चटोरापन छोड़िए - ब्रह्मचारी बनिए

November 1960

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(श्री दत्तात्रेय आतेगाँवकर एम.ए.)

हिन्दू-धर्म के विशेष नियमों में ब्रह्मचर्य का सबसे अधिक महत्व माना गया है। प्राचीन काल में तो इसे समाज की आधार शिला ही माना गया था और इसमें कोई सन्देह नहीं कि यदि हमारे देश में ब्रह्मचर्य आश्रम का वास्तविक रूप से पालन होता रहता तो देश कभी दुर्दशा को प्राप्त नहीं होता। पर बीच के समय में जब गुरुकुलों की प्रथा ढीली पड़ गई और अधिकाँश बालकों का पालन-पोषण और शिक्षा घरों में ही होने लगी तो इस आश्रम के नियमों का पालन कठिन हो गया। फिर तो यहाँ पाँच-पाँच और दस-दस वर्ष के बालकों का विवाह होने लग गया और ब्रह्मचर्य किस चीज का नाम है यह भी अधिकाँश लोग भूल गये।

फिर भी जिन लोगों में ब्रह्मचर्य की चर्चा कायम रही और जो उसके महत्व को स्वीकार करते रहें, वे भी अपने को असमर्थ समझ कर उससे विमुख रहने लगे। लोगों ने समझ लिया कि घर में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन असम्भव है और उसके लिये प्रयत्न करना बेकार है। ब्रह्मचर्य का पालन तो गृहस्थों से दूर जंगल में बने गुरुकुलों में रहकर ही सम्भव था। जब वह प्रथा नष्ट हो गई तो अब उसके लिए झूठ-झूठ चर्चा करने से क्या लाभ?

पर जब हम इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करते हैं तो मालूम होता है कि हमने ब्रह्मचर्य के अर्थ को ही ठीक नहीं समझा है। लोग यह समझ लेते हैं कि जननेन्द्रिय विकार का निरोध करना ही ब्रह्मचर्य है। पर यह ब्रह्मचर्य की अधूरी व्याख्या है। इस सम्बन्ध में महात्मा गाँधी का मत था कि “विषय मात्र का निरोध ही ब्रह्मचर्य है। जो और-और इन्द्रियों को जहाँ-तहाँ भटकने देकर केवल एक ही इन्द्रिय के रोकने को प्रयत्न करता है वह निष्फल प्रयत्न करता है। कान से विकार की बातें सुनना, आँख से विकार उत्पन्न होने वाली वस्तुएँ देखनी, जीभ से विकारोत्तेजक वस्तु चखना, हाथ से विकारों को भड़काने वाली चीज छूना और इन सब बातों को करते हुए जननेन्द्रिय को रोकने का प्रयत्न करना, यह तो आग में हाथ डालकर जलने से बचने का प्रयत्न करने के समान हुआ। इसलिए जो जननेन्द्रिय को रोकने का प्रयत्न करे, उसे पहले ही से प्रत्येक इन्द्रिय को उस इन्द्रिय के विकारों से रोकने का निश्चय कर ही लेना चाहिए। हमारा यह अनुभव है कि ब्रह्मचर्य की संकुचित व्याख्या से नुकसान हुआ है। अगर हम सब इन्द्रियों को एक साथ वश में करने का अभ्यास करें तो जननेन्द्रिय को वश में करने का प्रयत्न शीघ्र सफल हो सकता है, तभी उसमें सफलता प्राप्त की जा सकती है।

“वैसे तो सभी इन्द्रियों के विकारों से हमारे मन की पवित्रता भंग होती है, पर ब्रह्मचर्य का सबसे अधिक सम्बन्ध आस्वाद व्रत से है। इसका अर्थ है कि स्वाद न करना, अर्थात् जायके की भावना से बचकर जिस प्रकार दवाई खाते समय हम इस बात का विचार नहीं करते कि वह जायकेदार है या नहीं, पर शरीर के लिए उसकी आवश्यकता समझ कर ही उसे उचित मात्रा में खाते हैं, उसी प्रकार अन्न को भी समझ लेना चाहिए। अन्न का अर्थ यहाँ पर समस्त खाद्य पदार्थ हैं, अतः इसमें दूध और फल का भी समावेश होता है। जैसे कम मात्रा में ली हुई दवाई असर नहीं करती या थोड़ा असर करती है और ज्यादा लेने पर नुकसान पहुँचाती है, वैसा ही हाल अन्न का भी है। इसलिए स्वाद की दृष्टि से किसी चीज को खाना हानिकारक है। स्वादिष्ट चीज को मनुष्य प्रायः ज्यादा खा लेता है, इसलिए भोज्य पदार्थों को कृत्रिम रीति से अधिक स्वादिष्ट बनाना शरीर के हित के विरुद्ध है।”

