परमपूज्य आचार्य जी का अज्ञातवास

June 1960

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यह अंक जब तक पाठकों के हाथों में पहुँचेगा तक तब परम पूज्य आचार्य जी अपनी अज्ञातवास की यात्रा को रवाना हो चुके होंगे। 4 जून को गायत्री जयन्ती का पर्व मनाने के बाद 5 जून को वे अपने पुनीत संकल्प की पूर्ति के लिए चल पड़ेंगे और एक वर्ष तक किसी विशिष्ट साधना में संलग्न रहेंगे।

साधनामय जीवन

यों उनका जीवन आरंभ से ही साधनामय है। जितना समय साधारण व्यक्ति अपनी आजीविका कमाने में लगाते हैं उतना वे नित्य अपनी साधना में देते रहे हैं। उन्होंने सर्वसाधारण के सामने अपने जीवन को एक प्रयोग के रूप में उपस्थित किया है कि गृहस्थ रहते हुए, आजीविका उपार्जित करते हुए, लोक सेवा करते हुये कोई मनुष्य आध्यात्मिक साधना भी कर सकता है, और उस मार्ग में आशाजनक प्रगति भी संभव हो सकती है। आमतौर से लोग गृहस्थ जीवन को लोकसेवा एवं परमार्थ साधना में बाधक मानते हैं, उनका अनुमान होता है कि ब्रह्मचारी या संन्यासी ही कोई आध्यात्मिक प्रगति कर सकने में सफल हो सकते हैं, गृह जंजालों में फँसे हुए लोगों के लिए तो वह मार्ग कठिन ही है। ऐसे लोगों की निराशा का समाधान यों शास्त्र-प्रमाणों, तर्कों और उदाहरण से भी हो सकता है पर परम पूज्य आचार्य जी ने इसके लिए अपना उदाहरण उपस्थित करना ही सर्वोत्तम उपाय समझा। गृहस्थ रहे और यह प्रमाणित किया कि आत्मोन्नति के लिए गृहस्थ जीवन किसी भी प्रकार बाधक नहीं हो सकता वरन् एक अच्छी परिस्थिति उत्पन्न कर लेने पर तो वह सहायक भी होता है।

क्या गृहस्थ जीवन बाधक बना?

जब साधना क्रम ठीक ही चल रहा था और गृहस्थ जीवन उनके मार्ग में कुछ बाधक भी न था तो घर छोड़कर कहीं दूर दिशा में अज्ञातवास करके ही कोई साधना करने की आवश्यकता उन्हें क्यों पड़ी? यह जिज्ञासा ‘अखंड-ज्योति’ परिवार के प्रत्येक प्रेमी सदस्य के मन में उठनी स्वाभाविक है। आज से एक वर्ष पूर्व जब उनने अपना यह विचार मेरे सामने उपस्थित किया तो मुझे भी यही आशंका हुई कि -कहीं गृह व्यवस्था उनके कार्यक्रम में बाधक तो नहीं हो रही हैं? मैं कहीं उनके मार्ग में रोड़ा तो नहीं हूँ? यों जब से मैंने इस घर में प्रवेश किया है तभी से मैंने यहाँ जीवित तीर्थ के दर्शन किये हैं। देव प्रतिमा को चलती-फिरती, खाती-बोलती देखा है फलस्वरूप मेरी अन्तरात्मा एक विशुद्ध ‘भक्त’ की भावना के ढाँचे में ढल गई है। उनकी आकाँक्षाओं के अनुरूप ही मैंने अपने को बनाने और चलाने का प्रयत्न किया है, परिवार की परिस्थितियों को भी ऐसा बनाया हैं जिससे उनके लक्ष की पूर्ति में बाधा न पड़े फिर भी मनुष्य मनुष्य ही है। उससे गलतियाँ होनी स्वाभाविक हैं, संभव है कोई पारिवारिक कारण ऐसा हुआ हो जिससे उन्हें घर छोड़कर कहीं अज्ञात वास में साधना करना सुविधाजनक जँचा हो।

इस आशंका को मैंने उन्हीं के सामने रखा क्योंकि यदि वस्तुतः घर असुविधाजनक एवं बाधक सिद्ध हुआ हो तो यह मेरी अब तक की जीवन साधना को असफल ही सिद्ध करता है। साथ ही उनका वह प्रयत्न भी असफल हो जाता है जिसके अनुसार वे संसार में यह उदाहरण उपस्थित कर रहे थे कि गृहस्थ जीवन आध्यात्मिक प्रगति के पथ में बाधक नहीं वरन् सहायक है। आचार्यजी की अज्ञातवास जाने की घोषणा-अब तक के हम दोनों के प्रयत्न को असफल ही सिद्ध कर सकती है। ऐसी दशा में जब कि छोटे दो बच्चों के उत्तरदायित्व से मुक्त होने से पूर्व ही वे गृह त्याग की बात सोचते हैं तो निश्चय ही वह गृहस्थ जीवन की तुच्छता एवं व्यर्थता को ही सिद्ध करता है।

