क्या हमारे शरीर का अमर होना सम्भव है?

June 1960

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(श्री ‘भारतीय योगी’)

जब हम सभ्य संसार के मध्य-काल के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो हमको दो बातें विशेष रूप से दिखलाई पड़ती हैं। इस काल में भौतिकवाद का प्रचार विशेष बढ़ गया था और लोगों का ध्यान धन, वैभव, भोग विलास के साधनों की वृद्धि में लगा हुआ था। इस जमाने के विद्वानों और पदार्थ विद्या (विज्ञान) के ज्ञाताओं ने दो बातों की तरफ विशेष ध्यान दिया- एक रसायन (सुवर्ण बनाना) और दूसरे अमरत्व। रसायन के सम्बन्ध में भारतीय विद्वानों ने पारस-भस्म द्वारा तरह-तरह के परीक्षण किये और पुराने ग्रन्थों की बातों पर विश्वास किया जाए तो कुछ लोगों को इसमें सफलता भी प्राप्त हो गई थी। पर इस विद्या को सदैव अत्यन्त गोपनीय रखा गया था। इसलिए यदि किसी को इसमें सफलता भी हो गई तो उसका रहस्य प्रायः मृत्यु के पश्चात् उसी के साथ चला गया।

पर अमरत्व के विषय में स्थिति कुछ दूसरी रही। एक अमरत्व तो किसी देवी, देवता, सिद्ध महापुरुष के वरदान या आशीर्वाद द्वारा माना गया। यह एक निजी विश्वास से सम्बन्ध रखने वाली बात थी। इसके लिए कठोर तपस्या और गम्भीर साधना की आवश्यकता बतलाई गई थी, जो सबके लिये सम्भव नहीं मानी जा सकती।

दूसरा उपाय योगाभ्यास का है। योग में बड़ी-बड़ी शक्तियाँ मानी गई हैं और उसके द्वारा अमर होना ही नहीं वरन् और भी ऐसी-ऐसी गुप्त शक्तियों का प्राप्त होना लिखा है कि जिनके मुकाबले में ‘अमरत्व’ कोई बड़ी चीज नहीं। वास्तव में योगशास्त्र का अर्थ तो प्रायः यह है कि योगी उन्नति करते-करते ईश्वर के दर्जे तक पहुँच जाता है और उसके लिये संसार की कोई भी चीज या कार्य असम्भव नहीं होता।

तीसरा उपाय औषधियों या जड़ी बूटियों का सेवन करना था। इससे “अमरत्व” प्राप्त होता था उसका वास्तविक अर्थ स्वास्थ्य और आयु की वृद्धि ही होता था। अब भी प्राचीन शास्त्रों तथा आयुर्वेद ग्रन्थों में इसके प्रमाण और विधान मिलते हैं, पर उन सबका तात्पर्य आयु की वृद्धि ही जान पड़ता है।

इस दृष्टि से जब हम अमरत्व के विषय में विचार करते हैं तो हमको उन कट्टर भाग्यवादियों की बात एक प्रकार की हठधर्मी या अंध विश्वास ही जान पड़ता है, जो यह कहते हैं, मनुष्य की आयु सर्वथा पहले से निश्चित है और उसमें एक दिन की घटा बढ़ी हो सकना असम्भव है- “राई घटै न तिल बढै रह रे जीव निशंक।” हमारी समझ में इस प्रकार की धारणा अज्ञान की ही परिचायक है। समझदार आदमी अब भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि रहन-सहन, आचरण, संयम और प्रयत्न करने से उम्र अवश्य घट या बढ़ सकती है। आजकल के लोगों की बात छोड़ दीजिए। वेद, शास्त्र, पुराण आदि सभी के प्रमाणों से इस बात को सिद्ध किया जा सकता है कि आयु को दीर्घ बनाना असम्भव नहीं है। उदाहरणार्थ शुल्क यजुर्वेद के मन्त्र 23-24 में कहा गया है-

“मनुष्य के स्थूल शरीर की कम से कम आयु 100 वर्ष की है और उसे योगाभ्यास द्वारा बढ़ाया जा सकता है।” इसी वेद में अथवा (मन्त्र 3-60) में लिखा है कि “मनुष्य की आयु कहाँ तक बढ़ाई जा सकती है इसकी कोई सीमा नहीं, वह अमर भी हो सकता है।”

आयुर्वेद के सबसे माननीय ग्रंथ संहिता में ऐसे कितने ही प्रयोग दिये गये हैं जिनके सेवन करने से 1000 साल तक आयु होना संभव माना है। सुश्रुत संहिता में स्पष्ट रूप से लिखा है कि यदि उसकी बतलाई विधि के अनुसार सवा मन शिलाजीत का सेवन कर लिया जाय तो मनुष्य अवश्य ही एक हजार वर्ष तक जीवित रह सकता है। (देखो सुश्रुत संहिता का चिकित्सा स्थान पृष्ठ 718)

