गायत्री की गुण गरिमा

September 1958

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गायत्री सनातन एवं अनादि मन्त्र है। पुराणों में कहा गया है कि—”सृष्टि कर्ता ब्रह्मा को आकाश वाणी द्वारा गायत्री मन्त्र प्राप्त हुआ था इसी की साधना का तप करके उन्हें सृष्टि निर्माण की शक्ति प्राप्त हुई। गायत्री के चार चरणों की व्याख्या स्वरूप ही ब्रह्माजी ने चार मुखों से चार वेदों का वर्णन किया। गायत्री को वेदमाता कहते हैं। चारों वेद गायत्री की व्याख्या मात्र हैं।” गायत्री को जानने वाला वेदों को जानने का लाभ प्राप्त करता है।

गायत्री के 24 अक्षर अत्यन्त ही महत्वपूर्ण शिक्षाओं के प्रतीक हैं। वेद, शास्त्र, पुराण, स्मृति, उपनिषद् आदि में जो शिक्षायें मनुष्य जाति को दी गई हैं, उन सबका सार इन 24 अक्षरों में मौजूद है। इन्हें अपना कर मनुष्य प्राणी व्यक्तिगत तथा सामाजिक सुख शान्ति को पूर्ण रूप से प्राप्त कर सकता है।

गायत्री, गीता, गंगा और गौ यह भारतीय संस्कृति की चार आधार शिला हैं, इन सब में गायत्री का स्थान सर्वप्रथम है। जिसने गायत्री के छिपे हुए रहस्यों को जान लिया उसके लिए और कुछ जानना शेष नहीं रहता।

समस्त धर्म ग्रंथों में गायत्री की महिमा एक स्वर से कही गई है। समस्त ऋषि, मुनि मुक्त कण्ठ से गायत्री का गुणगान करते हैं। शास्त्रों में गायत्री की महिमा बताने वाला इतना साहित्य भरा है कि उसका संग्रह किया जाय तो एक बड़ा ग्रन्थ ही बन सकता है। गीता में भगवान ने स्वयं कहा है—

‘गायत्री छन्दसामहम्’

अर्थात्

‘गायत्री मन्त्र मैं स्वयं ही हूँ’

गायत्री उपासना के साथ-साथ अन्य कोई उपासना करते रहने में कोई हानि नहीं। सच तो यह है कि अन्य किसी भी मन्त्र का जप करने में या देवता की उपासना में तभी सफलता मिलती है जब पहले गायत्री द्वारा उस मन्त्र या देवता को जागृत कर लिया जाय। कहा भी है—

यस्य कस्यापि मन्त्रस्य पुरश्चरणामारभेत्। व्याहृति त्रय संयुक्ता गायत्रीच युतं जपेत्॥

नृसिंहार्क वराहणाँ कौला तान्त्रिका तथा। बिना जप्त्वातु गायत्री तत्सर्वनिष्फल भवेत्॥

चाहे किसी भी मन्त्र का साधन किया जाय, उस मन्त्र को व्याहृति समेत गायत्री सहित जपना चाहिए चाहे नृसिंह, सूर्य, वाराह आदि किसी की उपासना हो या कौल एवं ताँत्रिक प्रयोग का जाप, बिना गायत्री के वे सब निष्फल होते हैं। इसलिए गायत्री उपासना प्रत्येक साधक के लिए आवश्यक है।

गायत्री सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम मन्त्र है। जो कार्य संसार में किसी अन्य मन्त्र से हो सकता है, गायत्री से भी अवश्य हो सकता है। इस साधना में कोई भूल रहने पर भी किसी का अनिष्ट नहीं होता, इससे सरल, स्वल्प—श्रम साध्य और शीघ्र फलदायिनी साधना दूसरी नहीं है।

गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों में अनेक ज्ञान विज्ञान छिपे हुए हैं। अनेक दिव्य अस्त्र, शस्त्र, सोना आदि बहुमूल्य धातुओं का बनाना, अमूल्य औषधियाँ, रसायनें, दिव्य मन्त्र, अनेक ऋद्धि-सिद्धियाँ, शाप, वरदान के प्रयोग, प्रियजनों के लिए नाना प्रकार के उपचार, पारोत्रा विद्या, अंतर्दृष्टि प्राणविद्या, बेधक प्रक्रिया, शूल शाल्य वाम मार्गी तन्त्र विद्या, कुण्डलिनी चक्र, दश महाविद्या महामातृक जीवन, निर्मोक्ष, रूपांतरण, अज्ञात सेवन, अदृश्य दर्शन, शब्द परव्यूह, सूक्ष्म सम्भाषण आदि अनेक लुप्त-प्रायः महान् विद्याओं के रहस्य बीज और संकेत गायत्री में मौजूद हैं। इन विद्याओं के कारण एक समय हम जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक और स्वर्ण सम्पदाओं के स्वामी बने हुए थे। आज इन विद्याओं को भूल कर हम सब प्रकार से दीन हीन बने हुए हैं। गायत्री में सन्निहित उन विद्याओं का फिर प्रकटीकरण हो जाय तो अपना प्राचीन गौरव प्राप्त कर सकते हैं।

