श्रीरघुवीर प्रताप तें, सिन्धु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि, भजहिं जाइ प्रभु आन॥
कबीर यह तन जात है, सकै तो राख बहोर।
खाली हाथों वे गये, जिनके लाख करोर॥
मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसो भाग।
यह कबीर कब लग रहै, रुई लपेटी आग॥
कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।
आप ठगे सुख ऊपजे, और ठगे दुख होय॥
कबीर यह तनु जात है, सकै तो ठौर लगाय।
कै सेवा कर साधुकी, कै हरिके गुण गाय॥
उज्ज्वल पहिने कापड़ा, पान सुपारी खाय।
कबीर हरिकी भक्ति बिन, बाँधा यमपुर जाय॥
मनुष जन्म दुर्लभ अति, होत न बारम्बार।
तरुवर सों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार॥
कबीर सब जग निरधना, धनवंता नहिं कोय।
धनवंता सो जानिये, जाके रामनाम धन होय॥
सौ पापनका मूल है, एक रुपैया रोक।
साधु होय संग्रह करै, मिटै न संशय शोक॥
मर जाऊं माँगूँ नहीं, अपने तनुके काज।
परमारथके कारने, मोहिं न आवे लाज।
करनी बिन कथनी कथै, अज्ञानी दिन रात।
कूकर जिमि भूसत फिरे, सुनी सुनाई बात॥
तुलसी या जग आयकै, पाँच रतन हैं सार।
संतमिलन अरु हरिभजन, दया, दीन उपकार॥