आध्यात्म साधना के लिये हिमालय की उपयोगिता

November 1960

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(श्री स्वामी सच्चिदानन्द जी महाराज)

किसी भी कार्य की सफलता के लिए उसके लिए उपयुक्त स्थान और अवसर की आवश्यकता होती है। यह ठीक है कि मनस्वी पुरुषार्थी लोग पत्थरों पर भी अपना रास्ता बना लेते हैं और असम्भव को भी सम्भव बना देते हैं। यह भी ठीक है कि एकाग्रता, निष्ठा, तन्मयता और प्रबल इच्छाशक्ति की प्रचण्डता के सामने अनुपयुक्त परिस्थितियाँ भी उपयुक्त बन जाती हैं, पर साथ ही यह भी मानना ही पड़ेगा कि उपयुक्त स्थान और वातावरण का भी कम महत्व नहीं है। यदि कार्य के अनुकूल परिस्थितियों एवं साधनों की व्यवस्था कर ली जाए तो मंजिल सहज ही होती है और असफलता का भय बहुत अंशों में दूर हो जाता है। इसके प्रतिकूल यदि साधनों का अभाव हो तो मनस्वी व्यक्तियों को भी अपना लक्ष्य पूर्ण करने में बहुत देर लगती है और बहुत कष्ट उठाना पड़ता है। अनुकूल साधन प्राप्त होने पर जितने समय और श्रम में जितनी सफलता प्राप्त की जाती है, प्रतिकूल परिस्थितियों में उससे बहुत कम सफलता, अत्यधिक श्रम और समय लगाने पर उपलब्ध होती है। इसलिये उचित यही है कि किसी कार्य को करने के लिए उसके उपयुक्त परिस्थितियों और साधनों को तलाश कर लिया जाए।

यदि खेती ऊसर या पथरीली जमीन पर की जाए तो फसल बहुत कम ही उपजेगी। अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए उपजाऊ जमीन ढूँढ़नी पड़ेगी और साथ ही खाद, सिंचाई की सुविधा का भी प्रबन्ध करना होगा। यह ठीक है कि कोई मनस्वी व्यक्ति प्राण-पण से जुट जावें तो ऊसर जमीन को भी अपने पुरुषार्थ से उपजाऊ बना सकते हैं पर इसमें उन्हें उससे कहीं अधिक शक्ति व्यय करनी पड़ेगी जितनी कि अधिक उपजाऊ और जल-सुविधा की भूमि प्राप्त होने पर करनी पड़ती। इसलिये बुद्धिमान लोग कार्य की सफलता के लिये उपयुक्त साधनों और परिस्थितियों के सम्बन्ध में भी समुचित ध्यान दिया करते हैं।

आध्यात्मिक साधनाएँ कहीं भी की जा सकती हैं, अपना घर भी उसके लिये बुरा नहीं है। सभी भूमि गोपाल की होने के कारण सर्वत्र परमात्मा ही समाया हुआ है, इसलिए किसी स्थान विशेष में प्रभु का स्मरण करने का कोई प्रतिबन्ध नहीं है। फिर भी उपयुक्त स्थान की अपनी बहुत कुछ विशेषता होती है। गीता के विभूति योग अध्याय में भगवान् ने बताया है कि विशेषता युक्त प्रत्येक वस्तु में मेरी प्रधानता समझनी चाहिये। यही बात स्थान के सम्बन्ध में भी लागू होती है।

