पर-सेवा-रत हो निशि वासर, यह आभास करो! हृदय में नव उल्लास भरो!!
गिरे हुए, उनको अपनाकर?
मन के भ्रम को दूर भगाकर।
जग का मंजुल मधु सपना हर,
ऊंच नीच को गले लगाकर॥
सरल-हृदय से सबका दुखहर, अभिनव-आश भरो! हृदय में नव उल्लास करो!!
गिरि शृंगों को नाप-नाप कर।
सागर की गहराई माप कर।
असत कर्म से काँप-काँप कर, गिर गिर कर उठ हाँप हाँप कर,
तम से पूरित पथ को तजकर सदा प्रकाश करो! हृदय में नव उल्लास भरो!!
सुन्दर से सुन्दर छवि लखकर,
देख असुन्दर वस्तु भयंकर,
दुखदाई सुखदाई मन हर,
चिंतन कर सोचो तुम क्षणभर,
अखिल सृष्टि में ब्रह्म व्याप्त है यह विश्वास करो! हृदय में नव उल्लास भरो!!
-रामस्वरूप खरे साहित्य रत्न