क्षण भर इन्द्रिय-चिन्तन का मुझको अवकाश न होगा, दूषित विकार का उर में अब कभी विकास न होगा।
मैं तभी पतित हूँगा जब इस शव में श्वास न होगा, मानव हूँ, पशु न बनूँगा मन का विश्वास न होगा।
बस मेरे व्रत-संयम में कृत्रिमता लेश न होगा, अभिलाषा-दमन करूंगा मन पर अनुशासन होगा।
साधन में युग बीतेंगे फिर भी आभास न होगा, मन से अपमानित होकर मेरा उपहास न होगा।
वासना जगत की पाकर मुझ में उल्लास न होगा, त्यागूँगा सकल प्रलोभन तृष्णा का वास न होगा ।
मानी मानव अब मन का जीवन भर दास न होगा, विघ्नों को सम्मुख पाकर पथ-भ्रष्ट, हताश न होगा।