हम भी अपना स्वार्थ सिद्ध क्यों न करें?

November 1960

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(श्री चूड़ामन मोतीलाल मुन्शी)

‘सुर नर मुनि सब की यह रीती।

स्वारथ लाग करें सब प्रीती॥’

लोगों की दृष्टि में स्वार्थ बुरा समझा जाता है, परन्तु स्वार्थ बुरा नहीं है। स्वार्थ का तात्पर्य है ‘अपना लाभ-अपना भला-अपना हित करना।’ दूसरे शब्दों में कहें तो यह हो सकता है कि ‘अपना हित करने की भावना से प्रेरित होकर किसी प्रकार का शारीरिक अथवा मानसिक श्रम करना।’ यदि हम शब्दकोष को उठाकर देखें तो हमें विदित होगा कि उसमें भी स्वार्थ अभिप्राय उपरोक्त ही बताया गया है। हम स्वस्थ रहें, प्रसन्न रहें, हमारा जीवन सुख-शान्तिमय व्यतीत हो-ऐसा कौन नहीं चाहता? यह भावना हमारे भले की, हित की है और अपना भला या हित करना कोई पाप नहीं है, बल्कि यह कहा जाए कि ‘हमारा धर्म है’ तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इस बात का स्पष्टीकरण कर दिया है-’उद्धरेद त्मनात्मानं नात्मान मवसादयेत्।’ अर्थात् ‘मनुष्य को चाहिए कि वह अपने द्वारा अपना उद्धार (भला) करे।’

सामान्यतः स्वार्थ के दो प्रकार माने गये हैं-(1) दूसरे को लाभ पहुँचाते हुए अपना भला (हित) करना और (2) दूसरे को हानि पहुँचा कर अपना भला करना। इसमें प्रथम को उच्चकोटि का (मानवोचित) स्वार्थ और द्वितीय को निम्नकोटि का अर्थात् स्वार्थ का ‘घृणित रूप’ कहा जा सकता है।

स्वार्थ करना मनुष्य का स्वभाव है, परमात्मा ने उसके मन की रचना इस प्रकार की है कि वह जब तक यह न जान ले कि ‘अमुक कार्य करने में मुझे लाभ है’ तब तक वह किसी भी प्रकार का कार्य करने को उद्यत न होगा। स्वभाव की इस परवश के कारण मनुष्य स्वार्थ करता है। यदि वह स्वार्थ न करे तो शायद उसका जीवित रहना असम्भव हो जावे। इसी प्रकार, मनुष्येत्तर पशु-पक्षी आदि भी स्वार्थ को अपनाते हैं। गाय को लीजिये, वह अपने बच्चे के अतिरिक्त किसी दूसरी गाय के बच्चे को दूध नहीं पिलायेगी। इसी तरह पक्षियों में भी स्वार्थ की वृत्ति पायी जाती है। वे अपने शिशुओं की सुरक्षा के लिए घोंसले बनाते और उनकी खुराक का प्रबन्ध करते हैं। तात्पर्य यह है कि सभी प्राणियों का स्वभाव स्वार्थी अर्थात् अपना हित करने का है। और वे बिना स्वार्थ किये रह ही नहीं सकते।

स्वार्थ की भावना का मूल अभिप्राय स्थायी सुख की चाहना है। सभी मनुष्य स्थायी सुख चाहते हैं। दुःख तो कोई लवलेश भी नहीं चाहता। मनुष्येत्तर प्राणियों में बुद्धि न होने के कारण वे स्थायी सुख प्राप्त करने में असमर्थ हैं, परन्तु परमात्मा ने मनुष्य को एक विशिष्ट गुण ‘बुद्धि’ प्रदान की है। इसलिए वह स्थायी सुख प्राप्त करने का अधिकारी है। इस सुख की खोज मनुष्य अनन्त काल से करता चला आ रहा है और इसके लिए उसने अनेकों साधन भी एकत्रित कर लिए हैँ परन्तु उसे फिर भी स्थायी सुख की प्राप्ति नहीं हुई।

मनुष्य बुद्धि प्रधान और सृष्टि का सर्वोत्तम प्राणी है। ऐसी दशा में उसका स्वार्थ निम्नकोटि का नहीं हो सकता। मनुष्य अपने स्वार्थ का उपयोग गलत ढंग से करता है, इसलिए वह सुख-शाँति से वंचित रहता है। स्वार्थ का सदुपयोग या दुरुपयोग हमारी बुद्धि पर निर्भर है। यदि हम स्वार्थ का सदुपयोग करें तो हमें अवश्य ही चिरस्थायी सुख की प्राप्ति हो सकेगी। जैसे चाकू को घरेलू काम में भी लाया जा सकता है और इसी चाकू से किसी की जान भी ली जा सकती है। उसी प्रकार स्वार्थ के विभिन्न उपयोगों से सुख और दुःख दोनों प्राप्त किये जा सकते हैं।

