर लाने का काम भी वे ही करती हैं।

जितनी यात्रा करके हम थक जाते हैं उससे कहीं अधिक चढ़ने उतरने और चलने का काम इन्हें करना पड़ता है। कोई मनोरंजन के साधन भी नहीं। कहीं हाथ से कती ऊन के बने कहीं सूती फटे-टूटे कपड़ों में ढके थे फिर भी वे सब बहुत प्रसन्न दीखते थे। खेतों पर काम करती हुई स्त्रियाँ मिलकर गीत गाती थीं। उनकी भाषा न समझने के कारण उन गीतों का अर्थ तो समझ में न आता था पर उल्लास और संतोष जो उनमें से टपका पड़ता है उसे समझने में कुछ भी कठिनाई नहीं हुई।

सोचता हूँ अपने नीचे के प्रान्तों के लोगों के पास यहाँ के निवासियों की तुलना में धन, सम्पत्ति, शिक्षा, साधन, सुविधा, भोजन, मकान सभी कुछ अनेक गुना अधिक है। उन्हें श्रम भी काफी कम करना पड़ता है फिर भी लोग अपने को दुखी और असंतुष्ट ही अनुभव करते हैं, हर घड़ी रोना ही रोते रहते हैं। दूसरी ओर यह लोग हैं कि अत्यधिक कठिन जीवन बिता के जो निर्वाह योग्य सामग्री प्राप्त हो जाती है उससे काम चला लेते हैं और संतुष्ट रहकर शाँति का जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसा यह अन्तर क्यों है?

लगता है-असंतोष एक प्रवृत्ति है जो साधनों से नहीं तृष्णा से संबंधित है। साधनों से तृष्णा तृप्त नहीं होती वरन् सुरसा के मुँह की तरह और अधिक बढ़ती है। यदि ऐसा न होता तो इस पहाड़ी जनता की अपेक्षा अनेक गुने सुख साधन रखने वाले असंतुष्ट क्यों रहते? और स्वल्प साधनों के होते हुए भी यह पहाड़ी लोग गाते बजाते हर्षोल्लास में जीवन क्यों बिताते?

अधिक साधन हों सो ठीक है। उनकी जरूरत भी है, पर वे जितने मिल सकें उतने से प्रसन्न रहने और परिस्थिति के अनुसार अधिक प्राप्त करने का प्रयत्न करने की नीति को क्यों त्यागा जाय? और क्यों अशाँत और असंतुष्ट रहकर उपलब्ध ईश्वरीय उपहार का तिरस्कार किया जाय?

सभ्यता की अंधी दौड़ में अधिक खर्च और अधिक असन्तुष्ट रहने का जो रास्ता हमने अपनाया है, वह सही नहीं है। इस तथ्य का प्रतिपादन यह पहाड़ी जनता करती है भले वह इस विषय पर भाषण न दे सके, भले ही वह इस आदर्श पर निबंध न लिख सके।

गर्जन-तर्जन करती भैरों घाटी

आज भैरों घाटी पार की। तिब्बत से व्यापार करने के लिए नैलंग घाटी का रास्ता यहीं से है। हर्षिल के जाड़ और खापा व्यापारी इसी रास्ते तिब्बत के लिए माल बेचने ले जाते हैं और बदले में उधर से ऊन आदि लाते हैं। चढ़ाई बहुत कड़ी होने के कारण थोड़ी-थोड़ी दूर चलने पर ही साँस फूलने लगता था और बार-बार बैठने एवं सुस्ताने की आवश्यकता अनुभव होती थी।

पहाड़ की चट्टान के नीचे बैठा सुस्ता रहा था। नीचे गंगा इतने जोर से गर्जन कर रही थी जितनी रास्ते भर में अन्यत्र नहीं सुना। पानी के छींटे उछल कर तीस चालीस फुट तक ऊंचे आ रहे थे। इतना गर्जन तर्जन, इतना जोश, इतना तीव्र प्रवाह यहाँ क्यों है, यह जानने की उत्सुकता बढ़ी और ध्यानपूर्वक नीचे झाँककर देखा तथा दूर-दूर तक दृष्टि दौड़ाई।

