महान पूर्णाहुति के महान लाभ

September 1958

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ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान इस युग का अभूतपूर्व धर्मानुष्ठान है। प्रतिदिन 24 करोड़ जप,24 लाख हवन, 21 लक्ष पाठ,21 लक्ष मंत्र लेखन की सामूहिक तपस्या एवं साधना इतनी बड़ी है, जिसके विस्तार की कल्पना करने से मनुष्य का मन कौतूहल से भर जाता है। लगभग एक लाख व्यक्ति इस साधन में संलग्न हैं। इतने बड़े जन-समूह द्वारा प्रतिदिन कई-कई घंटे साधना करना और 52 उपवास पूर्ण करना साधारण बात नहीं है। यह असाधारण आयोजन किसी व्यक्ति विशेष का कार्य नहीं वरन् उस महाशक्ति का ही क्रीड़ा कौतुक है जो युग निर्माण के लिए आवश्यक साधन तैयार करने में संलग्न है। उसी की प्रेरणा से इतना बड़ा आयोजन संभव हो सका। अन्यथा इस युग में जब कि धर्म और साधना के नाम से लोग नाक-भौं सिकोड़ते हैं, इस मार्ग पर चलने वालों का उपहास करते हैं, स्वेच्छापूर्वक इतनी बड़ी साधना करने के लिए इतना बड़ा जन-समूह कैसे तैयार हो जाता? जब कि दक्षिणा देने पर भी यजमान द्वारा कराये जाने वाले जप अनुष्ठान को लोग पूरा नहीं करते तो फिर इतना बड़ा धर्मानुष्ठान बिना रत्ती भर भी स्वार्थ सिद्ध हुए इतने लोग इतनी बड़ी साधना करने को क्यों तैयार हो जाते ? निस्संदेह यह मनुष्य कृत नहीं, दिव्य शक्ति का प्रेरित संकल्प है जिसे साधारण प्रचार मात्र से प्रभावित होकर धर्मप्रेमी आत्माओं ने श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य किया है।

यह धर्मानुष्ठान जितना महान है उसकी पूर्णाहुति भी उतनी ही महान है। इसकी महानता कई दृष्टि से है-

(1) एक हजार कुण्डों की यज्ञ शालाओं में एक लाख होताओं द्वारा होने वाला यज्ञ का विस्तार इतना बड़ा है, जिसकी तुलना में इस युग में और दूसरा उदाहरण दृष्टिगोचर नहीं होता।

(2) यों छोटे बड़े यज्ञ जहाँ-तहाँ रहते हैं और उनमें अधिक पढ़े या कम पढ़े पंडित लोग दक्षिणा लेकर जप हवन आदि का कार्य कराते हैं। इन पंडितों में से कई शुद्ध मंत्रोच्चारण करने या नियमित कर्मकाण्ड कराने में प्रवीण होते हैं। पर उनकी व्यक्तिगत साधना एवं तपस्या नहीं के बराबर होती है। वे स्वयं प्रतिदिन निजी रूप से कोई कहने लायक तपस्या नहीं करते, उनमें वह तपोबल नहीं होता, जो यज्ञों की सफलता के लिए नितान्त आवश्यक है। मिष्ठान्न खाने की लालसा और अधिक दक्षिणा मिलने की तृष्णा में ही उनका चित्त पड़ा रहता है। ऐसे लोगों द्वारा सम्पन्न हुए धर्मानुष्ठान कभी उचित सत्परिणाम नहीं दे सकते। राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ राज्यान्नभोजी पूर्ण विद्वान वशिष्ठ जी पूरा नहीं करा सकते थे, इसलिए वह यज्ञ परम तपस्वी शृंगी ऋषि द्वारा सम्पन्न कराया गया था।