जिस प्रकार पशुओं में गौ, पक्षियों में हंस, वृक्षों में पीपल, पौधों में तुलसी, धान्यों में जौ की सात्विकता प्रसिद्ध है, सतोगुणी तत्वों की मात्रा अधिक होने से उनका सान्निध्य एवं सेवन सब प्रकार मंगलमय माना जाता है, इसी प्रकार कुछ स्थानों और नदी सरोवरों में यह सूक्ष्म सात्विक शक्ति प्रचुर परिमाण में पाई जाती है, तदनुसार उनके समीप रहने वालों में भी सत् तत्व बढ़ता है और आध्यात्मिक सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने ऐसे स्थानों की खोज उसी प्रकार की थी जिस प्रकार आज कल सोने, चाँदी आदि धातुओं की खानें खोजी जाती हैं। जो स्थान सत् तत्व से ओतप्रोत मिले उन्हें तीर्थ घोषित किया गया। वहाँ ऋषि-मुनियों ने अपने निवास एवं साधना के स्थान बनाये। साथ ही जनता को भी उन तीर्थों में स्थान एवं दर्शन के अभिप्राय से समय-समय पर आते रहने और वहाँ कुछ दिन निवास करके आत्मिक स्वास्थ्य लाभ करने का निर्देश किया। इन तीर्थों में उन ऋषियों का सान्निध्य, सत्संग एवं मार्ग दर्शन भी आगन्तुक तीर्थ यात्रियों को प्राप्त होता था, जिससे उनके अन्तःकरण की मुरझाई हुई कली फिर हरी हो जाती थी।

दुर्भाग्य और समय के फेर से आज तीर्थों का वातावरण भी विकृत हो गया है। वहाँ के निवासी ऋषियों के वंशज कहाकर दान दक्षिणा तो बटोरते हैं, पर चरित्र, तप, त्याग एवं ज्ञान विज्ञान से रहित होने के कारण आगन्तुकों का कुछ भला नहीं कर पाते। इतना ही नहीं उलटे अपने निम्न मानसिक स्तर और लूट खसोट के कारण लोगों में अश्रद्धा ही उत्पन्न करते हैं। इतना सब होते हुए भी उन स्थानों की सूक्ष्म शक्ति अभी भी पूर्ववत बनी हुई है। गंगा में अनेकों मगर, मेंढक पड़े रहें, उसमें मलमूत्र एवं दुष्कर्म भी करते रहें तो भी गंगा अपवित्र नहीं होती और न उसकी महत्ता में कोई कमी आती है। इसी प्रकार जो स्थान ऋषियों ने सत् तत्व प्रधान खोजे थे, मूलतः आज भी वैसे ही बने हुए हैं यद्यपि बाह्य वातावरण वहाँ का बहुत करके उलटा ही हो गया है।

स्थान की अपनी विशेषता होती है। श्रवण-कुमार जब अपने अन्धे पिता माता की काँवर कंधे पर रखकर उन्हें तीर्थ यात्रा कराने ले जा रहे थे तो एक स्थान ऐसा आया जहाँ पहुँचते ही श्रवणकुमार का मन बदल गया। उन्होंने काँवर जमीन पर रख दी और पिता माता से कहा-आप लोगों की आँखें ही तो नहीं है, पैर तो हैं, पैदल चलिए, मैँ सिर्फ आपको रास्ता बताऊँगा, कंधे पर लादे न फिरूंगा।” आदर्श पितृभक्त श्रवण कुमार में इस प्रकार का अचानक परिवर्तन देखकर उसके पिता क्रुद्ध न हुए वरन् वस्तु स्थिति को समझ गये और उन्होंने कहा “हम लोग पैदल ही चलेंगे पर तुम इतना अवश्य करो कि जल्दी ही इस स्थान को छोड़ दो और तेजी से चल कर कहीं दूसरी जगह में हमें ले चलो।” श्रवण कुमार ने ऐसा ही किया। जैसे ही वह क्षेत्र समाप्त हुआ, बालक की बुद्धि ने पलटा खाया और वह अपनी भूल पर बड़ा दुखी हुआ। पिता माता से रो-रोकर क्षमा माँगने लगा और पुनः कंधे पर बिठा लिया।

