महानता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

November 1960

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(डॉ. चमनलाल गौतम)

परमात्मा ने मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनाया है। इस उच्च पद के साथ-साथ उसे बहुत ही महत्वपूर्ण शक्तियों से विभूषित किया है। जब तक वह अपने आपको भूला रहता है तब तक यह शक्तियाँ दबी रहती हैं। जिस प्रकार से भस्म के कारण अग्नि से ज्वाला नहीं उठ पाती, उसी तरह आत्मा पर मनःविक्षेप और आवरण चढ़े होने की वजह से वह शक्तियाँ सुप्त रहती हैं। अपने को न पहचान कर जब मनुष्य अपने आपको एक क्षुद्र शरीरधारी मानता है तो साँसारिक विषय विकारों में उलझ कर अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारता है। पशु, पक्षी, कीट, पतंगों की तरह अपना जीवन व्यतीत करता है। विपत्तियाँ और कठिनाइयों उसके सामने आती हैं तो वह घबरा जाता है, भयभीत होकर रोता और चिल्लाता है, भाग्य को कोसता है, समाज को लाँछन लगाता है, अज्ञानान्धकार में ठोकरें खाता है, परन्तु फिर भी अपने दृष्टिकोण को नहीं बदलता। इसके विपरीत यदि वह अपने आपको जानता कि “ वह आत्मा है, अजर है, अमर है, अविनाशी है। उसको मारने, काटने और जलाने की शक्ति व सामर्थ्य किसी में नहीं है। वह शरीर नहीं है कि केवल उसी के लालन-पालन के लिए दिन-रात व्यस्त रहता है और मनुष्य जीवन की अनमोल घड़ियों को व्यर्थ के विषयों में फँस कर गँवा देता है। वह परमात्मा का राजकुमार है, उसे इसी पद के अनुसार आचरण करना चाहिए। आत्मा महान है, उसे निरन्तर महानता का विकास करना चाहिए। उसमें वह सभी शक्तियाँ हैं जो परमात्मा में हैं। जिस व्यक्ति ने उनको जितना जगा लिया वह उतना ही बड़ा महापुरुष, योगी और सिद्ध कहलाता है। संसार में जितनी भी आत्माएं अवतरित हुई हैं, परमात्मा ने उन सबको समान शक्तियाँ प्रदान की हैं। जिसे ज्ञान का आदिस्रोत मिल गया, वह इस घुड़दौड़ में आगे निकल कर अमर हो गया। जिस मनुष्य ने जितना आत्मविकास कर लिया, वह उतने ही महत्वपूर्ण कार्य कर जाता है। इसलिए शक्तिशाली और महापुरुषों ने जो श्रेष्ठ, असाधारण व चमत्कारी कार्य किये हैं, उनको हम भी कर सकते हैं। हमारे अन्दर अनन्त शक्तियों का भण्डार भरा पड़ा है। जिस प्रकार से हनुमान अपनी शक्तियों को भूले थे, जब उन्हें बताया गया कि उनमें समुद्र को लाँघने की शक्ति है तो वह आगे बढ़े और सफल हुए। आत्मविश्वास के अभाव में शक्ति के होते हुए भी वह उससे काम नहीं ले रहे थे।”

वह पुनः अपने आपको संकेत करता है कि “मुझ में वह शक्ति और सामर्थ्य है कि सूर्य और चन्द्र मेरी आज्ञा से चलें, वायु और अग्नि मेरे नियन्त्रण में रहें, प्रकृति की समस्त शक्तियाँ सम्मान पूर्वक मेरी आरती उतारें। मैं पहाड़ की तरह अडिग हूँ। आँधी और तूफान आयेंगे, मुझ से टकरा कर लौट जायेंगे। जो विषय विकार, वासनाएं, तृष्णाएं और इच्छाएं मुझसे जूझने का प्रयत्न करेंगी, वह, जैसे पत्थर के साथ शीशा टकराता है, वैसे चकनाचूर हो जायेंगी। विपत्तियाँ और कठिनाइयाँ मेरे मित्र के रूप में मेरे साथ निरन्तर रहेंगी, परंतु असफलता देखकर अपना सा मुँह लेकर लौट जायेंगी। मुझे कोई कष्ट नहीं पहुँचा सकता। कष्ट आने तो हैं परन्तु मैं उन्हें अनुभव नहीं करता। कष्ट तो शरीर को होने चाहिएं, आत्मा को नहीं।’