इस मूल तथ्य का ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की पूर्णाहुति में पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। इस यज्ञ में आहुतियाँ देने केवल वे ही लोग बैठेंगे जो अपनी साधना और तपस्या की कसौटी पर खरे प्रमाणित हो चुके हैं,सवालक्ष जप की साधना और 52 उपवासों का कठिन व्रत किसी साधक की धर्मनिष्ठा की कड़ी कसौटी है। जो व्यक्ति इतनी गहरी निष्ठा अपनी अन्तरात्मा में धारण किये हुए है उसकी श्रद्धा में सच्चे ब्राह्मणत्व की झाँकी जा सकती है। ऐसे परम निस्वार्थ लोग अत्यन्त विशाल संख्या में जिस पूर्णाहुति में बिना किसी अर्थ लोभ के यज्ञ करेंगे निश्चय ही वह अपने ढंग का अनोखा एवं असाधारण सत्परिणाम उत्पन्न करने वाला महायज्ञ होगा।

(3) अब तक की सार्वजनिक यज्ञों की परम्परा यह रही है कि कोई प्रभावशाली साधु महात्मा इन आयोजनों को करने खड़ा होता है। वह लक्षाधीशों के पास दौड़ा जाता है। दो-चार श्रीमंत लोग आग आ जाते हैं उनके प्रभाव से अन्य श्रीमंत भी बड़ी-बड़ी रकमें देते हैं, कुछ ही सेठ साहूकारों द्वारा भारी धन राशि जमा कर ली जाती है, उससे पंडित लोग बुलाये जाते हैं, उनमें से प्रत्येक को सैंकड़ों, हजारों रुपया दक्षिणा, वस्त्र, पात्र, आभूषण, आदि दिये जाते हैं। आलीशान यज्ञशाला, मण्डप, पंडाल आदि बनाने में, गाजे बाजे में खूब ठाठ-बाठ किया जाता है। सैंकड़ों मन मिठाई, मलाई, खीर पुआ बनते हैं, और लम्बे चौड़े प्रीतिभोज होते हैं। हवन के नाम पर थोड़े से जौ, तिल, चावल जला दिये जाते हैं, सुगंधित रोग नाशक एवं बलवर्धक हवन सामग्री का वहाँ दर्शन भी नहीं होता।

इस प्रचलित परम्परा के प्रतिकूल ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की पूर्णाहुति में किसी भी व्यक्ति से याचना न करने का व्रत लिया हुआ है। गायत्री उपासकों ने अपनी स्वल्प आजीविका में से पेट काटकर जो थोड़ी सी श्रद्धाँजलि निकाली होगी उसी से भारी किफायतशारी से महायज्ञ का काम चलाया जायगा।

(4) महायज्ञ के लिए किसी से कुछ याचना न करने का व्रत इसलिए लिया गया है कि चन्दा माँगने जाने पर लोग संकोच एवं दबाव से कुछ देते हैं। उसमें श्रद्धा का पुट नहीं रहता। यह पूर्णाहुति अत्यधिक पवित्र है, जिसमें अत्यन्त कठोर तपश्चर्या, 52 उपवास और सवाल जप की साधना करने वाले ही यज्ञ कुंडों पर बैठ सकेंगे। ऐसे पवित्र यज्ञ में खर्च होने वाली एक-एक पाई परम पवित्र एवं श्रद्धासिक्त होनी चाहिए। ऐसा ही धन इस कार्य में लगे, इसलिए यह नियम रखा गया है कि किसी से कुछ माँग न जाय। जो व्यक्ति गायत्री की, इस महायज्ञ की महत्ता को भली प्रकार समझते होंगे, वे बिना किसी वाह्य प्रेरणा या दबाव के जो कुछ स्वेच्छापूर्वक देंगे वह निस्संदेह श्रद्धासिक्त ऐसे ही पुनीत धन से संयोजित होने पर इतनी पवित्र पूर्णाहुति सफल हो सकती है। साधकों की श्रद्धा की परीक्षा की कसौटी के रूप में भी यह अयाचना व्रत लिया गया है।