“योगदर्शन” में प्राणायाम और समाधि की जो क्रियाएँ बतलाई गई हैं उनका एक उद्देश्य शरीर को चिरस्थायी बनाना ओर मृत्यु पर विजय प्राप्त करना भी है। योगशास्त्र में जगह-जगह ऐसी सिद्धियों का वर्णन है जिनके द्वारा योगी अपने शरीर को पर्वत के समान भारी या रुई के समान हलका कर सकता है, पानी पर चल सकता है, आकाश में उड़ सकता है, आग में नहीं जल सकता और कोई रोग या पीड़ा उस पर असर नहीं डाल सकती। योगी तो आजकल भी देखने में आते हैं जो कई-कई सप्ताह तक साँस बन्द करके जमीन में गड़ जाते हैं, तेज जहर, काँच और लोहे की कीलें खा लेते हैं, शरीर को हथौड़ों से पिटवाते हैं, तो भी उन पर कोई असर नहीं पड़ता, योग की इन्हीं शक्तियों को और सिद्धियों को ध्यान में रखकर स्वामी विवेकानन्द ने विज्ञान का गर्व रखने वाले अमेरिकनों के सामने स्पष्ट शब्द में कह दिया था-

“योग शास्त्र वर्णित प्राणायाम के सिद्ध होने पर मानो अनन्त शक्ति का द्वार खुल जाता है। मानलो किसी व्यक्ति ने प्राणायाम के विषय को पूर्ण तरह से समझ लिया और उसे जीतने में भी सफलता प्राप्त कर ली तो फिर संसार में ऐसी कौन सी शक्ति है जो उसे प्राप्त नहीं? उसकी आज्ञा से चन्द्र सूर्य भी हट सकते हैं, छोटे से छोटे परमाणु से लेकर बड़े से बड़े सूर्य तक पर उसका अधिकार रहता है। क्योंकि उसने प्राण पर विजय प्राप्त कर ली है। प्राणायाम का लक्ष्य उस शक्ति को प्राप्त करना ही है जिससे प्रकृति वशीभूत हो सकती है। जब योगी सिद्ध हो जाता है तो प्रकृति में ऐसी कोई वस्तु नहीं रहती जो उसके वश में न हो जाए। अगर वह देवताओं को बुलायेगा तो वे उसकी आज्ञा पाते ही हाजिर हो जायेंगे। अगर वह किसी मरे हुए व्यक्ति को आज्ञा देगा तो वह भी तुरन्त सामने उपस्थित होगा। प्रकृति की सभी शक्तियाँ उसकी आज्ञानुसार दास की भाँति कार्य करती हैं।”

श्वेताश्वेतर उपनिषद् के दूसरे अध्याय में भी योग की ऐसी महिमा लिखी है-

लघुत्वमारोग्यम वर्ण प्रसादा स्वरसोवष्टंच। गंधः स्तम्भो मूत्र पुरीषमल्यं योग प्रवित्त प्रथमा वदन्ति॥ 1॥

पृथ्व्याप्ते जोहानिलखे समुत्थिते पंचात्मके योग गुणे युवत्ते। न तस्य रोगो नजरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगानिग्नमयं शरीरं॥ 2॥

अर्थात् शरीर का हल्कापन, स्वास्थ्य, निर्लोभता, सुन्दर वर्ण, मीठा स्वर, मल-मूत्र की अल्पता और शरीर में से एक प्रकार की मनोहर सुगन्ध- ये सब लक्षण योग आरम्भ करते ही दिखलाई पड़ने लगते हैं॥ 1॥ जब पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँचों तत्वों से योग की अनुभूति उत्पन्न होती है तब समझना चाहिए कि योग आरम्भ हो गया। जिसने इस प्रकार योग-अग्नि से युक्त शरीर प्राप्त कर लिया है, उस पर रोग, बुढ़ापा, मृत्यु का कोई प्रभाव नहीं पड़ता॥ 2॥

वास्तव में विचार पूर्वक देखा जाए तो यह मनुष्य का शरीर यंत्र या मशीन की तरह है। जिस प्रकार कोई मशीन एक होशियार कारीगर के हाथ में रहकर पचास वर्ष चल सकती है और वही एक अनाड़ी के हाथ में पड़ जाने से पाँच वर्ष में ही बेकार हो जाती है, उसी प्रकार मनुष्य शरीर भी ढंग से रहने और पूर्ण देखभाल करने से सौ-डेढ़ सौ या अधिक समय तक काम दे सकता है, पर लापरवाह और असंयमी आदमी उसे पच्चीस-पचास वर्ष में ही खत्म कर डालता है। जिस प्रकार कोई मशीन पच्चीस वर्ष की गारंटी होने पर भी समय समय पर मरम्मत करने ओर पुर्जों के बदलने से पचास-साठ वर्ष तक भी काम दे सकती है, उसी प्रकार जो मनुष्य संयम, रसायन प्रयोग, कायाकल्प अथवा योग साधन का सहारा लेकर शरीर को विकारों से मुक्त रखते हैं, वे उसे सौ वर्ष तक भी कायम रख सके तो उसमें अविश्वास की कोई बात नहीं है। यही शरीर से अमर होना कहा जा सकता है।


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