गायत्री की तीन महाशक्तियाँ

June 1960

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गायत्री सर्व मंत्राणाँ शिरोमणितया स्थिता।

विघानामपि तेनैताँ सावयेर्त्सव सिद्धये॥

त्रिव्याहृति युताँ देवीर्मोकार युग सम्पुटाम्।

उपास्य चुतरो वर्गान्साधयेद्यो न सोऽन्धकीः॥

देव्या द्विजत्व मासाद्य श्रेयसेन्यंरतास्तुये।

ते रत्नमभिवाँच्छन्ति हित्वा चिन्तामणिं करात्॥

- वार्तिक

अर्थात्-गायत्री सब मंत्रों तथा विद्याओं में शिरोमणि है। उससे सब इन्द्रियों की साधना होती है। जो व्यक्ति इस उपासना से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पदार्थों को प्राप्त नहीं करते वे अन्धा बुद्धि वाले हैं। जो द्विज गायत्री मंत्र के होते हुए भी अन्य मंत्रों की उपासना करते हैं वे ऐसे ही मूर्ख हैं जैसे हाथ में आई चिन्तामणि को फेंककर छोटे रत्नों को ढूंढ़ने फिरने वाला मूर्ख होता है।

गायत्री को सब मंत्रों तथा सब क्रियाओं का शिरोमणि कहा गया है। यों भारतीय साधना विज्ञान में अनेकों दक्षिणमार्गी और वाममार्गी आध्यात्मिक विद्याएं भरी हुई हैं और उनके लाभ तथा परिणाम भी एक से बढ़कर चमत्कारपूर्ण हैं। आत्म कल्याण करने वाली साधनाओं की भाँति लौकिक सुख साधन जुटाने वाले अनुष्ठान भी अनेक हैं। मंत्र विद्या में एक से एक बढ़कर रत्न मौजूद हैं। प्राचीनकाल में यह साधना विज्ञान अपने चरम उत्कर्ष पर था और ऋषि मुनि इसी अनुसंधान में अपना अधिकाँश समय लगाते थे, और विश्व कल्याण के लिए अनेक मंगलमय उपहार उपस्थित करते थे। इन्हीं उपहारों के बलबूते पर यह देश किसी समय विश्व का मुकुटमणि बना हुआ था और ज्ञान, विज्ञान, व्रत, पुरुषार्थ, धन संपत्ति का भण्डार माना जाता था।

भारतीय साधना विज्ञान के आकाश में अनेकों साधना विद्याओं के बीच गायत्री उपासना सूर्य के समान सर्व प्रमुख मानी गई है। अनेक छोटे मोटे प्रयोजनों के लिए अनेकों मंत्र साधनों के विधान उपलब्ध हैं, इसी प्रकार किन्हीं विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनेकों देवी देवताओं की। उपासनाओं के विधान भी मौजूद हैं पर सर्वांगीण, लौकिक और पारलौकिक लक्षों को एक ही बाण से लक्ष बेध करने वाली गायत्री ही है। चारों वेदों की जननी होने के कारण सभी वेद विद्यायें इसमें बीज रूप में अवस्थित है। इसलिए सभी सिद्धियों की जननी भी इसे कहा जाता है। कोई सिद्धि ऐसी नहीं जो गायत्री साधना से प्राप्त न हो सकती हो।

अन्य मन्त्रों की साधना भी किन्हीं छोटे मोटे प्रयोजनों के लिए की जा सकती है और उनका सीमित फल भी प्राप्त किया जा सकता है पर शास्त्रकार का कथन है कि जब एक ही कल्प वृक्ष के नीचे बैठने से सारे मनोरथ पूरे हो सकते हैं तो अलग-अलग वृक्षों को ढूँढ़ते फिरने और उनके नीचे बैठने से क्या लाभ? चिन्तामणि सब मणियों में श्रेष्ठ और बहुमूल्य मानी गई है उसे फेंक कर जैसे छोटे-मोटे रत्नों के लिए परिश्रम करते फिरना मूर्खतापूर्ण है इसी प्रकार गायत्री उपासना की उपेक्षा करके छुटपुट साधनाओं में समय लगाना उपरोक्त शास्त्र वचन में व्यर्थ बताया गया है।