“मैं निरन्तर आगे बढूँगा, अपनी आत्मिक शक्तियों का विकास करूंगा। संसार में फूल की तरह दूसरों को सुगन्धि देते हुए अपना शरीर त्याग दूँगा, दीपक की तरह स्वयं जलकर अन्यों को प्रकाश दूँगा, साँसारिक-बन्धनों को तोड़ डालूँगा और स्वतन्त्र होकर सहस्रों को ज्ञान का दीपक दिखाकर मुक्त करूंगा। मैं श्रेष्ठ, पवित्र, निष्पाप, तेजस्वी और दिव्य स्वरूप हूँ, मैं अपने साथियों पर प्रभाव छोड़े बिना न रहूँगा, मैं समस्त प्राणियों के दुःखों को अपना ही दुःख समझूँगा और उस के निवारण में निरन्तर प्रयत्नशील रहूँगा। स्वार्थपरता, अज्ञानता, नास्तिकता, अश्लीलता, कामुकता, रूढ़िवादिता, अशिष्टता आदि की जड़ों को काट दूँगा। सुप्त आत्माओं को जगाना, अज्ञानियों को ज्ञान के सद्मार्ग पर लगाना, भूले भटकों को ठीक रास्ते पर लगाना मेरा परम कर्तव्य है। जो लोग साँसारिक विषयों में अन्धे हुए पड़े हैं, उनको मैं दिव्य ज्योति दूँगा ताकि उसके प्रकाश में वह अपने मार्ग का निर्णय कर सकें।”

“मुझ में इतनी शक्ति है कि मेरे कदम निरंतर आगे ही बढ़ते चले जाएंगे, मैं संसार में वह हलचल मचाऊँगा कि लोग दाँतों तले उँगली दबायेंगे, वह नवीन क्राँति करूंगा कि अपने समाज व राष्ट्र का कायाकल्प ही हो जाएगा, इसे दी गई मेरी औषधि रामबाण का काम करेगी, मैं सूर्य की तरह चमक कर संसार भर में अपना प्रकाश बिखेर दूँगा, भगवान के लिए पदार्थों को अकेले न भोग कर सबको बाँट दूँगा, सबको अपना भाई मानूँगा, ऊँच-नीच का भेद अपने मन से निकाल दूँगा, उनको सुख शान्ति रूपी अमृत पिलाने के लिए अपने शरीर की आहुति देनी पड़ेगी तो उसके लिए भी तैयार रहूँगा। इस क्षणभर शरीर के साथ मुझे कोई मोह नहीं है, यदि यह दूसरों की सेवा में नष्ट हो जाए तो मेरे लिए परम सौभाग्य की बात होगी। मैं नमक की तरह अपने आपको गलाकर दूसरों को ज्ञान रूपी स्वादिष्ट भोजन कराऊँगा। मैं समाज को एक शरीर मान कर अपने को उसका एक अंग मानूँगा। उसके किसी भी अंग में विकृति आने पर अपनी ही विकृति समझ कर उसे सुधारने की चेष्टा करूंगा। समाज में जो रूढ़ियां और कुरीतियाँ फैली हुई हैं, जिनके कारण उसका शरीर जर्जर होता जा रहा है, उनके ऊपर एटम बम की तरह गिर कर उनको समाप्त कर दूँगा। अनैतिकता ने जो इसका शरीर काला कर दिया है, उसे निकाल कर दूध की तरह सुन्दर बना दूँगा।”