(5) इतने बड़े यज्ञ के लिए किसी धनीमानी, सेठ साहूकार का कुछ भी सहयोग आमन्त्रित न किये जाने का कारण केवल एक ही है कि जहाँ श्रद्धालु गायत्री उपासकों ने कठोर श्रमदान से इतना जप,तप,व्रत उपवास, पाठ, मन्त्र लेखन पूरा कर लिया वे पूर्णाहुति के खर्च को भी अपने कन्धे पर ले सकें और यह महायज्ञ आदि से अन्त तक गायत्री उपासकों का ही यज्ञ रहे। गायत्री-परिवार साधकों तथा उपासकों का संगठन है। ऐसे लोग आमतौर से अपरिग्रही एवं स्वल्प वित्त साधन वाले होते हैं। क्या वे अपने कन्धे पर इतने बड़े आयोजन का भारी बोझ उठा सकते हैं, यह परीक्षा हर उपासक की होनी है। इस दृष्टि से भी यह असाधारण है।

(6) महान यज्ञ की पूर्णाहुति का अधिकाँश कार्य श्रमदान पर निर्भर है। जप,तप की भारी संख्या श्रमदान से-सेवा भाव से पूरी हुई है। 24 लक्ष व्यक्तियों तक गायत्री माता का संदेश पहुँचाने का ब्रह्मभोज भी लोगों ने धर्म फेरी एवं स्वेच्छा श्रद्धा से पूरा किया है। ताजा शुद्ध सुगन्धित हवन सामग्रियों की जड़ी बूटी जंगलों में से गायत्री उपासकों ने ही श्रमदान से इकट्ठी की है। हवन के लिए जंगलों में से लकड़ी काटने का काम भी स्वयं सेवक कर रहे हैं। यज्ञ की अन्यान्य व्यवस्थाओं में भी श्रमदान ही प्रमुख आधार रहेगा।

(7) यज्ञ के दिनों में याज्ञिकों का आहार परम् सात्विक एवं न्यायोपार्जित होना चाहिये। उसे चटोरे मन से, रजोगुणी मिष्ठान पकवान से तथा तमोगुणी मिर्च मसालों से रहित रखा जाना चाहिए। मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में एक शिलालेख सुरक्षित है, जिसमें उल्लेख है कि मथुरा में द्रोवल नाम एक ब्राह्मण ने 40 दिन तक एक विशाल यज्ञ किया जिसमें याज्ञिकों को सत्तू एवं शाक−भाजी मात्र का भोजन कराया गया। यह ऋषि परंपरा है। ऐसे ही भोजन को खाकर यज्ञ करने वालों से तपोबल पैदा होता है। आज तो जिह्वा लोलुप लोग लड्डू कचौड़ी के लिए लालायित रहते हैं पर सच्चे याज्ञिकों को ब्रह्मचर्य की भाँति चटोरे मन पर भी संयम करना पड़ता है। इस महायज्ञ की पूर्णाहुति में सम्मिलित होने वाले लोगों को गत महायज्ञ की भाँति इस बार भी रोटी, दाल, चावल, शाक का प्रबन्ध किया जा रहा है। पर यदि आर्थिक संकोच के कारण यह व्यवस्था भी न बन पड़ी तो याज्ञिकों को सत्तू नमक, उबले चने, खिचड़ी, दलिया आदि से काम चलाना होगा। इस प्रकार का ब्रह्मभोज अमीरों की या चटोरे लोगों की दृष्टि में उपहासास्पद हो सकता है, पर वस्तुतः उसकी सात्विकता एवं पवित्रता इतनी बड़ी होगी जिससे यज्ञ के उद्देश्यों की सफलता में निश्चय ही बड़ी सहायता मिलेगी। “जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन” वाली उक्ति के अनुसार याज्ञिकों को यज्ञ के दिनों में जैसा अन्न खाना चाहिये वैसा ही जुटाने का प्रयत्न किया गया है।