अब यह देखना है कि गायत्री की ऐसी क्या विशेषता है जिसके कारण इतना महत्व उसे मिला? बात यह है कि गायत्री विश्वव्यापी जीवनी शक्ति, चेतना शक्ति एवं प्राण शक्ति का स्वरूप है । क्रम निष्क्रिय है, उसे साक्षी, दृष्टा, निर्लिप्त माना गया है। विश्व के विभिन्न कार्यों में उसका सीधा हस्तक्षेप नहीं है। संसार में जो कुछ भी हलचल हो रही है विकास, परिवर्धन एवं विनाश का जो कुछ क्रम चल रहा है उसमें शक्ति की महिमा काम कर रही है। विश्व की रचना का आधार ही ब्रह्म की यह इच्छा शक्ति है-एकोऽहं बहुस्याम-मैं अकेला हूँ बहुत हो जाऊँ की ईश्वरीय इच्छा ने ही संसार की रचना और व्यवस्था का ढाँचा खड़ा कर दिया। वह इच्छा ही शक्ति रूपिणी होकर इस विश्व में ओतप्रोत हो रही है और सारी व्यवस्था का संचालन कर रही है।

इस मूल परा प्रकृति का नाम गायत्री है। पीछे आवश्यकतानुसार उसी से सत, रज, तम यह तीन गुण प्रस्फुटित हुए जिन्हें ब्रह्म, विष्णु, महेश या सरस्वती, लक्ष्मी, काली के नाम से पुकारा जाता है रचना, विकास और विनाश के लिए ज्ञान शक्ति और संपत्ति के लिए पीछे यह त्रिगुणात्मक विकास गायत्री से ही हुआ है। गायत्री के तीन अक्षरों में एक-एक करके तीनों तत्व समाए हुए हैं। इन तीनों ही प्रधान प्रक्रियाओं का उद्गम होने के कारण गायत्री को शक्ति बीज कहा गया है और उसकी उपासना को जड़ सींचने के समान बताया गया है जबकि अन्य साधना पत्तों पर चन्दन लगाने के समान हैं।

गायत्री शब्द के तीन अक्षरों का भावार्थ समझने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह उस सर्व प्रधान शक्ति तत्व का आकर्षण मन्त्र है जिसे प्राण कहते हैं। प्राण को जीवन, ज्ञान और शक्ति का उद्गम केन्द्र माना गया है। इसी के आधार पर विश्व की समस्त प्रक्रिया अपना काम कर रही है। इसी शक्ति उद्गम को गायत्री मन्त्र के माध्यम से अधिकाधिक मात्रा में खींचकर साधक अपने भीतर धारण करता है। यह धारणा जितनी अधिक मात्रा में होती जाती है। गायत्री उपासना से साधक उस शक्ति का भंडार अपने भीतर जमा करता है जो विश्व के समस्त पदार्थों एवं गतिविधियों पर अपना नियंत्रण रखती है। उस शक्ति के साथ जब साधक का संबोध हो जाता है तो वह भी संसार के सभी पदार्थों एवं गतिविधियाँ के साथ अपना सीधा सम्बन्ध स्थापित कर लेता है और उनका नियन्त्रण करने लगता है।

प्राण के अंतर्गत गतिशीलता क्रिया एवं शक्ति सन्निहित है उसके लिए गायत्री मन्त्र में सविता शब्द का प्रयोग हुआ है। उस सन्निहित शक्ति के लिए भर्ग शब्द का प्रयोग होता है। सविता की शक्ति भर्ग हैं। भर्ग सविता का गर्भ है। गायत्री का उपासक सविता रूपी प्राण की महाशक्ति ‘भर्ग’ को अपने गर्भ में धारण करता है और प्रचण्ड तेजस्विता का प्रसव करता है। साधक के गर्भ में से तेजस्विता का प्रसव कराने के कारण सविता को प्रसविता-जनक एवं उत्पादक भी कहते हैं। जिस प्रकार सूर्य की गर्मी से संसार के जड़ चेतन सभी का जन्म एवं विकास होता है उसी प्रकार आध्यात्मिक सविता से प्राण के द्वारा मानव शरीर-पिण्ड में अन्तर्हित असंख्य प्रकार के शक्ति बीजों का उद्भव एवं विकास होता है।