“हम राष्ट्र का गौरव गिरने न देंगे, हमारा प्रत्येक बालक हकीकतराय और गुरु गोविन्दसिंह के बच्चों की तरह धर्म के नाम पर बलिदान होने को तैयार होगा, प्रह्लाद की तरह प्रभु विश्वासी होगा, नचिकेता की तरह साँसारिक भोगों को तिलाँजलि देकर आत्मा की भूख को बुझाने वाला होगा। राम, श्रवण कुमार, भीष्म जैसे पुत्र, कृष्ण जैसे मित्र, राम, लक्ष्मण, भरत जैसे भाई, सीता, सावित्री, गान्धारी, अनुसूया, पार्वती जैसी नारियाँ, रन्तिदेव, शिवि, दधीचि, बन्दा बैरागी जैसे आत्म त्यागी, अपने को तिल तिल जलाने वाले ऋषियों का प्रादुर्भाव होगा। नैतिक व साँस्कृतिक पुनरुत्थान के पथ पर हम निरंतर बढ़ते रहेंगे, युग निर्माण के हमारे स्वप्न साकार हो कर रहेंगे।

“अभी तक मैं नरक कूप में पड़ा जिन्दगी के दिन बिता रहा था। अपने और परिवार के पालन-पोषण में ही अपना समस्त जीवन लगाता था। इसी कार्य को अपना पूर्ण कर्तव्य मान बैठा था। भौतिक उन्नति में ही सुख का अनुभव करता था। आध्यात्म का अमृत नहीं चखा था। अब मेरी आँखें खुल चुकी हैं। अब से सेवा को मैंने अपने जीवन का ध्येय बना लिया है। यही सुख शाँति का स्रोत है। परमात्मा की प्रसन्नता का यह माध्यम है। मैं अपना गृहस्थ के कार्यों से बचा हुआ समस्त समय जनता में धार्मिक प्रवृत्तियाँ बढ़ाने और समाज सेवा के रचनात्मक कार्यक्रमों को क्रिया रूप देने में लगा दूँगा। मैं समय के मूल्य को जान गया हूँ, उसे व्यर्थ गँवाना मैं अपने जीवन पर एक आघात समझूँगा। मैं जानता हूँ कि समय का उचित मूल्याँकन ही मेरी वास्तविक उन्नति का साधन साबित होगा। मुझे जीवन निर्माण का मार्ग मिल चुका है। अब मैं इसे कदापि न छोड़ूंगा। यह मेरी बुद्धिमत्ता की कसौटी है। मैं उसमें सफल होकर रहूँगा।”

“मैं व्रत के महत्व को भली प्रकार से जानता हूँ और प्रतिज्ञा लेता हूँ कि जब तक इस शरीर में प्राण शेष है, तब तक सद्विचारों के प्रसार और राष्ट्र उत्थान के कार्यक्रम में नींव के पत्थर की तरह काम आऊँगा, समाज में धार्मिकता, आस्तिकता, परमार्थ, त्याग, संयम, श्रेष्ठता, आध्यात्मिकता आदि वृत्तियों को जागृत करने के लिए अपना सर्वस्व लगा दूँगा।”

उपरोक्त संकेतों को बार-बार पढ़ना चाहिए और इनका मनन करना चाहिए। मन को हम जैसे संकेत देते हैं वह अपनी गति को उसी ओर मोड़ लेता है। हमें पूर्ण विश्वास है कि यदि हम इन श्रेष्ठ संकेतों को पुनः पुनः ध्यान में लाते रहेंगे तो हमारा जीवन एक नये साँचे में ढलता जायेगा और उसके अनुसार हम अपने आपको मनुष्य कहलाने के अधिकारी बना लेंगे। प्राणी-मात्र इस श्रेष्ठ मार्ग पर चले, उस दयालु माता से यही विनम्र प्रार्थना है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118