(8) साधारण यज्ञों में जहाँ पंडित, पुरोहित लोग प्रचुर दान दक्षिणा का आर्थिक लाभ और सुस्वाद भोजन के रसास्वादन करने का लोभ पूर्ण होने पर उनकी बहुत प्रशंसा करते हैं और उनमें सम्मिलित होने का अवसर पाने को लालायित रहते हैं और सामान्य जनता यह सोच कर नाराज होती है कि “यज्ञ के नाम पर केवल थोड़े से जौ तिल हवन किये गये शेष धन किन्हीं लोगों की व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति एवं आडम्बरों में खर्च हो गया।” इसके विपरीत इस महायज्ञ की पूर्णाहुति में उलटी बात है। प्रत्येक विचारशील व्यक्ति प्रसन्न है कि इसमें एक-एक पाई का पूर्ण सावधानी, किफायतशारी के साथ विवेक पूर्ण उपयोग किया जा रहा है, असाधारण सादगी बरती जा रही है तथा हवन के साथ-साथ धर्मप्रचार, युग-निर्माण एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान का ठोस कार्य भी किया जा रहा है। दूसरी ओर पंडित, पुरोहित नाराज हैं कि अन्य लोगों के यज्ञों की भाँति उन्हें प्रीतिभोज एवं दक्षिणा लाभ नहीं मिल रहा है। इस नाराजी को वे बेसिर पैर की ओंधी-सीधी निन्दात्मक बातें कह कर प्रकट करते हैं। इस प्रकार अन्य यज्ञों की तुलना में यह निंदा-प्रशंसा की बात भी असाधारण ही है।

(9) प्राचीनकाल में विशाल यज्ञ किसी विशेष उद्देश्य को लेकर होते थे। अश्वमेध यज्ञ सब राजाओं को एक सूत्र में बाँधने के लिये, वाजपेय यज्ञ धर्म संगठनों में एकता लाने के लिए, राजसूय यज्ञ राजनैतिक सुधारों के लिये होते थे। यज्ञों में आमंत्रित भद्रपुरुषों से विचार विनिमय करके कोई ठोस रचनात्मक कार्यक्रम बनाये जाते थे। गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति भी राष्ट्र निर्माण की दिशा में अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्यक्रम को साथ में लेकर की जा रही है। धर्म प्रेमी लोगों का संगठन, उनकी सम्मिलित शक्ति का देवत्व की रक्षा एवं असुरता के विनाश में विनियोग, चरित्र निर्माण, साँस्कृतिक पुनरुत्थान, बौद्धिक एवं सामाजिक क्राँति आदि युग की महत्वपूर्ण आवश्यकताओं को हल करना इस यज्ञ के प्रमुख उद्देश्यों में से हैं। महायज्ञ के साथ-साथ युग निर्माण के उपयुक्त रचनात्मक कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की योजना को भी अग्रसर किया जायगा।

(10) महायज्ञ में आने वाले धर्मप्रेमी अपने व्यक्तिगत जीवन को देवत्व की-सुख शाँति की दिशा में अग्रसर करने के लिये आशाजनक प्रकाश प्राप्त करेंगे। जो कार्य बहुत दिनों की एकाकी साधना से भी सम्पन्न नहीं हो पाता वह इस एक बारगी प्रचण्ड योगाग्नि की समीपता से कुछ ही दिनों में प्राप्त होना सम्भव होगा।