अब तक के प्रयत्न की असफलता

आचार्य समर्थ हैं। उनके जीवन में अगणित आश्चर्यजनक सफलताएं जुड़ी हुई है। गृहस्थ में अध्यात्म साधना की सफलता का उनका प्रयोग यदि व्यर्थ चला जाता है तो इस एक असफलता से उनका कुछ बिगड़ता नहीं शेष सफलताएं भी उनके जीवन को प्रकाशवान बनाये रहने के लिए पर्याप्त हैं। पर मेरा तो सारे जीवन में केवल एक ही प्रयोग रहा है, वह है उनके अनुकूल अपने को ढालना और परिवार का वातावरण भी उनके अनुकूल उत्पन्न करना। यदि यह प्रयत्न व्यर्थ गया तो मेरे लिए यह अत्याधिक दुख और लज्जा की ही बात हो सकती है। ऐसा असफल जीवन जीने में मुझे कोई उत्साह नहीं -यह बात मैंने एक वर्ष पूर्व उन्हीं दिनों आचार्य जी को बता दी थी जब उन्होंने अज्ञातवास का प्रस्ताव सर्वप्रथम मेरे सामने रखा था।

मैंने उन्हें यह भी बताया था कि इसकी प्रतिक्रिया उनके लाखों अनुयायियों पर भी होगी। वे भी यही सोचेंगे कि जब आचार्य जी गृहस्थ वातावरण से अपने उद्देश्य पूरे न कर सके तो हमारे लिए भी वह संभव नहीं है। जब उन्हें घर छोड़ तप, साधना के लिए अज्ञातवास ही चुनना पड़ा तो हमारे लिए भी यही मार्ग उचित है। ऐसा सोचकर हजारों परिवार जो उनका अनुकरण करके अपने-अपने गृहस्थ जीवनों को आदर्श बनाने को प्रयत्नों में भारी सफलता भी मिल रही है-वह सब कुछ व्यर्थ हो जाता है।

अब आचार्यजी का जीवन अकेले का उनका ही नहीं रहा वरन् असंख्यों व्यक्ति उससे प्रकाश प्राप्त करते हैं, इसलिए यदि कोई गलत कदम उठा तो उसका प्रभाव उन सभी पर पड़ेगा जो उनसे प्रकाश प्राप्त करते हैं। उनकी प्रत्येक क्रिया-एक आदर्श एवं अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित करती है। इसलिए अज्ञातवास की बात से जो प्रतिक्रिया उत्पन्न हो सकती है उसके लिये मैंने उन्हें अत्यन्त विनम्र शब्दों में समझाया और उन्हें इसके लिए पुनः विचार करने की प्रार्थना की। यों नारी सुलभ हृदय प्राप्त होने से मुझमें मोह आदि दुर्बलताएं भी कम नहीं हैं। स्वभावतः मैं उनके प्रति श्रद्धा और भक्ति के साथ ममता भी उतनी ही रखती हूँ जितनी कोई नारी रख सकती है। इसलिए उनके सान्निध्य का सुख मेरे लिए स्वर्ग और वियोग का दुख नरक तुल्य अनुभव होना भी स्वाभाविक ही हैं। फिर भी मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि इस दुर्बलता से प्रेरित होकर मैं यह सब नहीं कह रही हूँ। ऐसे तो अनेक अवसरों पर मैंने आत्मनियंत्रण कर लिया है। नित्य कठोर श्रम संकल्प, आत्म दान, आजीवन ब्रह्मचर्य आदि अनेकों पिछले प्रसंगों की उन्हें याद दिलाते हुए मैंने कहा कि मुझमें दुर्बलताएं तो अनेक हैं पर वे ऐसी नहीं हैं कि उनके मार्ग में, उनके आदर्शों की पूर्ति में किसी प्रकार बाधक हों। इसलिए अज्ञातवास विरोधी मेरा प्रस्ताव केवल मोह न माना जाय। उसके अतिरिक्त जो तथ्य उसमें सन्निहित हों उन्हें भी समझा जाय।