“इस दृष्टि से विचार करने पर हमें पता लगता है कि जो अनेक चीजें हम खाते हैं उनमें से अनेकों शरीर रक्षा की दृष्टि से अनावश्यक हैं। “पेट चाहे जो करावे”-”पेट चाण्डाल है”-”पेट कुई-मुँह सुई”-”पेट में पड़ा चारा तो कूदने लगा बेचारा”-’जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ-फूली नहीं बदन में समाती है रोटियाँ”-ये सब कहावतें बहुत सारगर्भित हैं। पर लोग इस तरफ बहुत ही कम ध्यान देते हैँ और घरों में माँ-बाप बचपन से ही तरह-तरह की जायकेदार चीजें खिला कर बच्चों की आदतें बिगाड़ देते हैं। इस कारण बड़े होने पर उनके शरीर में अनेक प्रकार के रोग पैदा हो जाते है और स्वाद की दृष्टि से जीभ बहुत बिगड़ जाती है। इसके कड़वे फल हमको कदम-कदम पर दिखलाई पड़ते हैं। अनेक तरह के खर्च बढ़ जाते हैं, वैद्य और डाक्टरों की हाजिरी देनी पड़ती है, शरीर तथा इन्द्रियों को वश में रखने के बदले उनके गुलाम बनकर अपंग-सा जीवन बिताना पड़ता है। एक अनुभवी वैद्य का कथन है कि उसने दुनिया में एक भी निरोगी मनुष्य नहीं देखा। इसका खास कारण स्वाद के फन्दे में फँस जाना ही होता है।”

इन बातों को पढ़कर अनेक लोग घबराते हैं कि घर में रहकर इस नियम का पालन कैसे होगा? क्योंकि वहाँ तो प्रत्येक चीज को तरह-तरह के मसाले, मीठा, खटाई, खुशबू मिलाकर स्वादिष्ट बनाने की चेष्टा की जाती है। इस सम्बन्ध में एक बात तो हमको यह जान लेना चाहिए कि इस प्रकार के नियम का अर्थ यह नहीं होता कि आप एक ही दिन में पूरा परिवर्तन कर डालें। पर यदि यह समझ लिया जाए कि स्वाद की गुलामी शारीरिक अस्वस्थता की उत्पादक है और उससे ब्रह्मचर्य का स्थिर रहना प्रायः असम्भव हो जाता है, तो हम परिस्थिति के अनुसार कोई न कोई मार्ग निकाल सकते हैं। इसलिए इस नियम को स्वीकार करने पर अगर हम चौबीसों घण्टे खाने की चिन्ता ही करते रहें कि क्या खायें, तो यह गलती है। हमको अपनी आदतों पर ध्यान देना चाहिए कि हमें किस प्रकार के स्वाद की आदत पड़ गई है। तब उसको धीरे-धीरे कम किया जाना चाहिए। अगर हम देखें कि हमको मीठा ज्यादा पसन्द आता है और मिठाइयों की इच्छा होती रहती है तो सप्ताह में कुछ दिन ऐसे नियत कर लेने चाहिएं कि उनमें मीठा न खाया जाए। पहले सप्ताह में एक या दो दिन ही उसका त्याग किया जाए। धीरे-धीरे ऐसा हो जाएगा कि आप सप्ताह में एक दिन ही मीठा खाने लगेंगे और शेष दिन उससे बचे रहेंगे। इसी तरह अगर नमकीन या चाट आदि की आदत पड़ गई हो तो उसे भी छोड़ना चाहिए। भोज्य पदार्थों के सम्बन्ध में प्राकृतिक नियम यह है कि उसमें अग्नि का कम से कम संयोग किया जाए। इस दृष्टि से फल ही मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपयुक्त भोजन ठहरता है। पर यह तो एक ऊँचा आदर्श है। सब किसी को इतना आगे बढ़ने की आवश्यकता नहीं। तो भी यदि भोजन में फलों का अधिक समावेश किया जाए और शेष खाने में से मसालों को बिल्कुल कम करके सीधा सादा रोटी और शाक खाया जाए तो स्वास्थ्य की बहुत उन्नति हो सकती है और ब्रह्मचर्य का पालन भी सहज में हो सकता है। जब हम बिल्कुल सादा भोजन करेंगे और कृत्रिम जायके वाली चीजों को त्याग देंगे तो भोजन कभी अधिक मात्रा में न होगा। अधिक पेट भरने पर ब्रह्मचर्य का अधिक भंग होता है, यह एक सुनिश्चित बात है। इसी प्रकार मसाले भी उत्तेजक होते हैं और जो उनको अधिक खाते हैं उनको भी ब्रह्मचर्य के पालन में कठिनाई पड़ती है। इसलिए ब्रह्मचर्य का पालन करने वालों के लिए स्वाद का त्याग करके भोजन के सम्बन्ध में विशेष सावधान रहना परमावश्यक है।


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