(श्री भगवान साहब वशिष्ठ)
“आनन्दा दहयेव खाल्विमानि भूतानि जायन्ते”
यह सारी सृष्टि आनन्द से ही उत्पन्न हो रही है। आनन्द ही इसका उद्देश्य है। उपनिषदों में इस सृष्टि को उस रस स्वरूप से ओतप्रोत बताया है। प्रत्येक मनुष्य के हृदय में उस आनन्द स्वरूप का निवास है और आनन्द की पूर्ण प्राप्ति ही उसका चरम लक्ष है। मनुष्य के हृदय में विकारों के बीच भी वह रस स्वरूप निवास करता है जो सत्य है और चिरस्थायी है। किन्तु बहुत कम लोग उस आनन्द स्वरूप को रस स्वरूप परम सत्य का अपने में दर्शन कर पाते हैं। अधिकाँश उसे भुलाकर यत्र, तत्र दुःख, पीड़ा, अशान्ति, कलह की नारकीय यातनायें सहते रहते हैं।
उस आनन्दस्वरूप, रस स्वरूप की प्राप्ति के लिए प्रेम ही एकमात्र मार्ग है प्रेम के पथ का अवलम्बन लेकर ही उस प्रेमस्वरूप रस का दर्शन किया जा सकता है। प्रेम की साधना ही हमारे हृदयों में स्थित उस प्रेम स्वरूप के दर्शन का राजमार्ग है। ज्यों-2 प्रेम विकसित होगा त्यों-त्यों उसका स्वरूप अधिक स्पष्ट होता जायगा और अन्त में एकाकार होकर वह प्रेम अबाधित हो सर्वत्र बिखर जायगा जहाँ आनन्दमय प्रेमस्वरूप के सिवा और कुछ होगा ही नहीं। जिधर दृष्टि पड़ेगी वहाँ वह दिखाई देगा और हमारे अन्तःकरणों में भी वही अपने निर्मल एवं उज्ज्वल प्रकाश से प्रकाशित हो उठेगा।
प्रेम द्वारा उस प्रेम स्वरूप की प्राप्ति में ही जीवन की सार्थकता है। इच्छा की अन्तिम चरितार्थता प्रेम में ही है। साधारण दृष्टि से देखने पर मालूम होता है कि प्रत्येक प्राणी प्रेमी है। वह किसी न किसी से प्रेम करता ही है। माँ-बाप अपने बच्चों से पुरुष स्त्री से मित्र-मित्र से साथी-साथी से। कोई धन, कीर्ति, यश, भव्य भवनों से प्रेम करता है तो कोई प्रकृति से, तो कोई ईश्वर से। तात्पर्य यह है कि सृष्टि का कार्य संचालन प्रेम के माध्यम से ही हो रहा है। इस विश्वभुवन में प्रेम उपासना प्राणी मात्र का स्वाभाविक धर्म है। इसके बिना जीवन का आस्तित्व कायम नहीं रहता ।
प्रेम साधना के पथ पर बढ़ता हुआ मनुष्य जब उन्नति की ओर अग्रसर होता है तो वह अन्त में उस प्रेमस्वरूप के दर्शन करता है जहाँ सर्वत्र प्रेम से शून्य कुछ है ही नहीं। इसे ही विश्व प्रेम भी कहते हैं। इस विश्वप्रेम की प्राप्ति कैसे हो? इसका मर्म बहुत कम लोग जानते हैं और उनमें से भी बहुत कम इसको प्राप्त कर पाते हैं।
त्याग और प्रेम का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है प्रेम तो बिना दिए जी नहीं सकता। आप लीजिये मुझे नहीं चाहिए। इस नीति से प्रेम की प्राप्ति की जा सकती है। “मैं ही लूँगा आपको नहीं दूँगा” की नीति से प्रेमस्वरूप की प्राप्ति तो दूर परस्पर का प्रेम भी समाप्त हो जाता है। उत्सर्ग पर ही, त्याग पर ही प्रेम जीवित है। परमपिता परमात्मा का हमसे कितना प्रेम है, उसने हमारे लिए अपने अमूल्य भण्डारों को खोल रखा है। हम भी जो कुछ हमारे पास है उसे दे डालें। तन, मन, धन, योग्यता जो कुछ हो दूसरों के हित साधन के लिए समर्पित करें।
इसे देने में उत्सर्ग के मार्ग में, व्यवसायिक बुद्धि को बीच में न आने दिया जाय। जो कुछ दे उसके बदले में कुछ प्राप्ति की आशा न रखें। जो अपने पास है उसे देते रहें, निस्वार्थ भाव से उत्सर्ग करते रहें। आप देखेंगे विश्वप्रेम का स्त्रोत आप में उमड़ पड़ेगा। आप आनन्दित हो उठेंगे। स्वयं ही नहीं सारे वातावरण को प्रेममय बना देंगे। लेने ही लेने की प्रवृत्ति के कारण कुछ ही समय में कैकई ने राजतिलक उत्सव को शोक में परिणित कर दिया था। किन्तु उसके विपरीत राम और भरत के त्याग ने प्रेम की नई लहर बहा दी।