मार्ग दर्शन में बाधा पड़ेगी

अनेकों साधक अपनी आध्यात्मिक साधना में आचार्यजी से नियमित मार्गदर्शन प्राप्त करते हुए प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहे हैं। अज्ञातवास में चले जाने पर क्या उनकी प्रगति, बीच में ही रुकी न पड़ी रहेगी? समय-समय पर साँसारिक पीड़ाओं और परेशानियों से त्रस्त व्यक्तियों को जो ज्योति एवं शान्ति की सामग्री उनसे उपलब्ध होती रहती है-वह क्रम क्या टूट न जायगा? इस प्रकार एक विशाल जन समुदाय अपनी लौकिक और पारलौकिक गुत्थियों को सुलझाने में जिस सम्बल का सहारा लेता है, यदि वह उनके सामने से हट जाय तो क्या उन्हें धक्का न लगेगा, निराशा न होगी? फिर इतने बड़े परिवार के अगणित व्यक्ति उन्हें अपने प्राण प्रिय आत्मीय जन की भाँति प्यार भी करते हैं, उनके सान्निध्य के लिये भ्रमर की भाँति मँडराते रहते हैं, क्या उन सब की कोमल भावनाएँ इस अज्ञातवास के कारण वेदनाग्रस्त न होंगी?

गायत्री तपोभूमि तथा अखण्ड ज्योति कार्यालय द्वारा जो युगनिर्माण के कार्यक्रम अभी चल रहे हैं उनके यथावत् चलते रहने के लिये भी उनकी उपस्थित अभी आवश्यक है। दोनों ही संस्थाएँ अभी उन्हीं से मार्गदर्शन प्राप्त करती हैं। दोनों को ही देर तक अभी उनकी आवश्यकता है। उनके अज्ञातवास से दोनों के ही कार्यक्रमों में अड़चन आवेगी। नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना-जिसके अंतर्गत अनेकों वैयक्तिक एवं सामाजिक बुराइयों का शमन एवं चरित्र गठन का कार्य अत्यन्त विशाल पैमाने पर किया जाने को है, उनके सक्रिय सहयोग के बिना लड़खड़ा सकता है। होमात्मक 24 हजार कुण्डों के गायत्री यज्ञ इस गायत्री जयन्ती तक सफलतापूर्वक पूर्ण हो गये, पर भारत भूमि में यज्ञीय जीवन यापन की वैदिक परम्परा का विकास किया जाना अभी शेष है। इन सब कार्यक्रमों को अधूरी स्थिति में छोड़कर अज्ञातवास को चले जाने से राष्ट्र की एक बड़ी आवश्यकता को हानि ही पहुँचेगी।

आशंकाओं का समाधान

मेरी इन सब आशंकाओं को आचार्य जी ने बहुत ध्यानपूर्वक सुना। यों वे अत्यन्त सूक्ष्मदर्शी हैं- दूर तक प्रत्येक बात को बहुत सावधानी से सोचते हैं और काफी विचार विमर्श के बाद ही किसी निर्णय पर पहुँचते है इस अज्ञातवास सम्बन्धी निर्णय के पीछे भी बहुत दिनों से उनकी सूक्ष्म दृष्टि काम कर रही थी, और गुणागुणों पर पर्याप्त विचार विनियम करने के पश्चात् ही उनने यह प्रस्ताव उपस्थित किया था। फिर भी जब मैंने अपने तर्क उनके सामने उपस्थित किये तो उन्होंने कई दिनों तक फिर पुनर्विचार किया इतने पर भी उन्हें अपना पूर्व निर्धारित निर्णय ही अधिक उपयुक्त लगा और उन्होंने पुनः अपना वही विचार दुहराया। मेरी आशंकाओं के बारे में भी उन्होंने उत्तर दिये। कई बार उनकी युक्तियाँ तो मेरी समझ में ठीक तरह नहीं आती, कभी-कभी मन में सन्देह भी बना रहता है, फिर भी उनके साथ इतने लम्बे समय से रहने के कारण मैं जानती हूँ कि उनके विचारों, निर्णयों एवं अभिवचनों के पीछे कोई अतीन्द्रिय शक्ति काम करती है और इसके परिणाम प्रायः वैसे ही होते हैं जैसे वे सोचते हैं। तपोभूमि का निर्माण, गायत्री परिवार का संगठन, सहस्रकुंडी गायत्री यज्ञ, देश भर में 24 हजार यज्ञ, वेदों का प्रकाशन, युग निर्माण की विशद योजना आदि कार्यों के आरम्भ करते समय जो साधन उपलब्ध थे उनसे इन कार्यों की सफलता तो क्या-थोड़ी प्रगति की भी आशा नहीं की जा सकती थी। पर हम सबने आश्चर्य की तरह देखा कि वे असम्भव जैसे कार्य सम्भव ही नहीं सरल भी हो गये। यह प्रसिद्ध बातें हैं, इनके अतिरिक्त और भी अगणित ऐसी बातें हैं, जिन्हें सब कोई तो नहीं पर थोड़े से लोग जानते हैं कि उनकी अन्तः प्रेरणा भी अद्भुत होती है और उसके पीछे सुनिश्चित तथ्य छिपे होते हैं।