भाई, भाई की जायदाद हड़पने, दुकानदार ग्राहक का गला मसकने, सेठ अपने मुनीम को अल्प वेतन देकर अधिक काम कराने, बढ़िया माल की अपेक्षा घटिया माल देने, नकली माल को असली बताकर रुपया ऐंठने, साहूकार कर्जदार से अधिक ब्याज प्राप्त करने,कम पैसे में गिरवी का माल पचा जाने की नीयत से सम्पत्ति का बंधक-विक्रय करने, श्रमिकों से अधिक परिश्रम कराकर भी उन्हें यथोचित पारिश्रमिक न देने, चोरी-ठगी, छल-कपट, कालाबाजार झूठ-फरेब, भ्रष्टाचार, रिश्वत आदि के मामले आज के युग में प्रायः पग-पग पर देखे और सुने जाते हैं। यह सब निम्नकोटि के स्वार्थ-स्वार्थ के घृणित रूप हैं, और स्वार्थ का गलत ढंग से उपयोग करना है। सच पूछा जाए तो इसे स्वार्थ कहना स्वार्थ शब्द का अनादर करना है। इस प्रकार के व्यवहार से क्षणिक सुख की प्राप्ति भले ही हो, परन्तु स्थायी सुख की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। उसके साथ-एक बात और भी है कि इन कार्यों में दूसरों का अनहित होने के कारण प्रकृति के नियमानुसार हम दण्ड के भी भागीदार होते हैं। प्रकृति का यह अटूट नियम है कि ‘जैसा बोओगे, वैसा पाओगे।’ जैसे अब का एक दाना बोने पर लाखों दाने प्राप्त होते है, उसी प्रकार दूसरे का हित या अहित करने से उसका प्रतिफल अनेक गुना होकर उसी के अनुसार हमें प्राप्त होता है। एक विद्वान का कथन है कि ‘जो अन्य को हानि पहुँचा कर अपना हित चाहता है, वह मूर्ख अपने लिए दुःख के बीज बोता है।’

मनोविज्ञान का भी यह अटल नियम है कि दूसरों को हानि पहुँचाने के विचार अपनी ही हानि के विचारों में परिणत हो जाते हैं। अर्थात् हानि के विचार करने मात्र से वे हमें निश्चित ही हानि पहुँचा देते हैं। इससे यह सिद्ध है कि दूसरों को हानि पहुँचा कर हम जो स्वार्थ सिद्ध करते हैं तथा उससे जो क्षणिक सुख की प्राप्ति होती है, वह मिथ्या और कोरी दिखाऊ है, क्योंकि हमें ईश्वरीय नियम के अनुसार निश्चित ही दण्ड भुगतना पड़ता है। इसलिए दूसरों का अहित करने (स्वार्थ का दुरुपयोग करने) से हमारे स्वार्थ की पूर्ति नहीं होती, हमारा भला, हित नहीं होता। अतः इस प्रकार का घृणित स्वार्थ त्याज्य है और उच्च कोटि का मानवोचित स्वार्थ ग्रहण करने योग्य है।

हम मानव हैं, इसलिये हमें मानवोचित कोटि का स्वार्थ करना चाहिए। यदि हम इहलोक, परलोक, स्वर्ग-नरक न भी मानते हों तो भी हमें निम्नकोटि का स्वार्थ तो किसी भी हालत में नहीं करना चाहिए। व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो भी हमें वही करना चाहिए जो हम दूसरों से अपने प्रति करवाना चाहते हैं। हम अपने प्रति दूसरों से अपना हित करवाना चाहते हैं, इसीलिये हमें दूसरों का हित करना चाहिए। सच्चा स्वार्थ इसे ही कहा जा सकता है। हम बाजार से प्रत्येक वस्तु देख कर, चुन कर, अच्छी लेते हैं, उसी प्रकार हमें अपनी आत्मा के कल्याण के लिए, अपनी भलाई के लिये सत्य, दया, नेकी-भलाई, ईमानदारी आदि दैवी सम्पदा के अमूल्य गुण अवश्य ही लेने चाहियें। दैवी सम्पदा के गुणों को धारण करना ही उच्चकोटि का मानवोचित स्वार्थ है।

स्वार्थ का दुरुपयोग करने से अनेकों प्रकार के रोग मनुष्य को घेरे रहते हैं और मनुष्य जीवन भर बेचैनी का अनुभव करता हुआ दुर्गति को प्राप्त होता है। इतिहास के क्षेत्र में देखिए, सिकन्दर ने स्वार्थ का दुरुपयोग किया और छोटे-बड़े सभी राज्यों को पराजित कर सम्राट बन बैठा। इस स्वार्थ में सिकन्दर को क्या मिला? हत्या, शाप, परपीड़न और पाप! इसी पाप ने अन्त में सन्ताप का रूप धारण कर उसे दुर्गति के हवाले कर दिया और सिकन्दर के हाथ कुछ न आया। उसकी धन-दौलत माल-असबाब और उसकी सेना उसे निर्दयी काल के पंजे से न छुड़ा सकी। इसीलिए कहा है :-