गायत्री में दूसरा जो महातत्व सन्निहित है वह है-चेतना एवं ज्ञान। वरेण्य एवं धिय-इन दो शब्दों में उस चेतना का संकेत है जिसे विवेक एवं ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं। परा विद्या यही है। आत्म ज्ञान, आत्म निर्माण, आत्म प्राप्ति एवं आत्म साक्षात्कार इसी महातत्व के अंतर्गत आते हैं। साधनाएं इसी की प्राप्ति के लिए होती हैं। अद्वैत, हेतु और द्वैत का विवेचन इसी भूमिका के स्पष्टीकरण के लिए है । वेदाँत शास्त्र इसी तत्व ज्ञान का परिमार्जन करता है। यह तो हुई उच्च भूमिका की बात। साधारण लौकिक जीवन में स्मरणशक्ति , बुद्धि की तीक्ष्णता, चतुरता, व्यवहार कुशलता, विवेकशीलता दूरदर्शिता, उच्च साहस, धैर्य, प्रसन्नता, निश्चिन्तता एकाग्रता, लगन, निष्ठा, दृढ़ता आदि मानसिक शक्तियाँ इसी श्रेणी में आती हैं। गायत्री का प्राणतत्व इस चेतना को भी अपने भीतर भरे हुए है। गायत्री का तीसरा तत्व है जीवन देवस्य (दिव्य) और प्रचोदयात् (प्रेरणा) यह दो शब्द इसी के लिए काम में आये हैं। शरीर को देर तक स्थिर रखना, निरोग जीवन, वंश की शुद्ध परम्परा, शान्तिपूर्वक शरीर त्याग, आदर्शवादी आचरण, इन्द्रियों की मर्यादा में रहना, मन का विचारों से अचंचल रहना, दिव्य जीवन, आन्तरिक शान्ति, जीवन को चलाने योग्य सभी आवश्यक सुख साधनों की उपलब्धि, स्वास्थ्य, सौंदर्य, इन्द्रिय शक्तियों की स्थिरता, स्फूर्ति, श्रमशीलता, जीवन, धन, विद्या , ऐश्वर्य, मैत्री, प्रशंसा, नेतृत्व, सुखी परिवार आदि अनेक साधनों की उपलब्धि इसी दिव्य जीवन-प्रेरणाप्रद जीवन की सीमाओं में आती है। मनुष्य जीवन को सन्तुष्ट एवं प्रगतिशील बनाने वाले सभी आवश्यक साधन इन दो शब्दों में सन्निहित शक्तियों के द्वारा साधक प्राप्त कर सकता है। वे सभी साधन गायत्री की विश्व व्यापी महान शक्ति के प्रसाद माने गये हैं।

तीन व्याहृतियों में ही इन्हीं तीन तत्वों का संकेत है-भूः में प्राण शक्ति , भुवः में जीवनोपयोगी साधन सम्पत्ति और स्वः में ज्ञान शक्ति का समावेश है। इन तीन को पाकर मनुष्य सब प्रकार धन्य हो जाता है। जिसे यह तीन तत्व प्राप्त हो गये वह इनकी प्रशाखा के रूप में नाना प्रकार के उन अगणित पदार्थों तथा विशेषताओं को प्राप्त कर सकते हैं जिन्हें लोग ऋद्धि-सिद्धियों के नाम से पुकारते हैं, जिनकी प्राप्ति आश्चर्यजनक मानते हैं और जिनके लिए तरसते रहते हैं।

गायत्री प्राण शक्ति, प्राण रक्षिणी शक्ति, प्राण वर्द्धिनी शक्ति है। इसका मर्म इन तीन अक्षरों में संकेत रूप से सन्निहित है देखिए :-

‘गा’ चेति सर्वगा शक्ति ‘यत्री’ तत्र नियंत्रिका।

अर्थात् -गा शब्द यह सर्वगामिनी शक्ति का बोधक है। उस शक्ति पर नियन्त्रण करने वाली है ऐसा अर्थ ‘यत्री’ शब्द में सन्निहित है।

‘गा’ कारो गतिदः प्रोक्त ‘य’ कारो शक्ति दायिनी।

‘त्र’ स्त्राताच तथा विद्धि ‘ई’ कार स्वयं परम्।

अर्थात् ‘गा’ कार से गति देने वाली, ‘य’ कार से शक्ति दायक ‘त्र’ से त्राण करने वाली और ‘ई’ कार स्वयं परम तत्व की बोधक है।

सा हैषागयाँस्तत्रे। प्राणाः वैगयास्तत्प्राणाँस्तत्रे तद्यद् गयाँस्तत्रे तस्याद् गायत्री नाम।