जब उनने अपने अज्ञातवास जाने की बात पुनः पुष्ट कर दी तो उसकी उपयोगिता और आवश्यकता स्वीकार करने में मुझे कुछ कठिनाई न थी, उनके विचार को सरल बनाना ही मेरे लिये कर्त्तव्य था, वही मैं कर भी रही हूँ। जो काम उन्होंने कभी भी सौंपा उसे अपनी तुच्छ योग्यता और शक्ति की परवाह न करके सदा मैंने आँख मुंह कर शिरोधार्य किया, अभी भी कर रही हूँ। आगे भी करूंगी जो आशंकाएं मेरे मनमें थी वे व्यक्तिगत रूप से समाधान कर लीं, उनका निर्णय मेरे लिए वेद वाक्य है पर मेरी ही भाँति अखण्ड ज्योति के अनेकों पाठक भी यह आशंकाएं कर सकते हैं क्योंकि अपना सारा ही अखण्ड ज्योति परिवार उन्हें मेरी ही तरह श्रद्धा आदर और आत्मीयता की दृष्टि से देखता है, सभी का उन पर अधिकार है। सभी उनसे अपने मन की व्यथा कह सकते हैं सभी को उनके वियोग का कष्ट हो सकता है, सभी को उनका सान्निध्य न रहने से हानि दृष्टि-गोचर हो सकती है, इसलिये सभी को इन प्रश्नों को उनके सामने उपस्थित करने की इच्छा हो सकती है जो मैंने उनके सामने रखे। इन आशंकाओं का उनके जो उत्तर दिये हैं वे हम सबके लिये विचारणीय हैं अतएव उन्हें इस लेख में लिपिबद्ध किया जा रहा है।

तपश्चर्या के लिए नीरवता आवश्यक

आचार्य जी का कथन है कि साधना और तपश्चर्या दो भिन्न वस्तुएँ हैं, दोनों की शक्ति और मर्यादाएं भी भिन्न-भिन्न हैं। साधना सामूहिक परिस्थितियों में हो सकती है, इससे मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में सन्निहित अन्नमय कोष और मनोमय कोष साधक के गुण, कर्म, स्वभाव में सात्विक परिवर्तन हो सकता है, इस परिवर्तन से उत्पन्न हुई आँतरिक निर्मलता के कारण ईश्वरीय प्रकाश की दिव्य किरणें साधक के अंतःप्रदेश में आती और उसे आलोकित करती हैं। वह आत्म कल्याण के मार्ग पर बढ़ता है और शाँति भी प्राप्त करता है। अन्नमय कोष को साधना द्वारा परिपुष्ट कर लेने पर शरीर निरोग और दीर्घजीवी कष्ट सहिष्णु और तितिक्षाशील बन सकता है। उसकी प्रतिभा निखर सकती है और कठिनाइयों से लड़कर सफलता का मार्ग प्रशस्त करने योग्य पुरुषार्थ उत्पन्न हो सकता है। मनोमय कोष की साधना से मानसिक विकारों,कुविचारों और दुर्गुणों का शमन होता है, स्मरण शक्ति एवं बुद्धि काल में अभिवृद्धि हो सकती है। चंचलता नष्ट होती और चित्त की एकाग्रता में सफलता मिलती है। साहस, धैर्य, निर्भयता, श्रद्धा, बढ़ती है और इन्द्रिय-विषयों के लिए उठती रहने वाली लिप्सा एवं वासना पर नियंत्रण स्थापित होता है। मन के प्रवाह को कुमार्ग में से रोककर सन्मार्ग पर अग्रसर करना एवं जन्म जन्मान्तरों तक संग्रहीत कुसंस्कारों का परिशोधन किया जा सकता है। शरीर का सर्वोपरि संचालक , मनोवृत्तियों का प्रधान निर्माणकर्ता मन ही है। मनोमय कोष की साधना करके मन जब काबू में आ जाता है तो आत्म निर्माण का कार्य सरल हो जाता है। फिर मनुष्य अपने आपको अभीष्ट परिस्थितियों के अनुरूप ढाल सकता है, अपने में मनोवाँछित विशेषताएं उत्पन्न कर सकता है। इस प्रकार वह अपने भाग्य का निर्माता आप बन सकता है।