“सिकन्दर जब गया दुनिया से, दोनों हाथ खाली थे।”

इसके विपरीत आध्यात्मिक क्षेत्र में कबीर, नानक, सूर, तुलसी आदि सन्तों को लीजिए, जिन्होंने सच्चे अर्थों में अपनी भलाई की खोज करके अपना और लोगों का कल्याण किया। आज भी इन सन्तों की रचनाएँ घर-घर में बड़े प्रेम और आदर के साथ पढ़ी और सुनी जाती हैं एवं हमें भलाई के मार्ग को प्रशस्त करने में सहायता प्रदान करती हैं। इन सन्तों के प्रति हमारे मन में प्रगाढ़ श्रद्धा भरी है। उनकी कीर्ति अजर-अमर है और भविष्य में भी रहेगी।

अतः यदि हमारा स्वभाव स्वार्थ करने का ही है तो हमें सच्चे अर्थों में स्वार्थ की खोज करना चाहिए, जिसमें हमें चिरस्थायी सुख की प्राप्ति हो। हमारा स्वार्थ दूसरे के अनहित में नहीं, वरन् दूसरों के हित में ही निहित है। इसलिए दूसरों का हित चाहने वाला ही सच्चे अर्थों में स्वार्थी कहलाने का अधिकारी है।

यदि हम सचमुच अपना हित साधन करना चाहते हैं तो हमें अपना दृष्टिकोण परिवर्तित करना होगा, निम्न-कोटि के स्वार्थ से ऊँचे उठकर उच्च कोटि का स्वार्थ अपनाना होगा। चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते, तात्पर्य यह है कि प्रत्येक कार्य करते समय हमें यही ध्यान रखना होगा कि हमारा हित, हमारा भला, हमारा स्वार्थ, हमारा सुख, हमारी शान्ति कहाँ निहित है? हमें अपने भीतर से उत्तर-मिलेगा, अन्य का भला करने में! इसलिए हर कार्य हमें अपनी भलाई करने के लिये ही करना चाहिए और प्रत्येक में हमारे स्वार्थ की छाप लगा देना चाहिए। हम जिधर दृष्टि फेरें, बस हमें अपना स्वार्थ ही स्वार्थ नजर आए।

हमारे हृदय में एक देवता का निवास है। उक्त देवता हमें सदा सच्चा और हितकारी परामर्श देता है। आप अपने कार्यों के विषय में उससे परामर्श लेकर अपना मार्ग सुनिश्चित कर सकते हैं। वह हमें कभी भी गलत राय नहीं देता। अपितु जब-जब हम गलत कार्य करने लगते हैं, तब-तब वह हमें चेतावनी देता है, सावधान! रुको!! इस घृणित कार्य में तुम्हारी भलाई नहीं है। इस कार्य को न करो! परन्तु हम मोहवश वह कार्य कर बैठते हैं। फलतः हमें दुःख उठाना पड़ता है। इसलिये हमें चाहिए कि हम उन हृदयस्थ देवता का सदा परामर्श लेते रहें और उसकी आज्ञानुसार सारे कार्य करें। अपने आत्मा से परामर्श लेकर कार्य करने वाला सच्चे अर्थों में स्वार्थी ही कहा जायेगा, क्योंकि हमारी आत्मा सदैव हमें अपनी भलाई की ओर अग्रसर करती है।

शास्त्रकारों ने परमार्थ की बहुत महिमा गाई है, वस्तुतः परमार्थ क्या है? स्वार्थ का ही उच्च कोटि का स्वरूप! अपितु यह कहना अनुचित न होगा कि स्वार्थ ने ही परमार्थ का बाना पहन रखा है। परमार्थ में स्वयं के अहम्-कल्याण की भावना छिपी रहती है। जब तक हमारे मस्तिष्क में परमार्थ शब्द गूँजता रहेगा, तब तक वह स्वार्थ नहीं तो और क्या कहा जावेगा?

अतः यदि आप अपना भला चाहते हैं और स्वार्थ साधन करना चाहते हैं तथा ऐसा सुख चाहते हैं, जो कभी नष्ट न हो तो आप दूसरों की भलाई में लग जाइये और उन्हें सुख पहुँचाइये। इसी में आपका स्वार्थ निहित है और तभी आप अपना भला कर सकते हैं, स्थायी-सुख प्राप्त कर सकते हैं, अन्यथा नहीं। यदि आपको दुःख अभीष्ट है, तो पहुँचाइये दूसरों को पीड़ा, कीजिए उनका अहित! परन्तु स्मरण रहे, ईश्वरीय नियम के अनुसार बदले में आप को वही असंख्य गुना मिलेगा! आज न सही, कल वह दिन अवश्य आयेगा जब हमें उसका परिणाम भुगतना ही पड़ेगा। उस समय हमें सिकन्दर की तरह कोई बचा नहीं सकेगा। इसलिये सोचो और निश्चित करो कि हमारा स्वार्थ, हमारा भला, हमारा सुख कहाँ पर निहित है?


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