महाभारत के दो माननीय श्लोक

June 1960

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(श्री अगरचन्द्र नाहटा)

पशु-पक्षियों की अपेक्षा मानव जीवन को दुर्लभ और श्रेष्ठ बतलाया गया है। इसका कारण है मन और बुद्धि की विशेष शक्ति का होना। अन्य प्राणियों की अपेक्षा प्रकृति से ही मनुष्य को ज्यादा ग्राम हुई है। इस शक्ति के द्वारा मानव ने अनेक आविष्कार किये और गहरे चिंतन और विवेक द्वारा आत्मा को बहुत ऊँची स्थिति में पहुँचाया। मनीषियों के जो कार्य अभ्युदय और निःश्रेयस के कारण हों, उन्हें धर्म की संज्ञा दी है। भारतवर्ष में अनेक ऋषि-मुनियों ने एकाँत जंगलों में एवं पर्वतों में जाकर कठोर तप और साधना की और उसके फलस्वरूप जो कल्याण पथ उन्हें दिखाई दिया, उसे उन्होंने जगत के समक्ष रखा। एक दीप से अनेक जले। मानव समाज अज्ञान रूपी अन्धकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर बढ़ा। अपने कल्याण के साथ विश्व के कल्याण की उदात्त भावना उदित हुई। समस्त प्राणियों को अपने समान मानते हुए बन्धुत्व या प्राणियों को अपने समान मानते हुए बन्धुत्व या मैत्री भाव का प्रचार होने लगा। हिंसा से विरत होकर अहिंसामय जीवन की ओर प्रगति हुई । जैसा बर्ताव हम दूसरों की ओर से अपने लिए चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार हम दूसरों के साथ करें। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषामं न समाचरेत् आत्मतवत् सर्वभूतेषु यो पश्यति सः पश्यति। यह आदर्श वाक्य जनमन में प्रतिष्ठित हुए। मिथ्या भाषण, चोरी, पर स्त्री गमन, त्याज्य है, सत्य, आचार्य एवं ब्रह्मचर्य उपादेय है, इस तरह का मानवधर्म प्रतिष्ठित हुआ। बड़े-बड़े महापुरुष समय-समय पर उत्पन्न हुए और उन्होंने कठोर साधना एवं गहरे चिन्तन से बन्धन और मोक्ष के कारणों को ढूँढ़ा सुख और दुःख क्या है? और क्या होते हैं? इत्यादि जीवन के अनन्त प्रश्नों का समाधान खोजा और अपनी उदात्त वाणी से अनुभव की अमृतवर्षा कर मानवों को अजर-अमर बना दिया। धर्म मानव के मस्तिष्क की सबसे महत्वपूर्ण उपज है। धर्म के सम्बन्ध में जितना चिन्तन गहराई और अनेक दृष्टि-बिन्दुओं से भारतवर्ष में हुआ है उतना विश्व के अन्य किसी भी देश में नहीं हुआ साथ ही जीवन में भी धर्म की जितनी प्रतिष्ठा भारतीय मानवों में हुई, उतनी अन्यत्र शायद ही कहीं हुई हो। भारत में ऐसे ज्ञानी, योगी, भक्त , जीवनमुक्त सन्त महात्मा हुए इनकी तुलना में अन्य किसी भी देश के किसी भी व्यक्ति को नहीं रखा जा सकता। ऐसे गौरवशाली भारतवर्ष की आज जो स्थिति है, उसका जितना नैतिक पतन हो गया है, उसे देखकर अवश्य ही हृदय को गहरा आघात लगता है। थोड़े वर्षों पहले तक जो नीतिमय जीवन और धर्म-भावना यहाँ के जन-जन में दिखाई देती थी, उसका सहसा इतना अधिक लुप्त हो जाना बड़ी ही विचारणीय और अखरने वाली बात है।

गम्भीर विचार करने पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि हमने अपने महापुरुषों और उनकी अनुभव वाणी से जो प्रेरणा एवं शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये थी वह नहीं ग्रहण कर रहे हैं और पाश्चात्य भौतिक उन्नति की चकाचौंध से हम किंकर्त्तव्यविमूढ़ से हो गये हैं। मध्यकाल में बाहरी क्रियाकाण्डों व रूढ़ियों पर अधिक जोर दिया गया और धर्म के मौलिक तत्व भूला से दिये गये। इसका परिणाम यह हुआ कि मन्दिर और गुरुओं के पास जाते हुए भी धार्मिक ग्रंथों को पढ़ते व सुनते हुए भी, वास्तविक धर्म से हम दूर होते गये और इसी का परिणाम है कि हमारे आदर्श और व्यवहार में बहुत अधिक अन्तर आ गया है। आज के नवयुवकों एवं नवशिक्षकों की तो धर्म के प्रति आस्था ही नहीं रही, वे इसे पाखण्ड, ढोंग और मानव की प्रगति में बाधक तक कहने लगे हैं। इसलिए हमें अपने महापुरुषों की जीवनी और वाणी से पुनः ऐसी प्रेरणा और शिक्षा ग्रहण करनी आवश्यक है कि जिससे जीवन में धर्म पुनः प्रतिष्ठित हो। धर्म की उत्पत्ति कहाँ से होती है? उसकी बुद्धि किन कामों में आती है? उसकी स्थिति या स्थापना किसके द्वारा होती है? और किन-किन बातों से धर्म की बेल सूखकर नष्ट हो जाती है? इसके संबंध में महाभारत में दो बहुत ही सुन्दर श्लोक प्रश्नोत्तर के रूप में आये हैं। पहले श्लोक में उपर्युक्त प्रश्न उठाये हैं और दूसरे में उनका उत्तर दिया गया है।