-शतपथ 14।15।7

अर्थात्-गायत्री प्राणों का त्राण-रक्षण करती है। ‘गय’ कहते हैं प्राण को, उस प्राण को जो रक्षण करे उसका नाम गायत्री।

गायत्री ‘प्राण’ का अजस्र भण्डार है, वह इस विश्व का महान तत्व है। उसकी महत्ता शब्दों से नहीं वरन् उसकी प्रक्रियाओं की एक-एक किरण में दृष्टिगोचर हो सकती है। इस प्राण के जब एक छोटे भाग पर भी साधक अपना अधिकार कर लेता है तो वह आसानी से अनुभव कर सकता है कि उस व्यापक तत्व की शक्ति कितनी महान है और उसमें प्रवेश करते-करते कितनी बड़ी महानता का अधिष्ठाता बना जा सकता है। प्राण की महिता का वर्णन शास्त्र इस प्रकार करते हैं-

यद्वाव प्राणो जागार तदेव जागारितम् इति।

-ताण्डवय 10।4।4

प्राण को जागृत करना ही महान जागरण है।

प्राणोऽस्यि प्रज्ञात्मा। तं मामयुरमृतमित्यु पारस्वायुः।- शाँखायन 5।2

मैं प्राण ही प्रज्ञा रूपी आत्मा हूँ। मुझे ही आयु और अमृत जानो और मेरी उपासना करो।

प्राणस्येदं वशे सर्वं त्रिदिवे यतप्रतिष्ठितम्।

मातेव पुत्रान् रक्षस्व श्रींच प्रज्ञाँ च विधेहि न इति। -प्रश्नोपनिषद्

इस विश्व में जो कुछ है वह सब प्राण के आधीन है जो कुछ स्वर्ग में है वह भी प्राण के ही आधीन है। हे प्राण तू हमें माता के समान पाल और लक्ष्मी तथा प्राण हमें प्रदान कर।

स एब वैश्वानरो विश्व रुपः प्राणोऽग्निरुदयते। -पिप्पलाद

यह प्राण ही सारे संसार में वैश्वानर रूप में प्रकट होता है।

प्राणाद्धये व खल्विमान भूतानि जायन्ते। प्राणानि जातानि जीवन्ति। प्राणं प्रयन्त्यभि संविशन्तीति। -तैत्रीयन्तीति।

प्राण शक्ति से ही समस्त प्राणी पैदा होते हैं। पैदा होने पर प्राण से ही जीते हैं, और प्राण में ही प्रवेश कर जाते हैं।

प्राणो वा ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च् -छाँदोन्य

प्राण ही बड़ा है और श्रेष्ठ है।

प्राणो वै बलम। प्राणो वा अमृतम्। आयुर्नः प्राणः। राजा ये प्राणः । - बृहदारण्यक

प्राण ही बल है। प्राण ही अमृत है। प्राण ही आयु है। प्राण ही राजा है।

प्राणो विराट प्राणोदेष्ट्री प्राणंसर्व उपासते। प्राणोह सूर्यश्चन्द्रमाः प्राणमाहुः प्रजापितम्। -अथर्व

प्राण विराट् है। प्राण सबका प्रेरक है। इसी से सब प्राण की उपासना करते है। प्राण ही सूर्य और चन्द्रमा है। प्राण को प्रजापति कहा जाता है।

प्राणाय नमो यस्य सर्वं वशे। यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन् सर्व प्रतिष्ठितम्।

-अथर्व, का.11

जिसके वश में यह सारा संसार हो रहा है उस प्राण को नमस्कार है। यही सबका स्वामी है। उसी में सारा संसार समाया हुआ है।

सर्वा ऋचाः वेदाः सर्वे घोषाः एकैव व्याहृतिः प्राण एवं प्राण ऋच इत्येव विद्यात्।

ऐतरेय 2।2।10

जितनी ऋचाएँ है, जितने वेद हैं, जितने पोष हैं, वे सब प्राण स्वरूप हैं। इन रूपों में प्राण ही व्याप्त है, उसी को उपासना करनी चाहिए।

दहृाते ध्यायमानानाँ धातूनाँ हि यथा मलाः। तथेन्द्रियायाँ दहृान्ते दोषः प्राणस्य निग्रहान्॥ -मनु॰