श्रवणकुमार के पिता ने बालक को सान्त्वना देते हुए एक पुराना इतिहास बताया कि इस स्थान पर एक दानव रहता था और यहाँ कुकृत्यों एवं कुविचारों का केन्द्र जमा रहता था। उन्हीं अशुभ संस्कारों से संस्कारित होने के कारण यह भूमि ऐसी है कि यहाँ कोई सद्विचार वाला व्यक्ति पहुँचे तो वह भी कुविचारी बन जाता है। इसलिए हे पुत्र, इसमें तुम्हारा दोष नहीं है यह भूमिगत दोष है। ऐसी पातकी भूमियों से दूर ही रहना चाहिए।

इसी प्रकार की एक कथा तब की है जब महाभारत होने को था। श्रीकृष्ण जी को भय था कि भाई भाइयों का युद्ध है, कहीं ऐसा न हो कि लड़ते-लड़ते किसी पक्ष का मोह उमड़ पड़े और दुष्टों के संहार का कार्य अधूरा ही रह जावे। इसलिए युद्ध के लिए ऐसी भूमि ढूंढ़नी चाहिए जहाँ नृशंसता और निर्ममता का बोलबाला हो। ऐसी भूमि तलाश करने के लिए श्रीकृष्ण जी ने सभी दिशाओं को दूर दूर तक दूत भेजे और वहाँ की विविध घटनाओं के समाचार लाकर देने का आदेश दिया। दूत गए और बहुत दिन बाद अपने अपने समाचार लाकर दिये। एक दूत ने बताया कि-”उसने एक स्थान पर ऐसी घटना देखी कि बड़ा भाई छोटे भाई को कह रहा था कि वर्षा के कारण खेत की मेंड़ टूट गई है उसे ठीक कर आओ। छोटे भाई ने बड़े को बड़ा अपमानजनक उत्तर दिया और कहा यह कार्य तू कर! बड़े भाई को ऐसा क्रोध आया कि छोटे भाई का गला मरोड़ डाला और उसकी लाश को घसीटता हुआ वहाँ ले गया जहाँ खेत की मेंड़ टूटी पड़ी थी। उस लाश को ही उसने मिट्टी की जगह डाल कर मेंड़ सुधारी। इस घटना को सुनकर श्रीकृष्णजी समझ गये कि जहाँ भाई-भाई के बीच नृशंसता बरती जा सकती हो वही भूमि इस युद्ध के लिए उपयुक्त है। उन्होंने उसी जगह लड़ाई का झंडा गड़वा दिया और अन्त तक दोनों ही पक्ष इस युद्ध को एक दूसरे के खून के प्यासे होकर लड़ते रहे।

उपरोक्त दो घटनाओं में जिस प्रकार भूमि के कुसंस्कारित होने की चर्चा है उसी प्रकार सुसंस्कारों की भूमियाँ भी होती हैं और वहाँ रहने से मनुष्य की भावनाओं और विचारधाराओं में तदनुकूल प्रवाह उठने लगते हैं। यदि उन प्रेरणाओं को थोड़ा प्रोत्साहन एवं सिंचन मिलता रहे तो निस्संदेह उस स्थान की सुसंस्कारिता से बहुत लाभ उठा सकते हैं। आध्यात्म मार्ग के पथिकों के लिये तो ऐसे स्थान बहुत ही मंगलमय होते हैं। ऐसे स्थान का चुनाव कर लेने से उन्हें आधी सफलता तो उस चुनाव के कारण ही मिल जाती है।