निस्वार्थ त्याग के पथ पर चलकर भेड़ चराने वाला बालक ईसा मसीह बन गया। त्याग के पथ का अवलम्बन लेकर ही महात्मा गाँधी, सेन्टपाल आदि ने जन-जन में उस प्रेमस्वरूप के दर्शन किए। निस्वार्थ त्याग ही प्रेमस्वरूप की उपलब्धि करा सकता है। अतः अपने पास जो कुछ है उसे उन्मुक्त भाव से लुटा दीजिए दूसरों के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दीजिए। आप का त्याग और निस्वार्थ भाव जितना उच्च होगा उतना ही आपमें ईश्वरीय प्रेम, विश्वप्रेम का पुण्य प्रकाश प्रस्फुटित होगा। जिसके दिव्य प्रकाश से आपका जीवन धन्य बन जायगा।
अहंकारी, अभिमानी, स्वार्थी एवं महत्वाकाँक्षी के हृदय में विश्वप्रेम की अनुभूति नहीं हो सकती। इसलिए विश्वप्रेम के लिए अपने अहंकार को मारना होगा। “अपने हृदय को खाली करो-मैं उसे प्रेम से भर दूँगा।” इस ईश्वरीय महावाक्य में स्पष्ट संकेत है कि अहंकार को निकाल देने पर हृदय में ईश्वरीय प्रेम की प्रतिष्ठा हो सकती है।
अहंकारी मनुष्य की शक्ति से विश्व प्रेम दूर होता है। अहंकार किसका-धन, दौलत, वैभव ऐश्वर्य का? नहीं यह सब यहीं छोड़ना पड़ेगा। नाम, पद, प्रतिष्ठा का अहंकार है तो यह रंगीन चोला यही उतारना पड़ेगा। बड़े-2 शक्ति वान सामर्थ्यवान इस धूल में मिल गये हैं। फिर किसका अभिमान? अपने आपको इस अहंकार के नागपाश से विमुक्त करके अपने हृदय में विश्व प्रेम की प्रतिष्ठापना कर अपना तथा अन्य लोगों का जीवन धन्य बनाइये। अपनी नई सृष्टि बसाने की कोशिश में जीवन खोया जाय क्योंकि वह अस्वाभाविक है, असंगत है, ईश्वरीय विधान के विपरीत है, परिणाम दुःखदायी और विनाश ही है।
संसार के प्रत्येक तत्व में भलाई-बुराई सन्निहित हैं। न कोई पूर्णतः बुरा है और न कोई भला। मनुष्य के हृदय में भी विकारों के बीच ही प्रेम की जड़ जमी हुई है। शुभ तत्व बीज रूप में सभी में स्थित है। ऐसी दशा में बुराइयां को देखना अथवा दूषित दृष्टिकोण को अपना कर घृणा निन्दा को गले लगाना प्रेम साधना के पथ में भारी विघ्न है। अपना दृष्टिकोण बदल जाने पर जो दूषित और बुरे तत्व हैं उनमें भी अच्छाई, उस ईश्वरीय तत्व की झाँकी दृष्टिगत होती है। वहाँ भी उस प्रेमस्वरूप के दर्शन होते हैं क्योंकि विश्वप्रेम की प्राप्ति में कहीं दोष, बुराइयां, कमजोरियाँ रहती ही नहीं है। घृणा, परनिन्दा से प्रेम मर जाता है। अतः यह दृष्टिकोण त्याज्य है। इसके विपरीत अच्छाई का दर्शन करना आवश्यक है।
प्रेम उपासना के लिए हृदय शुद्धि भी अत्यावश्यक है। अपने विकारों को समझकर यथावत् उन्हें दूर करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए। इसके अतिरिक्त दूसरों के लिए अपना हृदय सदैव खुला रखना चाहिए। दुराव छिपाव प्रेम साधना में बाधक है। हृदय द्वारा ही दूसरों के हृदयों पर आधिपत्य किया जा सकता है। बुद्धि की दौड़ तर्क वितर्क, चालाकी, प्रतिभा के प्रदर्शन से मित्र को भी पराया बना देती है। शुद्ध हृदय और निष्कपट व्यवहार से शत्रु को भी मित्र बनाया जा सकता है अतः भूलकर ही चालाकी दुराव छिपाव से काम न लेकर सबसे निष्कपट व्यवहार एवं सहृदयता के सम्बन्ध कायम करने चाहिये।