जिस प्रकार अग्नि में तपाये जाने पर धातु का मल जल जाता है उसी प्रकार प्राण का निग्रह करने से इन्द्रियों के विकार जल जाते हैं।

अथर्ववेद के 11।12 में प्राण को परमात्मा का श्रेष्ठतम प्रतीक मानकर उसका अभिनन्दन करते हुए स्तुति की गई है :-

नमस्ते प्राणक्रान्दाय नमस्ते स्तनयित्नवे।

नमस्ते प्राण विद्युते नमस्ते प्राण वर्णते।

प्राण में जिस शक्ति एवं तेजस्विता का अनूठा भण्डार है उसे गायत्री में सविता शब्द से स्मरण किया गया है। यह सविता ही गायत्री का देवता है। सविता की उपासना वस्तुतः तेज की उपासना है। इससे आत्मा सब प्रकार के अन्धकार आवरणों से मुक्त होकर तेजस्वी-प्रकाश हो जाता है। आत्मा रूपी सूर्य जब अपने दिव्य प्रकाश से प्रकाशवान् होता है तो उसकी किरणें अपने को ही नहीं विश्व ब्रह्मांड के एक बहुत बड़े भाग को प्रकाश में तेजस्विता से परिपूर्ण बना देते हैं। इस अलौकिक अध्यात्म सूर्य का महत्व शास्त्रों में इस प्रकार बताया गया है।

नत्वा सूर्य परं धाम ऋग् यजुः साम रूपिणाम्। -सूर्य पुराण।

ऋग, यजु, साम, रूप परंधाम सूर्य को नमस्कार है।

कृत्वैक हि त्रिधात्मानमेषु लोकेषु तिष्ठति।

देवान् यथायथं सर्वान् निवेश्य स्वेषु रश्मिषु॥ सूर्योपनिषद्

तीनों लोकों में तीन भाग होकर वह सविता देव अवस्थित हैं। समस्त देवता उन्हीं की रश्मियों में बंधे हुए हैं।

सविता दिव्य शक्ति यों का उत्पादक, चराचर का सृजन करने वाला कहा गया है। भौतिक एवं आध्यात्मिक सभी शक्तियाँ सविता के द्वारा ही प्रादुर्भूत एवं विकसित होती हैं। कहा गया है कि-

प्रजापतिः सविता भूत्वा प्रजा असृजत्।

-तैत्तरीय 1।6।4।1

प्रजापति सविता बन कर समस्त सृष्टि को उत्पन्न करता है।

सविता वै देवानाँ प्रसविता। -शतपथ 1।1।2।17

सविता देव शक्तियों को जन्म देने वाला है। सविता वै प्रसवानामीशे। - ऐतरेय 1।30

सब उत्पादक शक्ति यों का स्वामी सविता है। इस सूर्य लोक को, प्रकाश भूमिका को-प्राप्त करने के लिए तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा एवं विद्या की आवश्यकता होती है। जो इस स्थिति को-इस लोक को प्राप्त कर लेते हैं वह अभय पद को, नोत्त को प्राप्त करता है। स्मरण रहे यह आदित्य-यह चमकने वाला-उदय अस्त होने वाला सूर्य नहीं वह प्राण रूपी दिव्य तेज ही है। गायत्री में इसी सूर्य की उपासना का विधान है।

अथोत्तरेण तपसा बह्मचर्येण श्रद्धया विद्यात्मान मन्विष्यादित्य मभि जयन्ते। एतद्धे प्राणा नाभायतन मेतदमृतम भय मेतत्परायण मेतस्मान्न पुनरावर्तन्त इत्येथ निरोध :-

तप से, ब्रह्मचर्य से, श्रद्धा से, विद्या से आत्मा ढूँढ़ कर जो-जो आदित्य लोक को प्राप्त करते हैं वे पुनः जन्म नहीं लेते। यह आदित्य ही प्राणों का आधार है। यही साधकों का परम आश्रय है यही अभय पद है, यही मोक्ष है।

यह दिव्य तेज उस साधक तक ही सीमित नहीं रहता वरन् उसके पुत्र पौत्रों तक-शिष्य प्रशिष्यों तक चला जाता है। जैसे चन्दन के निकट उगने वाले पौधे सुगंधित हो जाते हैं वैसे ही उसके तेज उपासक साधक के निकट संपर्क में आने वाले लोग भी तेजस्वी हो जाते हैं।

