मुझको गत और अनागत की परवाह नहीं है,
जब हँसता गाता मेरे आगे वर्तमान है।
मैं नहीं सुनाता उस अतीत की गाथाएँ
जो लाख बुलाने पर भी लौट नहीं आता,
मैं वर्तमान की धरती का ही गायक हूँ
छलिया भविष्य के भ्रम से मेरा क्या नाता,
काली रजनी के अनाचार की कथा कहूँ क्या,
जब मेरे द्वारे मुसकाता स्वर्णिम विहान है।
मंजिल पर आगे बढ़ते जाने का आदी,
सुख-दुख जो कुछ भी मिले सहन कर लेता हूँ,
सूखी बगिया में नूतन फूल खिलाने को
विष भरे शूल भी मिले ग्रहण कर लेता हूँ,
प्यारी धरती के आँचल की छाया क्यों छोड़ूं,
जब मेरे आगे शीश झुकाता आसमान है।
यों तो रुकने को बहुत बहाने होते हैं,
हम असफलता का दोष समय को देते हैं,
जो चलने वाले पथिक, कहाँ कब रुकते हैं,
वे कभी न लेते बल्कि सहारा देते हैं,
वे वर्तमान से लड़ते, उसमें ही जीते हैं,
पर भूत, भविष्यत् की चिंता करता जहान है।
-‘सुधेश’
*समाप्त*