प्रेम की साधना आत्मभावों को जोड़ना और उनके विस्तार में ही है। साधारणतया मनुष्य उन वस्तुओं से प्रेम करता है जिन्हें वह अपनी समझता है। जो उन्हें अच्छी लगती है जिनमें वह प्यार करता है। अच्छी लगने वाली वस्तुओं के मूल में वह आत्मभाव ही है जो उनसे जुड़ा हुआ है। कोई अपने मकान, सम्पत्ति से, कोई अपने बाल बच्चों से, कोई अन्य चीजों से प्रेम करते हैं और दूसरों के बाल बच्चों, धन, चीजों मकान आदि से प्रेम नहीं हैं, वह उन्हें अपनी नहीं समझता। किसी भी वस्तु के आकर्षण में आत्मभाव जोड़ देने पर ही वह अच्छी लगती है। इसलिए विश्वप्रेम के लिए, सर्वत्र उस प्रेमस्वरूप के दर्शन के लिए अपने आत्मभाव को चारों ओर जोड़ देना आवश्यक है।
अपने चारों ओर आत्मभाव आरोपित करके अपने पराये की भेद दृष्टि हटा देनी चाहिए। सभी बच्चों, स्त्री-पुरुषों, पशु-पक्षियों से आत्मभाव स्थापित किए जायं। इससे सर्वत्र अपना ही अपना नजर आयेगा और उनसे प्रेम सम्बन्ध कायम होंगे। सभी को अपना समझने का अभ्यास डालना चाहिए। यदि कोई किसी अर्थ में बुरा भी है तो घृणा, निन्दा न की जाय क्योंकि जैसे कोई व्यक्ति अपनी सन्तान भाई बन्धु की बुराई को क्षमा करता हुआ उसे प्रकाश में नहीं लाता, उसी प्रकार प्रशंसाजनक, बातों को ही प्रधानता देता है। यही भाव अन्य सभी से बनाना आवश्यक है।
प्रेम टूटे हृदयों को जोड़ता है, बिछुड़ों को मिलाता है, विद्वेष को शान्त करता है। यदि उसमें वास्तविकता, सचाई हो, मायाचार, कृत्रिमता एवं बुद्धि व्यापार न हों । इस तरह का सच्चा प्रेम सीधा मनुष्य के हृदय पर अधिकार करता है और उसे जीतता है। इसके विपरीत बनावटी, कृत्रिम दिखावटी प्रेम उल्टा सम्बन्धों में विष बीज को बो देता है। अतः इससे सावधान रहना चाहिए।
विश्वप्रेम की साधना में मूल आधार है अपने आत्मभाव का विस्तार। इसका नियमित अभ्यास डालना आवश्यक है। इसका प्रारम्भ अपने घर पड़ोस से करना चाहिये। सर्वप्रथम अपने घर के लोगों से ही आत्मीयता के सम्बन्ध कायम करने चाहिए। उससे बढ़ाकर अपने पड़ौस मुहल्ले, प्रान्त, देश, समाज तक अपने आत्मभाव का विस्तार करना चाहिए और एक दिन यही भाव विश्व मानव के साथ स्थापित हो जाता है। पवित्र प्रेम का अभ्यास पहले अपने घर से ही प्रारम्भ करना चाहिए। प्रेम की प्रारम्भिक पाठशाला घर ही और इससे बढ़कर फिर अपना क्षेत्र विस्तृत करते रहना चाहिए।
सेवा भी प्रेमोपासना का एक आवश्यक अंग है। दूसरों की अपने से जितनी बने उतनी भरपूर सेवा करनी चाहिए। वृद्ध, रोगी, बाल बच्चों की खूब सेवा करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में अपने जीवन से दूसरों को कुछ न कुछ देते रहने की नीति अपनानी चाहिए। जीवन का उद्देश्य यही होना चाहिये।
प्रेम ही जीवन है। प्रेम साधना ही जीवन का उद्देश्य है। निखिल विश्व में उसे अनन्त, रस स्वरूप, प्रेमस्वरूप की दिव्य अनुभूति प्राप्त करना हृदय में विश्व प्रेम को प्रतिष्ठापित करना ही आत्मा का उद्देश्य है।
प्रेमोपासना के पथ पर आशापूर्ण उत्साह पर बढ़ते हुए हमें उस दिन की प्रतीक्षा में रहना चाहिए, जिस दिन मृत्यु और कष्टों में भी उस प्रेम स्वरूप की दिव्य छाया दिखाई दे। तब सर्वत्र प्रेम ही प्रेम होगा। सब कुछ अपना ही अपना लगेगा।