सतोगुणी आध्यात्मिक साधनाओं के लिये हिमालय का उत्तराखण्ड बहुत ही उपयुक्त है। प्राचीन काल में अधिकाँश ऋषियों ने इसी भूमि में अपनी तपस्याएँ पूर्ण की थीं। इस प्रदेश में भ्रमण करने से पता चलता है कि भारतवर्ष के प्रधान-प्रधान सभी ऋषियों के आश्रम प्रायः इसी क्षेत्र में थे। कुछ ऋषि ऐसे भी थे जो आवश्यक प्रयोजनों के लिए देश के विभिन्न भागों में जाकर वहाँ अभीष्ट कार्य करते थे और कार्य की सुविधा के लिये वहाँ भी आश्रम बनाते थे पर जब भी उन्हें अधिक आत्मबल उपार्जन के लिये तप करने की आवश्यकता पड़ती थी तब फिर इसी हिमालय भूमि में जा पहुँचते थे। सहस्र-धारा होकर गंगा इसी प्रदेश में बहती है। यों गंगा का प्रथम दर्शन गंगोत्री से 18 मील ऊपर गोमुख नाम के स्थान में होता है पर वहाँ तो एक छोटा पतला-सा प्रधान झरना मात्र है, गंगा में जो जल एकत्रित होता है वह उत्तराखण्ड की हजार निर्झरणियों, लघु नदियों द्वारा होता है। इन सब को भी गंगा का अंग मानते हैं और ऐसा समझा जाता है कि गंगा इस प्रदेश में सहस्र धारा होकर बही है और फिर अन्त में सब मिलकर हरिद्वार से एक सम्मिलित पूर्ण गंगा बन गई है। इस प्रकार सारा हिमालय प्रदेश, उत्तराखण्ड, गंगा के द्वारा पवित्र होकर आध्यात्मिक साधना के साधकों के लिये अलभ्य सुयोग उपस्थित करता है।

ये ऊँचे, ठण्डे पर्वतीय प्रदेश स्वास्थ्य के लिये जलवायु की दृष्टि से बहुत ही लाभदायक माने जाते हैं। धनी सम्पन्न लोग गर्मी के दिनों में शान्ति, मनोरंजन एवं स्वास्थ्य लाभ करने के लिये इन मनोरम प्रदेशों में सैर करने जाया करते हैं। कश्मीर, शिमला, देहरादून, मंसूरी, अल्मोड़ा, नैनीताल, दार्जलिंग आदि अनेकों स्थान ऐसे हैं जहाँ जलवायु की उत्तमता के कारण स्वास्थ्य लाभ करने और प्राकृतिक मनोरम दृश्यों से आँखों तथा मनोदशा को सुधारने के लिये लाखों व्यक्ति जाया करते हैं और इस कार्य के लिये बहुत धन भी खर्च करते हैं। इस प्रकार उत्तराखण्ड का गंगा से पवित्र हिमालय प्रदेश स्वास्थ्य लाभ करने के लिये अद्वितीय एवं अनुपम स्थान है।

इस गये गुजरे जमाने में जब कि सर्वत्र बेईमानी और बदमाशी की विजय पताका फहरा रही है, उत्तराखण्ड आज भी अधिकाँश बुराइयों से बचा हुआ है। यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ की यात्रा को लाखों यात्री हर साल जाते हैं, उन सभी को इस बात की गवाही में पेश किया जा सकता है कि उस प्रदेश के पहाड़ी आमतौर से ईमानदारी होते हैं। चोरी, व्यभिचार, गुण्डागर्दी, झूठ-हरामखोरी, ईर्ष्या आदि पातकों की पहुँच वहाँ नहीं के बराबर ही है। जिन यात्रियों को पहाड़ियों से व्यवहार करना पड़ता है, वे एक स्वर से कह सकते हैं कि नीचे के प्रदेशों की अपेक्षा पहाड़ी लोग लाख-दर्जे ईमानदार और भले होते हैं। पुलिस के रजिस्टरों को भी इस सबूत में पेश किया जा सकता है कि इस प्रदेश में अपराध कितने कम होते हैं। इसका कारण उस प्रदेश के सूक्ष्म वातावरण की सात्विक विशेषता ही है जिसके प्रभाव से वहाँ के निवासी अभी भी, इस युग में भी, नेक और ईमानदार माने जाते हैं।