प्रश्न-कथमुत्पद्यते धर्मः कथं धर्मो विवर्धते।

कथं च स्थाप्यते धर्मः कथं धर्मो विनश्याति॥

उत्तर -सत्येनोत्पद्यते धर्मो दया दानेन वर्धते।

क्षमया स्थाप्यते धर्मः क्रोध लोभाद विनश्यति॥

उत्तर क्या है? थोड़े में बहुत अधिक कह दिया गया है। दूसरे श्लोक पर पुनः विचार करते रहने की आवश्यकता है। आप उस पर जितना मनन करेंगे, उतना ही उसका महत्व अधिकाधिक प्रकट होता जायगा।

सबसे पहली विचारणीय बात यह है कि धर्म की उत्पत्ति कहाँ से होती है? और उसके उत्तर में कहा गया है कि सत्य से। सत्य शब्द बहुत व्यापक है। केवल झूठ बोलना ही असत्य नहीं है पर हमारे मन में कुछ और है और वाणी में कुछ दूसरी ही बात है और आचरण उससे भिन्न है तो वह जीवन का सबसे बड़ा असत्य है। मनुष्य में कमजोरियाँ बहुत सी हैं और गलतियाँ भी होती ही रहती हैं पर यदि हम अपने दोषों और पापों को पाप रूप में ही मानते हैं फिर भी उन्हें छोड़ नहीं पाते पर इसके लिए हार्दिक पश्चाताप करते रहते हैं तो एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा जिस दिन हम अपने जीवन के सुधार या उद्धार में प्रगति कर आगे बढ़ सकेंगे। पर यदि हम अपने दोषों को दोष ही नहीं मानेंगे और उन्हें छिपाते रहेंगे, या झूठी शान या दिखावट के लिए जीवन में कपट या धोखाधड़ी को स्थान देंगे तो हमारा जीवन दिनोंदिन अधिकाधिक कलुषित होता जायगा। क्योंकि सत्य से हम दूर हट गये, जो वस्तु जिस रूप में नहीं समझी या विपरीत समझी, यह तो असत्य ही हुआ। बोलना तो पीछे होता है, सबसे पहले मन में खराबी आती है, वाणी और वर्तन तो उसके बाद। इसीलिए हमें अंतर को टटोलते रहना है कि उसमें असत् का आकर्षण तो नहीं बढ़ गया।

अब दूसरा प्रश्न है, यदि किसी शुभ संयोग से सत्य या धर्म की ओर हम अभिमुख हो गये हैं तो उस धर्म भावना में कमी न हो, अपितु वह बढ़ती ही चली जाय, इसके लिए हम क्या उपाय करें? तो ऊपर के श्लोक में इसके उत्तर में कहा गया है कि दया और दान से धर्म की वृद्धि होती है क्योंकि हिंसा मानव समाज में पशुओं की अपेक्षा भी अधिक बढ़ी हुई है। अहिंसा के द्वारा ही एक दूसरे का संरक्षण हो रहा है, नहीं तो परस्पर में कट मर कर सारे प्राणी, समाप्त ही हो गये होते। प्रेम वात्सल्य, अनुकम्पा, करुणा, दया, सहानुभूति, सद्भावना, सहयोगिता सभी अहिंसा के ही विविध रूप हैं। अपने जन्म के साथ ही प्राणी को दूसरे की सहायता अपेक्षित होती हैं, क्योंकि वह उस समय आत्मरक्षा करने में समर्थ नहीं होता। इसीलिए माता-पिता, परिवार की वात्सल्य या प्रेम भावना से ही वह जीवित रहता है व बढ़ता है। दया का ही एक प्रकार दान है। हमारे पास जो कुछ है, यदि उसके देने से दूसरे का कुछ भी भला होता हो तो हम करुणा या दया भाव से उसकी अवश्य सहायता करें, यही हमारा कर्तव्य हो जाता है। जबकि हमारा जीवन दूसरों की सहानुभूति, सहायता पर निर्भर है और हम दूसरों से किसी न किसी रूप में प्रतिपल ग्रहण ही कर रहे हैं तो हम दूसरों को अपनी शक्ति संपत्ति द्वारा सहायता दें, यह हमारा स्वधर्म हो जाता है।


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