दिखाई दिया कि यहाँ गंगा दोनों ओर सटे पहाड़ों के बीच बहुत छोटी सी चौड़ाई में होकर गुजरती है। यह चौड़ाई मुश्किल से पन्द्रह-बीस फुट होगी। इतनी बड़ी जल राशि इतनी तंग जगह में होकर गुजरे तो वहाँ प्रवाह की तीव्रता होनी ही चाहिये। फिर उसी मार्ग में कई चट्टानें पड़ी थी, जिनसे जलधारा तेजी से टकराती थी उस टकराहट से ही घोर शब्द हो रहा था और पानी इतनी ऊंची उछालें छींटों के रूप में मार रहा था। गंगा के प्रचण्ड प्रवाह का हृदय यहाँ देखते नहीं बनता था।

सोचता हूँ कि सोरों आदि स्थानों में जहाँ मीलों की चौड़ाई गंगा की है वहाँ जल धारा धीमे-धीमे बहती रहती है वहाँ प्रवाह में न प्रचण्डता होती है और न तीव्रता। पर इस छोटी घाटी के तंग दायरे में होकर गुजरने के कारण जल धारा इतनी तीव्र गति से बही। मनुष्य का जीवन विभिन्न क्षेत्रों में बंटा रहता है बहु मुखी रहता है तो उसमें कुछ विशेषता पैदा नहीं हो पाती पर जब एक विशिष्ट लक्ष को ले कर कोई व्यक्ति उस सीमित क्षेत्र में ही अपनी सारी शक्तियों को केन्द्रित कर देता है तो उसके द्वारा आश्चर्यजनक और उत्साहवर्धक परिणाम उत्पन्न होते देखे जाते हैं। मनुष्य यदि अपने कार्य क्षेत्र को बहुत फैलाने, अनेक और अधूरे काम करने की अपेक्षा अपने लिये एक विशेष कार्य क्षेत्र चुन ले तो क्या वह भी इस तंग घाटी में गुजरते समय उछलती गंगा की तरह आगे नहीं बढ़ सकता है? उन्नति नहीं कर सकता?

जलधारा के बीच पड़े हुए शिला खण्ड पानी से टकराने के लिए विवश कर रहे थे। इसी संघर्ष में गर्जन-तर्जन हो रहा था और छोटे रुई के गुब्बारों के बने पहाड़ की तरह ऊपर उठ रहे थे। सोचता हूँ यदि कठिनाइयाँ जीवन में न हों तो व्यक्ति की विशेषताएं बिना प्रकट हुए ही रह जायं। टकराने से शक्ति उत्पन्न होने का सिद्धाँत एक सुनिश्चित तथ्य है। आराम का शौक-मौज का जीवन विलासी जीवन निर्जीवों से कुछ ही ऊंचा माना जा सकता है। कष्ट सहिष्णुता, तितिक्षा, तपश्चर्या एवं प्रतिरोधों से बिना खिन्नता मन में लाये वीरोचित भाव से निपटने का साहस यदि मनुष्य अपने भीतर एकत्रित कर ले तो उसकी कीर्ति भी उस आज के स्थान की भाँति गर्जन-तर्जन करती हुई दिग्दिगंत में व्याप्त हो सकती है, उसका विशेषता युक्त व्यक्तित्व छींटों के उड़ते हुए फुहार की तरह से ही दिखाई दे सकता है। गंगा डरती नहीं, न किसी से शिकायत करती है, वह तंगी में होकर गुजरती है, मार्ग रोकने वाले रोड़ों से घबराती नहीं वरन् उनसे टकराती हुई अपना रास्ता बनाती है। काश हमारी अन्तःचेतना भी ऐसे ही प्रबल वेग से परिपूर्ण हुई होती तो व्यक्तित्व के निरखने का कितना अमूल्य अवसर हाथ लगता।

