(श्री भगवानसहाय वशिष्ठ)
महापुरुषों के जीवन चरित्रों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि जीवन में एक सहायक, सच्चा मित्र, सहयोगी उनका आत्मविश्वास रहा है। विश्व में जो भी विकास हुआ है वह आत्मविश्वास की ही देन है। संसार के आविष्कारकों, वैज्ञानिकों, महा-पुरुषों, राजनीतिज्ञों एवं धनपतियों के जीवन का अध्ययन किया जाए तो मालूम होगा कि उनका कितना विरोध हुआ, साधनों का अभाव, सहयोग की कमी, फिर भी उन्होंने अपने आत्म-विश्वास के बल पर महान कार्यों का सम्पादन किया। महात्मा गाँधी का ही उदाहरण लीजिए जिन्होंने आधी दुनिया पर छाये ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लेकर उसे भारत से निकाल दिया। महात्मा ईसा के आत्म-विश्वास का ही फल है कि आधी से अधिक दुनिया में ईसाई धर्म फैला हुआ है। तात्पर्य यह है कि आत्मविश्वास की जीवन-ज्योति के अभाव में मनुष्य का एक कदम आगे बढ़ना भी असम्भव है।
प्रातः होती है सूर्य अपनी स्वर्णिम किरणों से जगत पर चमक उठता है। वह बढ़ता जाता है और आकाश के मध्य अपने प्रचण्ड प्रकाश से विश्व को आलोकित कर नवजीवन देता है। किन्तु उसकी मूक प्रेरणा को कभी आपने सुना है। वह प्रातः आकर दरवाजा खटखटाता है और कहता है। ‘उठो, जागो, आगे बढ़ो मेरी तरह तुम भी अपने प्रकाश से प्रकाशित होओ।’ नदी कहती है “आगे बढ़ो अपने क्षुद्र एवं सीमित स्वरूप का त्याग करके विराट का वरण करो।’ पुष्प कह रहे हैं “अपने जीवन की सुरभित कलियों को विकसित करो और मधुर मुस्कान लिए हुए खिल उठो।” इसमें कोई सन्देह नहीं कि मनुष्य का विकास, उत्थान, प्रगति और सफलता ठीक उसी प्रकार सत्य और स्वाभाविक है जैसे सूर्य का प्रचण्ड प्रकाश, नदी को विराट की प्राप्ति, पुष्प का सौंदर्य। किन्तु आत्मविश्वास के अभाव में मनुष्य इन्हें दुर्लभ समझ कर अपनी गति कुँठित कर लेता है। अपने आपको हीन समझकर अपने सत्यस्वरूप को भुला देता है। आत्मविश्वास हीनता की भावना उसे निष्क्रिय और जड़ बना देती है, जो जीवन के मौलिक स्वरूप से विपरीत है, मृत है, नश्वर है।
जीवन देश काल परिस्थिति की सीमा से रहित है। हमारे पूर्वजों ने भूत में जो प्राप्त किया उससे अधिक हम प्राप्त कर सकते हैं। और हमारी आने वाली पीढ़ियाँ उससे भी अधिक। उदाहरणार्थ कुछ समय पहले आज के युग की कल्पना एक स्वप्न मात्र थी। 16वीं शताब्दी का मनुष्य रेलों, विमानों, बड़े-2 यन्त्रों, वैज्ञानिक अनुसंधान, विश्व के राष्ट्रों की मैत्री और पड़ोसी का सा सम्बन्ध आदि को एक स्वप्न और कल्पना मानता था। पर प्रगति के पथ पर चलते हुए मनुष्य ने उन सब बातों को संभव कर लिया। यह क्रम आगे भी जारी रह सकता है और हम निरन्तर अधिकाधिक उन्नति की ओर अग्रसर हो सकते हैं। आशान्वित व्यक्ति ही जीवन की यथार्थता से लाभ उठा सकता है। अनंत आशावानों के बल पर ही संसार का भव्य भवन आधारित है। मनुष्य की भविष्य में सफलता, विकास, निश्चित है, निर्भ्रान्त है। मनुष्य की शक्ति और सत्ता अपरिमित है।