उपासना और तपस्या का अन्तर

आचार्य जी ने यह भी बताया कि उपासना और साधना जो सामूहिक जीवन में रह कर की जा सकती है उसके द्वारा अन्नमय कोष और मनोमय कोष को विजय करके अपने व्यक्तिगत जीवन में अनेकों सतोगुणी विशेषताएं उत्पन्न करके जीवन लक्ष को पूर्ण करने के लिए प्रगति की जा सकती है और धीरे-धीरे इस मार्ग पर चलते हुए ईश्वर प्राप्ति भी हो सकती है। सर्व साधारण के लिए सद्गृहस्थों के लिए यही उपासना एवं साधना का मार्ग सरल एवं उपयुक्त भी है। ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग यह तीनों ही योग इस उपासना मार्ग के अंतर्गत आते हैं। तपश्चर्या का मार्ग उससे ऊपर का तथा अधिक शक्तिशाली है। आत्मा के सूक्ष्म अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत अनेकों शक्ति केन्द्र सन्निहित हैं। इनमें कुण्डलिनी योग के अंतर्गत षट्चक्र तो प्रसिद्ध ही है। पर बात वहीं तक सीमित नहीं है, इन षट्चक्रों से भी सूक्ष्म अन्य अगणित शक्ति ग्रंथियाँ मनुष्य के स्थूल और सूक्ष्म शरीरों में मौजूद है और उनमें अपने ढंग की अनेकों विशेषताएं छिपी हुई हैं। इन सुप्त संस्थानों को जागृत एवं क्रियाशील बनाकर मनुष्य अपने अन्दर ऐसे चुंबकीय शक्ति केन्द्र उत्पन्न करता हैं जो अखिल विश्व के अदृश्य अन्तरिक्ष में फैली हुई प्रकृति और परमेश्वर की अनेकों विभूतियों को अपनी ओर आकर्षित कर सके। तप का उद्देश्य उन आध्यात्मिक शक्तियों की उपलब्धि है जो अपना ही नहीं अन्य अनेकों का भी महत्वपूर्ण श्रेय साधन कर सकती हैं।

घर का वातावरण यदि सात्विक हो तो उपासना का क्रम आनन्दपूर्वक चल सकता है, पर तप एक विशेष प्रकार की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसके लिए नीरव एवं निर्बाध वातावरण की आवश्यकता होती है। सामूहिक जीवन में निरन्तर नाना प्रकार के विचार, भाव और प्रभाव उत्पन्न होते रहते हैं उससे मन पर जो प्रतिक्रिया होती है उससे उपासना का कार्यक्रम तो चलता रह सकता है पर तप में विक्षेप उत्पन्न होता है। तप के लिए हर किसी को नीरव निर्बाध एकान्त वातावरण में जाना पड़ता है। अब तक का साधनात्मक इतिहास इस बात का साक्षी है। देवताओं, मनुष्यों और असुरों ने विभिन्न उद्देश्यों के लिए अब तक अगणित बार तप किये हैं और उसके फलस्वरूप प्रकृति माता एवं परमपिता के सम्मुख अपने उन आध्यात्मिक पुरुषार्थों के बदले में अभीष्ट प्रतिफल-वरदान भी प्राप्त किये हैं पर हुआ यह सब घर से बाहर वन, पर्वत आदि एकान्त स्थानों में ही है। घर रह कर उपासना हो सकती है-तपस्या नहीं।