सीधे और टेढ़े पेड़

रास्ते भर चीड़ और देवदारु के पेड़ों का सघन बन पार किया। यह पेड़ कितने सीधे और ऊंचाई तक बढ़ते चले गये हैं उन्हें देखकर प्रसन्नता होती है। कोई-कोई पेड़ पचास फुट तक ऊंचे होंगे। सीधे ऐसे चले गये हैं मानों ढाल कर लट्ठे गाढ़ दिए गये हैं। मोटाई और मजबूती भी काफी है।

इनके अतिरिक्त तेवार, दादरा, पिनखू आदि के टेढ़े-मेढ़े पेड़ भी बहुत हैं जो चारों ओर छितराये हुए हैं इनकी बहुत डालियाँ फूटती हैं और सभी पतली रहती हैं। इनमें से कुछ को छोड़ कर शेष ईंधन के काम आते हैं। ठेकेदार लोग इन्हें जला कर कोयला भी बना ले जाते हैं यह पेड़ जगह तो बहुत घेरते हैं पर उपयोग इनका साधारण है। चीड़ और देवदारु से जिस प्रकार इमारती और फर्नीचर का काम होता है वैसा इन टेड़े तिरछे पेड़ों से बिल्कुल भी नहीं होता। इसलिए इनकी कोई पूछ भी नहीं करता, मूल्य भी इनका बहुत सस्ता होता है।

देखता हूँ जो पेड़ लम्बे गये हैं उनमें इधर-उधर शाखायें नहीं फोड़ी हैं, ऊपर को एक ही दिशा में सीधे बढ़ते गये हैं। इधर-उधर मुड़ना इसने नहीं सीखा। शक्ति को एक ही दिशा में लगाये रहने से ऊंचे उठते रहना स्वाभाविक भी है। चीड़ और देवदारु के पेड़ों ने यही नीति अपनाई है, वे अपनी इस नीति की सफलता का गर्वोन्नत मस्तक से घोषणा कर रहे हैं। दूसरी ओर आड़े-तिरछे पेड़ हैं जिनका मन अस्थिर चित्त चंचल रहा। एक ओर टिका ही नहीं, विभिन्न दिशाओं का स्वाद चखना चाहा और यह देखना चाहा कि देखें किस दिशा में ज्यादा मजा है, किधर जल्दी सफलता मिलती है। इस चंचलता में उन्होंने अनेक दिशाओं में अपने को बाँटा, अनेक-अनेक शाखाएं फोड़ीं। छोटी-छोटी टहनियों से उनका कलेवर फूल गया, वे प्रसन्न भी हुए कि हमारी इतनी शाखाएं हैं इतना फैलाव-फुलाव है।

दिन बीत गये। बेचारी जड़ें सब शाखाओं को खूब विकसित होने के लायक रस कहाँ से जुटा पातीं। प्रगति रुक गई, टहनियाँ छोटी और दुबली रह गई। पेड़ का तना भी कमजोर रहा और ऊंचाई भी न बढ़ सकी। अनेक भागों में विभक्त होने पर मजबूती तो रहती ही कहाँ से? बेचारे यह दादरा और पिनखू के पेड़ अपनी डालियाँ छितराये तो रहे लेकिन समझदार व्यक्तियों में उनका मूल्य कुछ जंचा नहीं। उन्हें कमजोर और बेकार माना गया अनेक दिशाओं में फैल कर जल्दी से किसी न किसी दिशा में सफलता प्राप्त करने की उतावली में अंततः कुछ बुद्धिमत्ता साबित न हुई।

देवदारु का एकनिष्ठ पेड़ मन-ही-मन इन टेढ़े तिरछे पेड़ों की चाल चपलता पर मुस्कराता हो तो आश्चर्य ही क्या है? हमारी वह चंचलता जिसके कारण एक लक्ष्य पर चीड़ की तरह सीधा बढ़ सकना संभव न हो सका यदि विज्ञ व्यक्तियों की दृष्टि में हमारे ओछे रह जाने के कारण जंचती हो तो इसमें अनुचित ही क्या है?