साधकों में जो अन्तः ऊष्मा बढ़ती है उसे शाँत करने के लिए हिमालय की शीतलता एक अद्भुत रसायन का काम करती है। गरम प्रदेशों में रहकर कठोर तपश्चर्या करने में कई बार बढ़ी हुई अंतःऊष्मा शान्त न हो सकी तो उस स्थिति में हानि होने की सम्भावना रहती है, पर हिमालय के आँचल में रहकर साधन करने वालों को इस प्रकार का कोई भय नहीं रहता।

जिस प्रकार मनुष्य उन्नति करने से ऊँचा उठता है। जिसमें सद्गुण आते हैं वह उस पद को प्राप्त करता है, जिससे भगवान प्रसन्न होते हैं वह दिन दिन ऊपर की ओर बढ़ता है। स्वर्ग ऊपर माना गया है, सूर्य चंद्र ऊपर दीखते हैं। हिन्दुओं के श्रेष्ठ लोक, जहाँ देवताओं समेत भगवान रहते हैं ऊपर माने जाते हैं। मुसलमान, ईसाई, यहूदी, पारसी आदि अन्य धर्मावलम्बी भी अपना ईश्वर ऊपर आसमान में मानते हैं। ऊँचाई देवत्व की प्रतीक मानी जाती है। पृथ्वी पर भी यही नियम लागू होता है। जो स्थान पृथ्वी पर जितने ऊँचे हैं वे उतने ही दिव्य वातावरण से युक्त माने जाते हैं। हिमालय की ऊँचाई भी उसकी उच्च आध्यात्मिक विशेषताओं का एक कारण है।

पाण्डव हिमालय में शेष जीवन समाप्त करने के लिए-ऊँचाई ही नहीं वरन् वातावरण की उच्चता को भी ध्यान में रखते हुए गये थे। स्वर्गारोहण नामक एक स्थान है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहीं हिमालय में पहुँच कर पाण्डवों ने सीधा स्वर्ग को प्रस्थान किया था। एक मत यह भी है कि प्राचीन काल में उत्तराखण्ड ही स्वर्गलोक था। यहाँ तपस्वी साधक, ऋषि मुनि एवं देव स्वभाव के सत्पुरुष रहते थे। यहाँ इतनी अधिक सत्प्रवृत्तियाँ फैली रहती थीं कि इस वातावरण में लोगों को वे शारीरिक और मानसिक व्यथा, बाधाएँ न सताती थीं, जो संसार में सर्वत्र आमतौर से देखी जाती हैं। वहाँ के आनन्द और उल्लासमय वातावरण को देखते हुए यदि उसे क्षेत्र का नाम स्वर्ग रखा गया हो तो इसमें कुछ आश्चर्य की भी बात नहीं है। संभव है पाण्डव दिल्ली के क्षुब्ध वातावरण से हट कर शेष जीवन वहीं व्यतीत करने और देव पुरुषों के सान्निध्य में रहने गये हों। गंगोत्री से आगे गोमुख से सीधे बद्रीनाथ जाने के पर्वतीय मार्ग में नंदन कानन नामक क्षेत्र आता है। स्वर्ग में नंदन कानन होने की बात प्रसिद्ध ही है।

जो हो यह एक तथ्य है कि आध्यात्मिक साधनाओं के लिए गंगा तटवर्ती हिमालय भाग एक उपयुक्त स्थान है। साधना की महत्ता समझाने वाले केवल तीर्थयात्रा और देव दर्शन के लिए ही नहीं, कुछ समय निकाल कर यदि उधर साधना के लिए भी जाया करें तो उनकी साधना का मार्ग अधिक प्रशस्त हो सकता है। जिस प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य बढ़ाने के लिए कतिपय पहाड़ी प्रदेश अच्छे माने जाते हैं, उसी प्रकार आत्मोन्नति की दृष्टि से भी गंगा तटवर्ती हिमालय सब प्रकार उपयुक्त ही है।


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