तपश्चर्या का अर्थ संन्यास नहीं

तप का अर्थ संन्यास नहीं है। संन्यासी घर छोड़कर, कवाय वस्त्र धारण कर, परिव्राजक बनता है उसका पुनः गृहस्थ में प्रवेश नहीं हो सकता, पर तपस्या में ऐसी बात नहीं है। अनेकों गृहस्थ तप द्वारा अभीष्ट शक्ति प्राप्त करके पुनः अपने साँसारिक जीवन में रहे हैं। प्राचीनकाल में अनेकों ऋषि कठोर तप करते थे उनमें से अधिकाँश गृहस्थ थे। वशिष्ठ विश्वामित्र, लोमश, जमदग्नि, अत्रि, गौतम, याज्ञवलक्य आदि ऋषि कई-कई बालकों, के पिता थे और अपनी धर्मपत्नियों के साथ गृह व्यवस्था में रहते हुए भी सघन वनों में तप की साधना व्यवस्था करते थे। भागीरथ ने गंगा को लाने के लिए प्रचंड तप किया, तप का उद्देश्य पूरा होने पर वे पुनः अपने घर आ गये। रावण, कुम्भकरण, मेघनाद, भस्मासुर, सहस्रार्जुन आदि ने भी प्रचंड तप किये थे। उनने भी अभीष्ट शक्ति प्राप्त की और अपने-अपने साधारण जीवन में लौट आये। पार्वती ने पति प्राप्त करने के लिए, ध्रुव ने ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए, स्वायंभु मनु और सतरूपा रानी ने दिव्य पुत्र प्राप्ति के लिये तप किये और सफलता का वरदान प्राप्त कर अपने घरों को लौट आये। आचार्य जी ने बताया कि-तप और संन्यास दो सर्वथा भिन्न चीज हैं। वे न तो संन्यास ले रहे हैं जिससे बच्चों की जिम्मेदारी से विमुख होने का प्रश्न पैदा हो और न सार्वजनिक जीवन से ही अलग हो रहे हैं ताकि मार्गदर्शन प्राप्त करने वाले लोगों के मार्ग के कोई अड़चन आवे। तप साधना में साधक की शक्तियाँ और भी तीव्र सूक्ष्म एवं स्वच्छ हो जाती हैं इसलिए वह दूर रहते हुए भी दूसरों को अन्तः प्रेरणा देता रह सकता है। अलौकिक कार्यों में तो वाणी तथा वस्तु विनिमय की आवश्यकता पड़ती है पर आध्यात्मिक कार्यों में इसकी विशेष आवश्यकता नहीं पड़ती। वह कार्य सूक्ष्म चेतना के आधार पर दूर रहते हुए भी हो सकते हैं। अज्ञातवास में रहते हुए भी जिन लोगों को प्रेरणा देने की आवश्यकता है वह कार्य निर्बाध गति से चल सकता है।

ताँत्रिक तपश्चर्यायें घर में नहीं वरन् मरघट आदि नीरव स्थानों में रात्रि के समय होती हैं, इसमें भी जन कोलाहल से दूर रहने का ही उद्देश्य छिपा हुआ है। प्राचीनकाल में व्यस्त जीवन में रहने वाले लोग भी जब सुविधा मिलती थी तब कुछ समय के लिए किन्हीं पवित्र तीर्थों की एकान्त भूमि में, वहाँ निवास करने वाले तपस्वियों के सान्निध्य में-स्वल्पकालीन तप करने जाया करते थे आज कल तीर्थों का वह वातावरण नहीं रहा वहाँ भी शहरी रंग-ढंग जम गये हैं, पर प्राचीनकाल में उनकी स्थापना इसी दृष्टि से हुई थी। आज वे परम्परायें लुप्त होती जाती हैं फिर भी तप का महत्व अनादिकाल से जैसा था वैसा ही अब भी और आगे भी बना रहेगा।

अधूरे कार्य न रुकने का आश्वासन

अनेकों आवश्यक कार्यों को अधूरे छोड़ कर अभी तप साधना के लिए जाने की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि जो समस्याएं सामने हैं उन्हें सुलझाने के लिए बड़े परिमाण में आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता है। गायत्री परिवार ने युग निर्माणकारी जिस नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान योजना का आरम्भ किया है उसे विशाल एवं व्यापक पैमाने पर विस्तृत किया जाना है। हमारा राष्ट्र लम्बे अन्धकार युग को पार कर अब स्वाधीनता का प्रभात काल देख रहा है। इस पुनीत पर्व पर राष्ट्र को सुनियमित करने के लिए अनेकों प्रयत्न अनेकों दिशाओं में हो रहे हैं, पर हमारी सबसे बड़ी सनातन सम्पत्ति आध्यात्मिकता के विकास के लिए जो प्रयत्न होना चाहिए था उसकी ओर उदासीनता एवं उपेक्षा ही दृष्टिगोचर होती है। जिन आन्तरिक सद्गुणों के आधार पर कोई जाति महान बन सकती है उन्हें विकसित करने वाला अध्यात्मवाद आज उपेक्षा के गर्त में पड़ा है। उसे अग्रगामी बनाकर ही मानवता का वास्तविक रूप देखा जा सकता है। हमारा देश महापुरुषों का देश रहा है। इसका विकास तभी माना जा सकता है जब यहाँ के निवासी अपने उज्ज्वल चरित्र और उच्च आदर्शों को कार्यान्वित करके केवल अपने यहाँ ही सच्ची शान्ति स्थापित न करें वरन् अनैतिकता से उत्पन्न हुई समस्याओं से संत्रस्त सारे संसार का भी मार्गदर्शन कर सकें। इस स्थिति को उत्पन्न करने के लिए गायत्री परिवार द्वारा तथा अन्य माध्यमों द्वारा प्रयत्न चल रहे हैं। इन प्रयत्नों में उत्साह, शक्ति , ईमानदारी, त्याग तथा पुरुषार्थ की भारी आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति कार्यकर्ताओं की अन्तःप्रेरणा द्वारा ही हो सकती है। यह प्रेरणा सभी को समुचित रूप से उपलब्ध होती रहे इसके लिए उग्रतप ही एकमात्र उपाय हो सकता है। इस अज्ञातवास में यही शक्ति उपलब्ध करने का प्रयत्न होगा।