पत्तीदार साग

साग भाजी का इधर शौक ही नहीं है। आलू छोड़कर और कोई सब्जी यहाँ नहीं मिलती। नीचे के दूर प्रदेशों से आने के और परिवहन के साधन न होने से आलू भी महंगा पड़ता है। चट्टी के दुकानदार एक रुपया सेर देते हैं। यों इधर छोटे-छोटे झरने हैं उनसे जहाँ तहाँ शाक-भाजी होने का रिवाज नहीं है। रोज आलू खाते-खाते ऊब गया। हरी सब्जी के बारे में निवासियों तथा दुकानदारों से चर्चा की तो उन्होंने बताया कि जंगल में खड़ी हुई तरह-तरह की वनस्पतियों में से तीन पौधे ऐसे होते हैं जिनके पत्तों का साग बनाया जाता है 1. मारचा 2. लिंगड़ा 3. कोला।

एक पहाड़ी को पारिश्रमिक के पैसे दिये और इनमें से कोई एक प्रकार की पत्तियाँ लाने को भेजा। पौधे चट्टी के पीछे ही खड़े थे वह बात ही बात में मारचा की पत्तियाँ दो-चार सेर तोड़ लाया। बनाने की तरकीब भी उसी से पूछी और उसी प्रकार उसे तैयार किया। बहुत स्वादिष्ट लगा। दूसरे दिन लिंगड़ा की और तीसरे दिन कोला की पत्तियाँ इसी प्रकार वहाँ के निवासियों से मंगवाई और बनाई खाई। तीनों प्रकार की पत्तियाँ एक दूसरे से अधिक स्वादिष्ट लगीं। चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। एक महीने से हरी सब्जी नहीं मिली थी, इसे खा कर तृप्ति अनुभव की।

उधर के पहाड़ी निवासी रास्ते में तथा चट्टियों पर मिलते ही थे। उनसे जगह-जगह मैंने चर्चा की कि इतने स्वादिष्ट पत्तीदार साग जब आपके यहाँ पैदा होते हैं उन्हें काम में नहीं लेते? पत्तीदार साग तो स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत लाभदायक होते हैं। उनमें से किसी ने न तो मेरी सलाह को स्वीकार किया और न उन सागों को स्वादिष्ट तथा लाभप्रद ही माना। उपेक्षा दिखाकर बात समाप्त कर दी।

सोचता हूँ इस संसार में किसी वस्तु का महत्व तभी समझ में आयेगा जब उसकी उपयोगिता का पता हो। यह तीनों पत्तीदार साग मेरी दृष्टि में उपयोगी थे इसलिये महत्वपूर्ण भी जड़ें और स्वादिष्ट थीं। इन पहाड़ियों ने इस उपयोगिता को न जाना था और न माना था इसलिये उनके समीप यह मुफ्त का साग मनों खड़ा था पर उससे वे लाभ नहीं उठा पा रहे थे। किसी वस्तु या बात की उपयोगिता जाने और अनुभव किये बिना मनुष्य न तो उसकी ओर आकर्षित होता है और न उसका उपयोग करता है। इसलिए किसी वस्तु का महत्वपूर्ण होने से भी बढ़कर है उसकी उपयोगिता को जानना और उनसे प्रभावित होना।

हमारे समीप भी कितने ही ऐसे तथ्य हैं जिनकी उपयोगिता समझ ली जाय तो उससे आशाजनक लाभ हो सकता है। ब्रह्मचर्य, व्यायाम, ब्रह्ममुहूर्त में उठना, सन्ध्या वन्दन, समय का सदुपयोग, सात्विक आहार, नियमित दिनचर्या, व्यसनों से बचना, मधुर भाषण, शिष्टाचार आदि अनेकों तथ्य ऐसे हैं जिनका उपयोग हमारे लिए अतीव लाभदायक है और इनको व्यवहार में लाना कठिन भी नहीं है फिर भी हममें से कितने ही इनकी उपेक्षा करते हैं, व्यर्थ समझते हैं और हृदयंगम करने पर होने वाले लाभों से वंचित रह जाते हैं।

पहाड़ी लोग उपयोगिता न समझने के कारण ही अपने बिलकुल समीप प्रचुर मात्रा में खड़े पत्तीदार शाकों का लाभ नहीं उठा पा रहे थे। इसके लिए उनकी निन्दा करना व्यर्थ है। हमारे समीप भी तो आत्मकल्याण के लिए अगणित उपयोगी तथ्य बिखरे पड़े हैं पर हम ही कब उनको व्यवहार में लाते और लाभ उठाते हैं? मूर्खता में कोई किसी से पीछे भी क्यों रहे?