(11) गायत्री महायज्ञ संसार में सद्बुद्धि, सद्भावना, सत् प्रकृति बढ़ाने के लिये है। गायत्री सद्बुद्धि की देवी होने के कारण सतोगुण की देवत्व की अभिवृद्धि करती है। इसी तत्व की कमी हो जाने से आज संसार में सर्वत्र अशान्ति और क्लेश की अभिवृद्धि हुई है। यदि लोगों के अन्तःकरण सद्बुद्धि से भर जाएं तो कहीं किसी बात का अभाव एवं कष्ट न रहे। मनुष्य एक दूसरे को सताने की जगह सेवा और सहयोग का मार्ग ग्रहण करें तो यही भूलोक स्वर्ग बन सकता है। इस सम्भावना का मूर्त रूप देखने के लिये साँसारिक प्रयत्न भी आवश्यक हैं, पर इसके लिए आध्यात्मिक उपचारों की भी अतीव आवश्यकता है। गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति इस प्रकार के उपचारों में सर्वोत्तम आयोजन है। विश्व शान्ति का यह श्रेष्ठ कार्यक्रम एक अत्यन्त ही उच्चकोटि का परमार्थ है। इस परमार्थ में भाग लेने वाले उतना बड़ा पुण्य फल प्राप्त करेंगे, जितना अन्य साधारण धर्मोपचार से किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है।

(12) यों समस्त संसार का ही इस महायज्ञ से लाभ है। पर इस धर्मानुष्ठान में संलग्न धर्म प्रेमियों को सद्बुद्धि का, पुण्य फल का लाभ असाधारण रूप से मिलेगा। अग्नि की भट्टी के समीप जो बैठता है उसे गर्मी का लाभ औरों से अधिक मिलता है। इस बनाने वालों को साधारण सुगन्ध के खरीदारों की अपेक्षा कहीं अधिक सुगन्ध लाभ होता है। महायज्ञ की महान् प्रक्रियाएं लाखों धर्म प्रेमियों को उठाकर उनके भौतिक जीवन में अनेक प्रकार की सुख संपदाओं की गुत्थियाँ सुलझाने के अवसर उत्पन्न करती है और आत्मोन्नति के, आध्यात्मिक जीवन को सुविकसित करने के मार्ग खोलती है। इस प्रकार यह पूर्णाहुति असंख्यों लोगों के लिये सुख सौभाग्य के शुभावसर प्रदान करने वाली, असाधारण प्रक्रिया सिद्ध होती है।

(13)गायत्री उपासना के प्रभाव से सुसन्तति निर्माण का महत्वपूर्ण लाभ होता है। प्राचीन काल में अवतारी महापुरुषों के जन्म दाताओं को कठोर तप करने पड़े हैं। भगवान कृष्ण को जन्म देने वाले देवकी वासुदेव ने, भगवान राम को जन्म देने वाले कौशल्या दशरथ ने पूर्व जन्मों में इसी प्रकार के तप किये थे। पाँच पाँडव और छठे कर्ण जैसे असाधारण महापुरुषों को जन्म देने का श्रेय कुन्ती के तप को ही है। हनुमान जी को जन्म देने वाली अंजनी की तपस्या प्रसिद्ध है। इस युग की यह सामूहिक तपस्या भी उस प्रकार के सत्परिणाम उत्पन्न करेगी। इस साधना में संलग्न नर नारी ऐसे महापुरुषों को जन्म देंगे जो युगान्तर उत्पन्न करने वाले अवतारों की भूमिका पूरी कर सकें। शिव पार्वती के तप से उत्पन्न गणेश जी असुरों का विनाश कर सके, इस युग की असुरता को मिटाने के लिए जिन उच्चकोटि की आत्माओं की आवश्यकता है वे इस महान साधना में संलग्न नर नारियों के शरीरों के माध्यम से जन्म लेने के लिये प्रसन्नतापूर्वक तत्पर होंगी। उत्तम बाग लगाने के लिये बढ़िया खेत और बढ़िया माली तैयार करने की आवश्यकता इस महायज्ञ द्वारा पूरी की जा रही है।

(14) लुप्त प्रायः गायत्री उपासना और भूली हुई यज्ञ प्रक्रिया के महान लाभों से प्रत्येक भारतीय को परिचित करा देना और इन मानव जीवन की अत्यंत उपयोगी आवश्यकताओं को घर-घर में प्रचलित करके इस भारतभूमि को पुनः ऋषि भूमि बना देने का स्वप्न साकार करना भी इस पूर्णाहुति का उद्देश्य है।


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