व्यक्ति गत रूप से ही अनेकों साधक अपना आत्म बल बढ़ाने और जीवनोद्देश्य को पूरा करने के लिए प्रयत्नशील हैं। इनके अपने प्रयत्न ही पर्याप्त नहीं है, और न मौखिक मार्गदर्शन मिलते रहने से ही काम चल सकता है वरन् आवश्यकता इस की है कि उनकी निज की साधना के अतिरिक्त कोई बाह्य शक्ति और सहायता भी उनकी प्रगति को तीव्र बनाने में सक्रिय सहायता प्रदान करे। तभी इनकी साधनाएं सफल हो सकती हैं। इस प्रकार का सहायता कोष भी तप साधना द्वारा ही संचित होने की आशा की जा सकती है। आचार्य जी साधक परिवार के लिए इसी शक्तिकोष की खोज में जा रहे हैं।

परिजनों के लिए अधिक सहकार

जिस प्रकार अपना धन देकर कोई किसी दूसरे की आर्थिक कठिनाई को हल कर सकता है, जिस प्रकार अपना रक्त देकर कोई किसी दूसरे घायल या बीमार की जीवन रक्षा कर सकता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति अपनी तपस्या का एक अंग किसी दूसरे को देकर उसकी कठिनाइयों को सरल कर सकता है, किसी तपस्वी के आशीर्वाद के आधार पर इन दुखियों की बड़ी-बड़ी कठिनाइयों के हल होने की अनेक घटनाएं होती रहती हैं। यह आशीर्वाद केवल जीभ हिला देने मात्र से सफल नहीं हो सकते वरन् उसे सफल बनाने के लिए तप और पुण्य की आवश्यक मात्रा भी देनी पड़ती है। इस संसार में कर्म फल का का अटूट नियम है। मनुष्य अपने शुभ-अशुभ कर्म के फलस्वरूप ही सुख-दुख प्राप्त करता हैं। यदि किसी को उसके प्रारब्ध से अधिक सुख देना हो, या उसके प्रारब्ध से जुड़े हुए दुखों का कोई अंश कम करना हो तो इसके लिए सशक्त आशीर्वाद मिलना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब आशीर्वाद देने वालों के पास तप की पूँजी समुचित मात्रा में संग्रहीत हो और वह उसमें से आवश्यक अंश भी उस आशीर्वाद प्राप्त करने वाले को प्रदान करे। धर्म सेवा के कार्यों में लगे हुए ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जिनके मार्ग को सरल बनाने के लिए उन्हें इस प्रकार की सहायता आवश्यक होती है। इस अज्ञातवास साधना में एक प्रकार का आध्यात्मिक सहायता कोष एकत्रित करना भी आचार्य जी का उद्देश्य है।

आगामी सन् 62 में ज्योतिषशास्त्र के अनुसार एक राशि पर आठ ग्रह एकत्र होते हैं। महाभारत के समय एक राशि पर सात ग्रह थे इसका दुष्परिणाम 18 अक्षेहिणी जन-समूह का तथा आर्थिक एवं सामाजिक सुव्यवस्था का भारी विनाश हुआ था। आठ ग्रहों का एक राशी पर एकत्र होना उससे भी कुयोग है। उसकी शान्ति के लिए अनेक उच्चकोटि के तपस्वी इन दिनों विशिष्ठ तपस्याओं में संलग्न हो रहे हैं आचार्य जी के तप का एक उद्देश्य यह भी है।

देश और जाति की सेवा

इसके अतिरिक्त भी विश्व की अनेकों समस्याएं उनके सामने हैं। व्यक्ति गत रूप से उन्होंने अपने लिए स्वर्ग मुक्ति की ऋद्धि-सिद्धि की कभी आकाँक्षा नहीं की धर्म सेवी विशुद्ध ब्राह्मण का आदर्श जीवन बनाना और निभाना इतनी मात्र उनकी व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षा है। बाकी तो वे जो कुछ भी करते और सोचते हैं उसमें लोकहित एवं धर्मसेवा की भावनाएं ही प्रधान रूप में रहती हैं। इस तप साधन के समय भी उनके सामने ऐसे ही प्रश्न हैं। भारत की प्राचीन अध्यात्म विद्याएं एक-एक करके लुप्त हो गई या होती जा रही हैं, इनकी खोज करना आवश्यक है। वेदों का सामान्य शिक्षात्मक अर्थ उन्होंने जनता के सामने उपलब्ध कर दिया पर अभी वेद मंत्रों के वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक अर्थों का प्रकाश में लाया जाना शेष है। यह कार्य सूक्ष्म योग दृष्टि प्राप्त होने पर ही संभव है। वह दृष्टि तप साधना के बिना और किसी प्रकार उपलब्ध नहीं हो सकती ।