बादलों तक जा पहुँचे

आज प्रातःकाल से ही वर्षा होती रही। यों तो पहाड़ों की चोट पर फिरते हुए बादल रोज ही दीखते पर आज तो वे बहुत ही नीचे उतर आये थे। जिस घाटी को पार किया गया वह भी समुद्र तल से 10 हजार फुट की ऊंचाई पर थी। बादलों को अपने ऊपर आक्रमण करते, अपने को बादल चीर कर पार होते देखने का दृश्य मनोरंजक भी था कौतुहल वर्धक थी। धुनी हुई रुई के बड़े पर्वत की तरह भाप से बने ये उड़ते हुए बादल निर्भय होकर अपने पास चले आते। घने कुहरे की तरह चारों ओर एक सफेद अंधेरा अपने चारों ओर फिर जाता। कपड़ों में नमी आ जाती और शरीर भी गीला हो जाता। जब वर्षा होती तो पास में ही दीखता कि किस प्रकार रुई का बादल गल कर पानी की बूँदों में परिणित होता जा रहा है।

अपने घर गाँव में जब हम बादलों को देखा करते थे तब वे बहुत ऊंचे लगते थे, नानी कहा करती थीं कि जहाँ बादल हैं वहीं देवताओं का लोक है। यह बादल देवताओं की सवारी हैं इन्हीं पर चढ़ कर वे इधर-उधर घूमा करते हैं और जहाँ चाहते हैं पानी बरसाते हैं। बचपन में कल्पना किया करता था कि काश मुझे भी एक बादल चढ़ने को मिल जाता तो कैसा मजा आता, उस पर चढ़ कर चाहे जहाँ घूमने निकल जाता। उन दिनों मेरी दृष्टि में बादल की कीमत बहुत थी। हवाई जहाज से भी अनेक गुनी अधिक। जहाज चलाने को तो उसे खरीदना, चलाना, तेल जुटाना सभी कार्य बहुत ही कठिन थे पर बादल के बारे में तो कुछ करना ही न था, जैसे जी चाहे वहाँ चल दिये।

आज बचपन की कल्पनाओं के समान बादलों पर बैठ कर उड़े तो नहीं पर उन्हें अपने साथ उड़ते तथा चलते देखा तो प्रसन्नता बहुत हुई। हम इतने ऊंचे चढ़े कि बादल हमारे पाँवों को छूने लगे। सोचता हूँ बड़े-बड़े कठिन लक्ष जो बहुत ऊंचे और दूर मालूम पड़ते हैं, मनुष्य इसी तरह प्राप्त कर लेता होगा, पर्वत चढ़ने की कोशिश की तो बादल के बराबर पहुँच गया। कर्त्तव्य कर्म का हिमालय भी इतना ही ऊंचा है। यदि हम उस पर चढ़ते ही चलें तो साधारण भूमिका से विचरण करने वाले शिश्नोदर परायण लोगों की अपेक्षा वैसे ही अधिक ऊंचे उठ सकते हैं जैसे कि निरन्तर चढ़ते चढ़ते दस हजार फुट की ऊंचाई पर आ गये।

बादलों को छूना कठिन है। पर पर्वत के उच्च शिखर के तो वह समीप ही होता है। कर्त्तव्यपरायणता की ऊंची मात्रा हमें बादलों जितना ऊंचा उठा सकती है और जिन बादलों तक पहुँचना कठिन लगता है वे स्वयं ही खिंचते हुए हमारे पास चले आते हैं। ऊंचा उठाने की प्रवृत्ति हमें बादलों तक पहुँचा देती है, उन्हें हमारे समीप तक स्वयं उड़कर आने के लिए विवश कर देती है। बादलों को छूते समय ऐसी ऐसी भावनाएं उनसे उठती रहें। पर बेचारी भावनाएं अकेली क्या करें। सक्रियता का बाना उन्हें पहनने को न मिले तो वे एक मानस तरंग मात्र ही रह जाती हैं।