तेजो वै गायत्री छन्दसाँ तेजो रथन्तरं साम्नाम् तेजश्च्तुर्विशस्तोमानाँ तेज एव तत्सम्यक् दधाति पुत्रस्य पुत्रतेजस्वी भवति।

गायत्री सब वेदों का तेज है। सामवेद का यह रथन्तर छन्द है। चौबीस स्तंभों का यह तेज है। इस तेज का धारण करने वाले के पुत्र पौत्र तेजस्वी होते हैं।

योगी लोग जिस कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करके परम सिद्धि को प्राप्त करते हैं वह इस शरीर में समाये हुए महाप्राण रूपी सूर्य की महाशक्ति ही है। वह गायत्री ही है-इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।

सवितुर्देवस्य पर ब्रह्मणः कुण्डलिनी गायत्री एव। -ब्रह्म यामल तन्त्र

परब्रह्म स्वरूप सविता देव की कुण्डलिनी शक्ति गायत्री हैं।

कुँडलिन्याँ समुदभूता गायत्री प्राण धारिणी।

प्राणविद्या विद्या महाविद्या यस्ताँ वेत्तिस वेदमृत् -योग चूड़ामणि

कुण्डलिनी शक्ति से उत्पन्न हुई गायत्री प्राण धारिणी शक्ति है। इस महाविद्या को जो जानता है वही ज्ञानी है।

उस अध्यात्मिक सूर्य के प्रतिबिम्ब इस भौतिक सूर्य का महत्व भी कम नहीं हैं। यह स्थूल विश्व इसी के द्वारा जीवन धारण करता है :-

आदित्यो ह्यादि भूतत्वात् प्रसूता सूर्य उच्यते।

परंज्योतिः तमः पारे सूर्योऽयं सवितेति च।

-सूर्य सिद्धान्त

सूर्य समस्त संसार का आदि कारण है इसी से उसे आदित्य कहते है। संसार की प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न करता है इसलिए सविता है। अन्धकार को दूर करता है इसलिए परम ज्योति है।

भर्ग सविता के तेज का बोधक है। संसार के प्रमुख तेजस्वी तत्वों की गणना भर्ग संज्ञा में की गई है। अत्रि को भर्ग माना गया है। स्वयं गायत्री की गणना भर्ग संज्ञा में हैं।

पृथित्येव भर्गः अगिनरेव भर्गः वसवएव भर्गः गायत्र्येव भर्गः प्राच्येव भर्गः वसन्तएव भर्गः त्रिवृदेव भर्गः ऋग्वेद एव भर्गः होतेव भर्गः वागेव भर्गः।

अर्थात्- पृथ्वी, अग्नि, वसु, गायत्री, प्राची, बसन्त, वित्रृत्त, ऋग्वेद होता है और वाक् ये देश पदार्थ भर्ग बोधक हैं।

यह प्राण तत्व, दूसरी भूमिका में प्रज्ञा होकर चेतना एवं बुद्धि रूप में परिलक्षित होता है। इस ज्ञान के प्राप्त होने पर मनुष्य की अध्यात्म भूमिका विकसित होती है और वह ऋषि, दिव्य दृष्टि एवं तत्व ज्ञान की श्रेणी में सुविधापूर्वक जा पहुँचता है। यह प्राण ही प्रज्ञा है, इसकी पुष्टि करते हुए शास्त्र कहता है :-

योवै प्राणः सा प्रज्ञा, यावा प्रज्ञा स प्राणः

- शांख्यायन अरण्यक 5।3

जो प्राण है सो ही प्रज्ञा है तो प्रज्ञा है सो ही प्राण है। प्राण का यह द्वितीय तत्व प्रज्ञा मानव जीवन रूपी त्रिवेणी की दूसरी धारा है। इसका महत्व पारस मणि के समान है। इसे ही छू कर पशु पक्षियों से भी अनेक बातों में पिछड़ा हुआ यह दुर्बल मानव प्राणी विश्व का मुकुट मणि बनता है। इसी के अभाव से जहाँ एक व्यक्ति रोते झींकते मुश्किल से पेट पालते हुए जिन्दगी के दिन किसी प्रकार पूरे करता है वहाँ इस प्रज्ञा तत्व से सम्पन्न दूसरा व्यक्ति देवताओं की तरह पूजा जाता है, अपना जीवन धन्य बनाता है और अपने साथ दूसरों को धन्य भाग बनाता है। स्वयं तरता है और दूसरों को तराता है। इस प्रज्ञा तत्व की ज्ञान बल की महत्ता देखिए :-

नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

गीता 4।38

इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र और कोई वस्तु नहीं है।

ज्ञानतः सुलभः मुक्ति र्भ् क्ति र्यज्ञादि पुण्यतः।

ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है और यज्ञादि पुण्य कर्मों में साँसारिक सुख प्राप्त होते हैं।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यों न मेघया न वहु श्रुतेन।

यह आत्मा केवल प्रवचन, बुद्धि बल और बहुत सुनने से प्राप्त नहीं हो सकता ।

नि बिना ज्ञान विज्ञाने मोक्षस्याधि गमों भवेत्।

बिना ज्ञान विज्ञान के मोक्ष प्राप्त नहीं होती।

योग हीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः।

योगोऽपि ज्ञान हीनस्तु न क्षयो मोक्ष कर्माणि।

तत्मात् ज्ञानंच योगंच मुमुक्षुदृढ़मभ्यसेत्।

योग रहित ज्ञान और ज्ञान रहित योग कभी भी मोक्ष नहीं दे सकते। इसलिए ज्ञान और योग का बार-बार दृढ़तापूर्वक अभ्यास करना चाहिये।

सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परि समाप्यते।

-गीता 4। 33

हे अर्जुन सब कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।

ज्ञानाग्नि सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा।

-गीता 4। 37

ज्ञान की अग्नि में सब कर्म भस्म हो जाते हैं।

बुद्धिर्यस्य बलंतस्य निर्बुद्धिस्य कुतोवलम्।

जिसमें बुद्धि है उसी में बल है। निर्बुद्धि में बल कहाँ से आया?

तेषाँ सतत युक्ताँनाँ भजताँ प्रीति पूर्वकम्।

ददामि बुद्धि योगंतं येन मामुपयान्ति ते।

तेषामेवानुकम्पाथ महमज्ञानजं तमः।

नाशायाम्यात्मभावस्थो ज्ञान दीपेन भास्वता।

-गीता 10। 10। 11

सदा मुझे प्रीति पूर्वक भजने वाले साधक को मैं ‘बुद्धि योग‘ प्रदान करता हूँ। जिसके द्वारा वे मुझे प्राप्त कर लेते हैं। उनके अंतःकरणों में निवास करता हुआ मैं प्रकाशवान ‘ज्ञानदीप’ द्वारा अज्ञान जन्य अन्धकार दूर कर देता हूँ।

एकः शत्रुर्नद्वितीयोऽस्ति शुत्रुरज्ञान तुल्यः पुरुषस्य राजन्।

येन्नावृतः कुरुते संप्रयुक्तो, घोराणि कर्माणि सुदारुणानि।

-महा. छान्ति 297। 28

इस संसार में मनुष्य का एक ही शत्रु है, उसके समान दूसरा और कोई है ही नहीं। यह शत्रु ‘अज्ञान’ है। इसी से ग्रसित होकर मनुष्य दारुण कर्मों को करने लगता है।

इस अज्ञान को दूर करने वाला ज्ञान जिसे प्राप्त हो गया वह न पाप रूप दारुण कर्मों को करता है और न परिणाम में शत्रु के समान दुख देने वाले पाप दंडों को भोगता है।

भगवान जब भक्त पर प्रसन्न होते हैं तब माया के बंधनों से छुड़ाने वाले और इस जगत की वास्तविक स्थिति को समझाने वाले दिव्य ज्ञान को प्रदान करते हैं। भगवान ने अर्जुन को मोह बंधन से छुड़ाने एवं अपना विराट वास्तविक स्वरूप दिखाने के लिए यही ऋतम्भरा प्रज्ञा रुपी दिव्य चक्षु प्रदान किए थे। गीता में भगवान ने अर्जुन को यह दिव्य चक्षु देते हुए कहा-

दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्यते योगमैश्वरम्।

हे अर्जुन तू इन साधारण चर्म चक्षुओं में मेरा योग ऐश्वर्य नहीं देख सकता इसलिए तुम्हें “दिव्य चक्षु” प्रदान करता हूँ।

यही दिव्य चक्षु गायत्री में सन्निहित प्रज्ञातत्व है। यही ईश्वरीय विभूति आत्म मार्ग के पथिकों के भक्तों के अन्तःकरण में सद्बुद्धि के रूप में निवास करती है।

