हमारा व्यक्तित्व ‘ओछा’ न हो

November 1960

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(स्वामी दिव्यानन्द सरस्वती)

मनुष्य दूसरों की दृष्टि में कैसा जँचता है, इसका बहुत कुछ आधार उसके अपने व्यक्तित्व पर निर्भर रहता है। लोग विद्या पढ़ने, धन कमाने, पोशाक और साज सज्जा बनाने पर तो ध्यान देते हैं, पर अपने व्यक्तित्व का निर्माण करने की दिशा में उपेक्षा ही बरतते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि जितना महत्व योग्यता और सम्पदा का है उससे कम मूल्य व्यक्तित्व का नहीं है।

व्यक्तित्व का प्रभावशाली होना बड़ी से बड़ी सम्पदा या योग्यता से कम मूल्य का नहीं है। यदि किसी व्यक्ति को किसी से विशेष स्वार्थ या लगाव है तो बात दूसरी है, नहीं तो यदि कोई किसी से प्रभावित होता है तो उसका मूल आधार उसका व्यक्तित्व ही होता है। शरीर का सुडौल या रूपवान् होना, दूसरों को कुछ हद तक प्रभावित करता है, वस्तुतः सच्चा प्रभाव तो उसके उन लक्षणों का पड़ता है जो उसके मन की भीतरी स्थिति के अनुरूप क्रिया और चेष्टाओं से पल-पल पर झलकते रहते हैं।

यदि भीतर की मानसिक स्थिति दुर्बल, अपरिपक्व एवं हीन है तो उसका परिचय स्वभाव एवं आदतों में तुरन्त दिखाई देगा। जरा-जरा सी बात पर उत्तेजित हो उठना, लाल-पीला हो जाना, कटु वाक्य कहने लगना या दूसरों पर उग्र शब्दों में दोषारोपण करने लगना, इस बात का चिन्ह है कि यह मनुष्य बहुत उथला और ओछा है। जीवन में प्रिय और अप्रिय प्रसंग आते रहते हैं, संसार में भले और बुरे सभी तरह के लोग हैं, हर आदमी के अन्दर कुछ बुराई और कुछ अच्छाई है, यह समझते हुए जो लोग अपने मस्तिष्क को सन्तुलित रखते हैं वे ही बुद्धिमान हैं। जो लोग छोटी-छोटी बातों को बहुत बड़ी मान बैठते हैं वे ही अधीर और उत्तेजित होते हैं। खिन्नता, निराशा, आवेश या उत्तेजना उन्हें ही आती है। यदि हमारा मानसिक स्तर उथला न हो, उसमें आवश्यक संजीदगी और गंभीरता हो तो आवेश आने का कोई कारण नहीं, वह हर अप्रिय परिस्थिति का भी मूल्याँकन करेगा। वह इस विविध विचित्रता युक्त विश्व की अनेक विचित्रताओं में अपने सामने उपस्थित विपन्न परिस्थिति को भी एक मामूली बात मानेगा ओर परेशान होने की अपेक्षा उसका कोई शान्तिमय समाधान ढूंढ़ेगा। ऐसे लोग बहुधा गम्भीर देखे जाते हैं। गम्भीरता एवं शास्त्रीयता प्रभावशाली व्यक्तित्व का सबसे बड़ा आधार है। जो लोग आवेश में नहीं आते, गम्भीर रहते हैं उनकी संजीदगी दूसरों की दृष्टि में उनका मूल्य बढ़ा देती है।

जल्दबाजी, क्षणिक विचार, अभी यह, अभी वह, अभी क्रोध, अभी प्यार, अभी प्रशंसा, अभी निन्दा, अभी विरोध, अभी समर्थन, ऐसे अव्यवस्थित, अस्त-व्यस्त स्वभाव का होना इस तथ्य का द्योतक है कि यह व्यक्ति भीतर से पोला है, इसका कोई सिद्धान्त नहीं, अपनी कोई निर्णय शक्ति नहीं, जब जो बात समझ में आ जाती है तब वही कहने या करने लगता है। इस प्रकार के ओछे व्यक्ति दूसरों की आँखों में अपना कोई स्थान नहीं बना सकते।