जंगली सेब

आज रास्ते में और भी कितने ही यात्रियों का साथ था। उनमें कुछ स्त्रियाँ भी थीं। रास्तों में बिन्नी के पेड़ों पर लगे हुए सुन्दर फल दिखे। स्त्रियाँ आपस में पूछने लगीं यह किस किसके फल हैं। उन्हीं में से एक ने कहा यह जंगली सेब हैं। न मालूम उसने जंगली सेब की बात कहाँ से सुन रखी थी। निदान यही तय हुआ कि यह जंगली सेब के फल हैं। फल खूब लदे हुए थे। देखने में पीले और लाल रंग मिले हुए बहुत सुन्दर लगते थे और प्रतीत होता था यह खूब पके हैं।

वह झुण्ड रुक गया। सयानी सी लड़की पेड़ पर चढ़ गई, लगता था उसे अपने ग्रामीण जीवन में पेड़ों पर चढ़ने का अभ्यास रहा है। उसने 40-50 फल नीचे गिराये। नीचे खड़ी स्त्रियों ने उन्हें आपाधापी के साथ बीना। किसी के हाथ ज्यादा लगे किसी के कम। जिसके हाथ कम लगे थे वह उससे लड़ रही थी जिसने ज्यादा बीने थे। लड़ती जाती थी और कहती जाती थी तूने रास्ता रोक कर झपट कर अधिक बीन लिए, मुझे नहीं बीनने दिए। जिसके पास अधिक थे वह कह रही थी मैंने भाग दौड़ कर अपने पुरुषार्थ पर बीने हैं जिसके हाथ-पैर चलेंगे वही तो नफे में रहेगा। तुम्हारे हाथ पैर चलते तो तुम भी अधिक बीनतीं।

इन फलों को अगली चट्टी पर भोजन के साथ खायेंगे, बड़े मीठे और सुन्दर यह होते हैं। रोटी के साथ खाने में अच्छे लगेंगे। धोती के पल्लों में बाँधकर वह प्रसन्न होती हुई चल रही थी कि कीमती फल, इतनी तादाद में उसने अनायास ही पा लिये। लड़ाई झगड़ा तो शाँत हो गया था पर ज्यादा कम बीनने की बात पर मनोमालिन्य जो उत्पन्न हुआ था वह बना हुआ था। एक दूसरे की नाराजी के साथ घूर-घूर कर देखती चलती थीं चट्टी आई। सब लोग ठहरे। भोजन बना, फल निकाले गये। जिसने चखे उसी ने थू-थू किया। वे कड़वे थे। इतनी मेहनत से लड़-झगड़ कर लाये हुए सुन्दर दीखने वाले जंगली सेब कड़ुवे और बेस्वाद थे उसे देखकर उन्हें बड़ी निराशा हुई। सामने खड़ा हुआ पहाड़ी कुली हंस रहा था। उसने कहा, ‘यह तो बिन्नी का फल है। उसे कोई नहीं खाता। इसकी गुठली का तेल भर निकालते हैं।’ बिना समझे बुझे इन्हें बीनने, लाने और खाने की मूर्खता पर वे सभी स्त्रियाँ सकुचा रही थी।

मैं भी साथ था। इस सब माजरे के आदि से अन्त तक साथ था। दूसरे और यात्री उन यात्रियों की भूल पर मुस्कुरा रहे थे, कनखियाँ ले रहे थे, आपस में उन फलों का नाम ले लेकर हंसी कर रहे थे। उन्हें हंसने का एक प्रसंग मिल गया था, दूसरों की भूल और असफलता पर आम तौर से लोगों को हंसी आती ही है। केवल पीला रंग और बढ़िया रूप देखकर उनमें पका पीठा और स्वादिष्ट फल होने की कल्पना करना यह उनकी भूल थी। रूप से सुन्दर दिखने वाली सभी चीजें मधुर कहाँ होती हैं, यह उन्हें जानना चाहिए था। न जानने पर शर्मिंदगी उठानी पड़ी और परेशानी भी हुई। आपस में लड़ाई झगड़ा होता रहा सो व्यर्थ ही।