‘सर्वस्य बुद्धि रूपेण जनस्य हदि संस्थिते’

इस परम कल्याणकारी ज्ञान शक्ति को उपलब्ध करने के लिए निरन्तर प्रयत्न करने को वेद भगवान ने आदेश किया है :-

उत्तिष्ठध्वं जागृध्वमग्निमिच्छध्वं भारताः।

-श्रुति

हे बुद्धिमानों! जागो, उठो और ज्ञान की इच्छा करो।

इस प्रज्ञा को प्राप्त करके व्यक्ति अपने विचार ही नहीं आचरण को भी श्रेष्ठ बना लेता है। विचारों के श्रेष्ठ होते ही आचरण भी श्रेष्ठ होने लगते हैं तदनुसार मनुष्य देवत्व की ओर अग्रसर होता जाता है। गायत्री उपासना करते हुए साधक मनुष्य योनि में रहते हुए भी देवता बन सकता है।

भजन्त विश्वे देवत्वं नाम ऋतं सपन्तो अमृत मेवैः।

-ऋग्वेद 1। 68। 2

अपने आचार व्यवहार को श्रेष्ठ रखकर सभी कोई देवत्व को प्राप्त कर सकते हैं।

इस प्राण, प्रज्ञा और जीवनरूपी त्रिपदा गायत्री के दो चरण प्राप्त कर लेने के उपरान्त सुख शान्ति एवं ऐश्वर्यपूर्ण दिव्य जीवन भी प्राप्त होता है। अध्यात्मिक और भौतिक दोनों में से किस ऐश्वर्य का लाभ लें यह साधक की आन्तरिक स्थिति के ऊपर निर्भर है। आमतौर से जिनने प्रगति की इतनी मंजिल पार कर ली होती है वे तुच्छ विषय विकारों एवं तृष्णा वासनाओं की पूर्ति के लिए नहीं ललचाते और न इसमें उस कमाई को खर्च करते हैं। पर बल बुद्धि के जो साधक उन चीजों को भी प्राप्त करना चाहते हैं वे उन्हें भी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। इन दोनों ही सम्भावनाओं का शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है। गायत्री का एक-एक अक्षर देवता की उपासना से मनुष्य का बहुत सा उपकार हो सकता है तो 24 अक्षर 24 देवता हैं। जब एक देवता की उपासना से मनुष्य का बहुत सा उपकार हो सकता है तो 24 देवताओं की शक्ति से सम्पन्न गायत्री मंत्र से कितना उपकार नहीं हो सकता?

गायत्र्यावर्णमेकैकं साक्षात् देव स्वरूपकम्।

तस्मात् उच्चारणत्तस्य त्राण मेव भविष्यति।

गायत्री का एक-एक अक्षर साक्षात् देवस्य रूप है, इसलिए उसके उच्चारण से उपासक का कल्याण ही होता है।

जिसे आत्म कल्याण का इतना बड़ा माध्यम उपलब्ध है उसे रोग, शोक, दुख दारिद्र, शत्रु, चिन्ता शोक, आक्रमण आदि किसी बात का भय नहीं रहता। वह अपने को पूर्ण सुरक्षित एवं निर्भय अनुभव करता है।

गायत्री की विभूतियों का संक्षिप्त सा विवरण इस प्रकार है :-

कामान्दुग्धे विप्रकर्षत्य लक्ष्मी,

पुण्यं सूते दुष्कृतं या हिनास्ति। शुद्धाँ शान्ताँ मातरं मंगलानाँ,

धेनु धीरा गायत्री मंत्र याहुः।

अर्थात् आवश्यक वस्तुओं को प्रदान करती है, दुर्भाग्य, दारिद्र आदि कष्टों को दूर करती है, पुण्य बढ़ाती है, पाप का विनाश करती है, ऐसा परम शुद्ध शान्त कल्याण जननी गायत्री को विज्ञ पुरुष गायत्री कहते हैं।

शत्रुतोनभयम् तस्य दस्युतो कवानराजतः।

न शस्त्रानल तो यौधा स्कदाचित्सम्भाविष्यति॥

न उसे शत्रुओं का भय रहता है, न डाकुओं का, न राजा का, न हथियारों का, न अग्नि का, वह सब प्रकार के भयों से निर्भय हो जाता है।


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