भविष्य के प्रति स्वर्णिम स्वप्न भी मनुष्य जीवन की प्रगति के प्रमुख आधार है। इन स्वप्नों में अनन्त अमृत भरा रहता है जिससे मनुष्य को उत्साह, महत्वाकाँक्षा, रुचि, प्राण रस एवं नवजीवन प्राप्त होता है। आकाँक्षाओं, अभिलाषाओं के भाव-चित्र ही जीवन तथा सृष्टि की कुरूपता का परिमार्जन कर उसे स्वस्थ, निखरा एवं विकसित रूप देते हैं। छोटे-2 भाव-स्वप्नों से ही इतिहासों में नये मोड़ पैदा होते हैं, संस्कृतियाँ बदलती हैं, समाज के ढाँचे बदलते हैं, दुनिया का असौंदर्य दूर किया जाता है। किन्तु इनके साथ-साथ कर्म का संयोग होना आवश्यक है। जब तक कर्म और अपनी आकाँक्षाओं का स्वर्णिम स्वप्नों का समन्वय नहीं होता तो ये केवल मानसिक विकार ही रह जाते हैं। जिन्होंने अपने रंगीन विचारों में कर्म का पुट दिया है उन्होंने नव निर्माण किया है। कर्म पर जुटे रहना आवश्यक है। उठकर चले बिना मंजिल का पाना असम्भव है। भले ही मंजिल पास हो या दूर-भव्य हो, या सुन्दर।
महान् आत्मविश्वास, भविष्य के प्रति सुन्दर आकाँक्षायें लेकर जीवन पथ पर अग्रसर होने मात्र से ही काम न चलेगा। जीवन कोई रेल का इंजिन नहीं है जो लोहे की समतल पटरियों पर बिना किसी रुकावट के अगले स्टेशन पर पहुँच जाएगा। नदी को अपने लक्ष्य समुद्र की ओर बढ़ने में कितने पहाड़ों, वन-उपवनों, मैदान, धरती को पार करना पड़ता है। कहीं रुकावट पड़ती है तो अपना मार्ग स्वयं बनाती है, कहीं मुड़ती है, पता नहीं कितने विघ्नों, अवरोधों, रुकावटों को सहन कर वह अपने लक्ष्य पर पहुँचती है। ठीक इसी प्रकार जीवन का मार्ग, आदि से अंत तक कठिनाइयों का मार्ग है। उसमें पद-पद पर विघ्नों का सामना करना पढ़ता है। उसमें प्रतिक्षण विरोधी शक्तियों से प्रतियोगिता होती रहती है यही जीवन संघर्ष है। संसार में ऐसा कोई मार्ग नहीं है जो पूर्णरूपेण आपदाशून्य हो। हर यात्री को जीवन पथ में विघ्न, बाधाओं, विरोधों का सामना करना ही पड़ेगा।
मनुष्य की आकृति से पता चलता है कि उसे रुकने के लिए नहीं, आगे बढ़ने के लिए ही बनाया गया है। एक महापुरुष ने कहा है “यदि मनुष्य को ईश्वर ने पीछे हटने के लिए बनाया होता तो उसकी आँखें सिर के आगे न बनाकर पीछे की तरफ बनाता।”
यदि विघ्न बाधाएँ आती हैं, आपको झटका-मारती हैं, तो आप गिर जाते हैं हिम्मत पस्त हो जाते हैं किन्तु इससे काम नहीं चलेगा। गिरकर भी उठिये फिर चलने का प्रयास कीजिए। एक बार नहीं अनेकों बार आपको गिरना पड़े किन्तु गिर कर भी उठिये और आगे बढ़िये। उस छोटे बालक को देखिये जो बार-बार गिरता है किन्तु फिर उठने का प्रयत्न करता है और एक दिन चलना सीख जाता है। आप की सफलता, विकास, उत्थान भी उतना ही सुनिश्चित है। अतः रुकिए नहीं, उठिए। ठोकरें खा कर भी आगे बढ़िये, सफलता एक दिन आपका स्वागत करने को तैयार मिलेगी।
आने वाले विघ्नों, कठिनाइयों में भी अपना धर्म न छोड़ें। स्मरण रखिये प्रत्येक विघ्न-बाधा का सर्व प्रथम आघात आपके उत्साह आशा और भविष्य के प्रति आकर्षण पर होता है। इनका सीधा वार आपके हृदय पर होता है किन्तु कहीं आपका हृदय टूट नहीं पाये, इसके लिए यह सोच लीजिए कि जिस प्रकार घोर अन्धकार के बाद सूर्य का प्रकाश प्राप्त होता है उसी प्रकार आपका उज्ज्वल भविष्य प्रकाशित होने वाला है। अमावस की काली रात के पश्चात् चन्द्रमा की चाँदनी सहज ही फूट पड़ती है। आज का कठिन समय भी गुजर जाएगा, इसे हृदयंगम कर लीजिए। अपने आशावादी दृष्टिकोण, आकाँक्षाओं, उत्साह की सम्पत्ति को यों ही न खोइये। उनका बचाव कीजिए और प्रगति के पथ पर आशा और उत्साह के साथ आगे बढ़ते ही जाइये।