गायत्री तपोभूमि तथा अखण्ड ज्योति के बारे में यह चिन्ता है कि कहीं भविष्य में डगमगाने न लगें पर आचार्य जी पूर्ण निश्चिंत है जिन आत्म दानियों ने गायत्री तपोभूमि तथा गायत्री परिवार का संचालन कार्य अपने जिम्मे लिया है, वे काफी विश्वस्त और कर्मठ हैं। वे अपने उत्तरदायित्वों को भली प्रकार समझते हैं और उन्हें निभाते भी रहेंगे। अखंड ज्योति के लिए आचार्य जी ने नियमित रूप से अपनी रचनाएं देते रहने का आश्वासन दिया है। अब तक कई वर्षों से अत्याधिक कार्यव्यस्त रहने के कारण वे अखण्ड ज्योति के लिए स्वयं कुछ विशेष नहीं लिख सके थे पर अब वे पाठकों को अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर करने का मार्गदर्शन अखंड ज्योति के माध्यम से निश्चित रूप से करते रहेंगे। इस प्रकार गायत्री तपोभूमि की ही भाँति अखण्ड ज्योति का प्रकाश दीप भी अपने ढंग से जलता ही रहेगा।

मंगलमय यात्रा शुभ हो

आचार्य जी कम से कम एक वर्ष के लिए जा रहे हैं यह समय आगे भी बढ़ सकता है। कहाँ जा रहे है वह स्थान उन्होंने सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं किया है पर निश्चित रूप से वह हिमालय ही होगा। तप की प्राचीन परम्परायें हिमालय की ओर से ही पूर्ण होती रही हैं अब भी वही स्थान उसके लिए उपयुक्त है। निश्चित अवधि के पश्चात् वे अज्ञात स्थान से ज्ञात स्थान में निवास करने मन से चल रही है इससे प्रतीत होता है कि वे सार्वजनिक सेवा का आकार लेखनी, वाणी से ऊपर उठा कर तप साधना ही बनायेंगे। उनका आगामी कार्यक्रम तप प्रधान ही होगा।

मेरे मन में जो अनेकों आशंकाएं प्रारंभ में थी लगभग वैसी ही अनेकों पाठकों ने भी अपने पत्रों में प्रदर्शित की हैं। पर इतनी विवेचना उपलब्ध होने से समाधान हो गया और यह विश्वास बन गया कि उनका तप, साधना के लिए, देश एवं जाति के लिए किसी प्रकार अहितकर नहीं वरन् लाभदायक ही है।

वे अब तक जन साधारण की सेवा में जीवन भर संलग्न रहे हैं, इस तप साधना के बाद वे और भी अधिक ठोस सेवा जनता जनार्दन की करेंगे। तप के लिए जितना एकान्त उन्हें चाहिए वह मिलना उचित ही है, उससे वे अब की अपेक्षा और भी अधिक सक्षम बनेंगे और अखण्ड ज्योति परिवार के परिजनों की ही नहीं भारतीय धर्म और संस्कृति की भी विशाल परिमाण में एक महत्वपूर्ण सेवा कर सकने में समर्थ होंगे।

उन्हें अनेकों कष्ट उठाने होंगे, वे हम सबसे जुड़े रहेंगे, इस विचार से हमारे दुर्बल हृदय में करुणा पूर्ण आर्द्रता उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। उनकी विदाई की बात स्मरण करते ही आँखों में आँसू भर पड़ते हैं, पर यह सन्तोष है कि ऐसे ही आँसुओं से सींचे जाने पर धर्म का पौधा हरा रह सकता है देवमूर्ति आचार्य जी ने अपने सारे जीवन को तिलतिल कर ज्ञान की ज्योति जलाने के लिए होमा है हम लोग प्रभु बिन्दुओं से उनके चरणों में श्रद्धाँजलि चढ़ाते हुए भी सन्तोष कर सकते हैं। माता इन महामानव के महान लक्षों को पूर्ण करें यही कामना है।


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