सोचता हूँ बेचारी इन स्त्रियों की ही हंसी हो रही है और सारा समाज रंग रूप पर मुग्ध होकर पतंगे की तरह जल रहा है, उस पर कोई नहीं हंसता। रूप की दुनिया में सौंदर्य को देवता पूजता है। तड़क-भड़क, चमक-दमक सबको अपनी ओर आकर्षित करती है और उस प्रलोभन से लोग बेकार चीजों पर लट्टू हो जाते हैं। अपनी राह खोटी करते हैं और अन्त में उनकी व्यर्थता पर इसी तरह पछताते हैं जैसे ये स्त्रियाँ बिन्नी के कडुए फलों को समेट कर पछता रही हैं। रूप पर मरने वाले यदि अपनी भूल समझें तो उन्हें गुणों का पारखी बनना चाहिये। पर यह तो तभी संभव है जब रूप के आकर्षण से अपनी विवेक बुद्धि को नष्ट होने से बचा सके।

बिन्नी के फल किसी ने नहीं खाये। वे फेंकने पड़े। खाने योग्य वे थे भी नहीं। धन, दौलत, रूप यौवन, राग रंग, विषय वासना, मौज मजा जैसी अगणित चीजें ऐसी हैं जिन्हें देखते ही मन मचलता है किन्तु दुनिया में चमकीली दिखने वाली चीजों में से अधिकाँश ऐसी ही होती हैं जिन्हें पाकर पछताना और अन्त में उन्हें आज के जाली सेबों की तरह फेंकना ही पड़ता है।

संभल कर चलने वाले खच्चर

पहाड़ों पर बकरी के अतिरिक्त खच्चर ही भार वाहन का काम करते हैं। सवारी के लिए भी उधर वे ही उपलब्ध हैं। जिस प्रकार अपने नगरों की सड़कों पर गाड़ी ठेले, ताँगे, रिक्शे चलते हैं उसी तरह चढ़ाव उतार की विषम और खतरनाक पगडंडियों पर यह खच्चर ही निरापद रूप से चलते फिरते नजर आते हैं।

देखा कि जिस सावधानी से ठोकर और खतरा बचाते हुए इन पगडंडियों पर हम लोग चलते हैं। उसी सावधानी से यह खच्चर भी चले रहे हैं। हमारे शिर की बनावट ऐसी है कि पैरों के नीचे की जमीन को देखते हुए, खतरों को बचाते हुए आसानी से चल सकते हैं, पर खच्चरों के बारे में ऐसी बात नहीं है, उनकी आँखें ऐसी जगह लगी हैं और गरदन का भुड़ाव ऐसा है जिससे सामने देखा जा सकता है पर पैरों के नीचे देख सकना कठिन है। इतने पर भी खच्चर का हर कदम बड़ी सावधानी से और सही-सही रखा जा रहा था जरा सी चूक होने पर वह भी उसी तरह लुढ़क कर मर सकता है जैसे कल एक बछड़ा गंगोत्री की सड़क पर चूर-चूर हुआ मरा पड़ा देखा था। बेचारे का पैर जरा सी असावधानी से गलत जगह पड़ते ही अस्सी फुट की ऊंचाई से आ गिरा और उसकी हड्डी पसली चकनाचूर हो गई। ऐसा कभी-कभी ही होता है, खच्चरों के बारे में तो ऐसी घटना कभी नहीं सुनी गई।

लादने वालों से पूछा तो उसने बताया कि खच्चर रास्ता चलने के बारे में बहुत ही सावधानी और बुद्धिमता से काम लेता है। तेज चलता है पर


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