हर वक्त शंकित रहने वाले, प्रत्येक काम में कोई नुक्स निकालने वाले, हर किसी की आलोचना करने वाले, छिद्रान्वेषी व्यक्ति अपनी आन्तरिक दुर्बलता का परिचय देते हैं। भय और शंका जिनके मन में जम जाते हैं वे हर वक्त डरते रहते हैं, असफलता, गन्दगी और आशंका ही हर तरफ उन्हें दिखाई देती है। वे अपने लिये कोई काम चुन नहीं पाते। जो करते हैं उसमें सन्तुष्ट नहीं रहते, अपने काम को तुच्छ, निन्दनीय, हानिकारक मानते हैं और उसे छोड़ने की बात बार-बार कहते रहते हैं। छोड़ भी नहीं पाते। क्योंकि नया कदम उठाने लायक साहस उनमें नहीं होता। पुराने को ठीक तरह कर नहीं पाते। कर तो तभी पावें जब उसकी श्रेष्ठता और सफलता पर उन्हें विश्वास हो! अधूरे विश्वास पर अवलम्बित कार्य जैसे लंगड़े-लूले रहते हैं वैसे उनके हर काम होते हैं। इन स्थितियों का परिचय जिन्हें है वे ऐसी मनोभूमि के व्यक्ति को ओछा आदमी ही मानेंगे और कभी उसका सम्मान न करेंगे।

ओछे आदमी का एक चिन्ह यह है कि वह अपने बारे में ही सदा सोचता रहता है। अपना लाभ, अपनी हानि, अपनी भूल, अपना भविष्य, अपनी कठिनाई, अपना न्याय, अपना स्वास्थ्य, अपनी प्रतिष्ठा, अपना दुर्भाग्य, अपना स्वर्ग, अपनी मुक्ति आदि बातें ही उसके चिन्तन का मुख्य विषय होती हैं। दूसरों से जब भी बात करेगा अपना रोना रोवेगा, अपनी शेखी मारेगा। वह यह भूल जाता है कि दूसरों को तुम्हारे रोने गाने सुनने की न तो फुरसत है और न उसमें कोई दिलचस्पी। हर आदमी अपनी जिम्मेदारियों से लदा हुआ है, उसे दूसरे की सहानुभूति या सहायता चाहिए। यह जानते हुए भी जो लोग अपनी राम कहानी ऐसे लोगों को सुनाते हैं जो उसको हल नहीं कर सकते तो ऐसा सुनाना एक प्रकार से उनका समय नष्ट करना ही है। ऐसे सिर खाऊ लोगों को भला कौन पसन्द करेगा?

दूसरों में दिलचस्पी लेना और अपने बारे में आत्म-चिन्तन की दृष्टि से एक नियत समय पर ही थोड़ा सोचना उचित है। हर घड़ी अपने बारे में सोचते रहने वाले लोग स्वार्थी समझे जाते हैं, उन्हें दूसरे लोग उपेक्षणीय एवं तिरस्कार के योग्य ही समझते हैं। प्रभावशाली व्यक्ति बनने के लिये यह आवश्यक है कि हम दूसरों की दृष्टि में अपस्वार्थी सिद्ध न हों। दूसरों में दिलचस्पी लेकर सामाजिक प्राणी बन कर ही कोई व्यक्ति दूसरों को अपनी उदारता से प्रभावित कर सकता है और तभी बदले में हमें दूसरों का प्रेम, आदर एवं सहयोग मिल सकता है। अपने मतलब में चौकस रहने वाले, अपने ही सुख की फिराक में रहने वाले व्यक्ति, दूसरों की सद्भावना से वंचित रहते हैं, फलस्वरूप वे कुछ भी उन्नति नहीं कर पाते।

आलस, गन्दगी और अव्यवस्था भी ऐसे दुर्गुण हैं जो यह साबित करते हैं कि यह व्यक्ति अपने आप से लापरवाह है। जो अपने समय की, सामान की, शरीर की, वस्त्रों की, कार्यक्रमों की व्यवस्था नहीं कर सकता या नहीं करना चाहता, उसे जीवट का, जोरदार, सावधान या चैतन्य नहीं कहा जा सकता। ढीले-पोले, अस्त-व्यस्त स्वभाव के लोग वस्तुतः इसी लायक हैं कि उन्हें दूसरे आदमी हल्की निगाह से देखें। अपना चलना, उठना, बैठना, कपड़े पहनना, हजामत, बातचीत सभी में एक व्यवस्था, तेजी तथा सावधानी हो, तभी किसी की आँखों में हम सतर्क, सावधान एवं प्रगतिशील जँच सकते हैं।

यह बातें देखने सुनने में मामूली हैं पर अपनी मानसिक स्थिति का परिचय इन्हीं से दूसरों को मिलता है और वे इसी आधार पर हमारे ओछेपन एवं बड़प्पन को तौलते हैं।


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