गायत्री की साधना द्वारा आत्मा पर जमे हुए मल विक्षेप हट जाते हैं, तो आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है और अनेक ऋद्धि सिद्धियाँ परिलक्षित होने लगती हैं। दर्पण माँज देने पर उसका मैल छूट जाता है उसी प्रकार गायत्री साधना से आत्मा निर्मल एवं प्रकाशमान होकर ईश्वरीय शक्तियों गुणों, सामर्थ्यों एवं सिद्धियों से परिपूर्ण बन जाती है।

आत्मा के कल्याण की अनेक साधनाएँ हैं। सभी का अपना-अपना महत्व है और परिणाम भी अलग अलग है। ‘स्वाध्याय’ से सन्मार्ग की जानकारी होती है। सत्संग से स्वभाव और संस्कार बनते हैं। कथा सुनने से सद्भावनाएँ जागृत होती हैं। ‘तीर्थ यात्रा से भावाँकुर पुष्ट होते हैं। ‘कीर्तन’ से तन्मयता का अभ्यास होता है। ‘दान पुण्य’ से सुख सौभाग्यों की वृद्धि होती है। पूजा अर्चना से आस्तिकता बढ़ती है। इस प्रकार यह सभी साधन ऋषियों ने बहुत सोच समझ कर प्रचलित किए हैं। पर तप का महत्व इन सबसे अधिक है। तप की अग्नि में पड़कर ही आत्मा के मल विक्षेप और पाप-ताप जलते हैं। तप के द्वारा ही आत्मा में प्रचंड बल पैदा होता है जिसके द्वारा साँसारिक तथा आत्मिक जीवन की समस्याएँ हल हो सकती हैं। तप की सामर्थ्य से ही नाना प्रकार की सूक्ष्म शक्तियाँ और दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इसीलिए ‘तप’ साधन को सबसे अधिक शक्तिशाली माना गया है। तप के बिना आत्मा में अन्य किसी भी साधन से तेज, प्रकाश, बल एवं पराक्रम उत्पन्न नहीं होता।

गायत्री उपासना प्रत्यक्ष तपश्चर्या है। इससे तुरन्त आत्मबल बढ़ता है। गायत्री साधना एक बहुमूल्य दिव्य सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति को इकट्ठी करके साधन उसके बदले में साँसारिक सुख एवं आत्मिक आनन्द भली प्रकार प्राप्त कर सकता है।

गायत्री मन्त्र से आत्मिक कायाकल्प हो जाता है। इस महामन्त्र की उपासना आरम्भ करते ही साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे आत्मिक क्षेत्र में एक नई हलचल एवं रद्दोबदल आरम्भ हो गई है। सतोगुणी तत्वों की अभिवृद्धि होने से दुर्गुण, कुविचार, दुःस्वभाव एवं दुर्भाव घटने आरम्भ हो जाते हैं और प्रेम, नम्रता, पवित्रता, उत्साह, स्फूर्ति, श्रमशीलता, मधुरता, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, उदारता प्रेम, सन्तोष शाँति, सेवा भाव, आत्मीयता, आदि सद्गुणों की मात्रा दिन दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फलस्वरूप लोग उसके स्वभाव एवं आचरण से सन्तुष्ट होकर बदले में प्रशंसा, कृतज्ञता, श्रद्धा एवं सम्मान के भाव रखते हैं और समय-समय पर उसकी अनेक प्रकार से सहायता करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त सद्गुण स्वयं इतने मधुर होते हैं कि जिस हृदय में इनका निवास होता है वहीं आत्मसन्तोष की परम शान्तिदायक शीतल निर्झरणी सदा बहती रहती है। ऐसे लोग सदा स्वर्गीय सुख का आस्वादन करते हैं। गायत्री साधना से साधक के मनःक्षेत्र में असाधारण परिवर्तन हो जाता है। विवेक दूरदर्शिता, तत्वज्ञान और ऋतम्भरा बुद्धि की अभिवृद्धि हो जाने के कारण अनेक अज्ञानजन्य दुखों का निवारण हो जाता है। प्रारब्धवश, अनिवार्य कर्म फल के कारण कष्टसाध्य परिस्थितियाँ हर एक के जीवन में आती रहती हैं। हानि शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण विरोध, आघात आदि की विभिन्न परिस्थितियों से जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग, मृत्यु-तुल्य कष्ट पाते हैं वहाँ आत्मबल सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैर्य, सन्तोष संयम और ईश्वर विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते हँसते आसानी से काट लेता है। बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी वह अपने आनन्द का मार्ग ढूंढ़ निकालता है और मस्ती, प्रसन्नता एवं निराकुलता का जीवन बिताता है।

प्राचीन काल में ऋषियों ने बड़ी-बड़ी तपस्याएँ और योग साधनाएँ करके अणिमा, महिमा आदि चरम-सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उनके शाप और वरदान सफल होते थे। तथा वे कितनी अद्भुत एवं चमत्कारी सामर्थ्यों से भरे पूरे थे, इसका वर्णन इतिहास पुराणों में भरा पड़ा है। वह तपस्याएँ और योग साधनाएँ गायत्री के आधार पर ही होती थीं। गायत्री महा विद्या से ही 84 प्रकार की महान योग साधनाओं का उद्भव हुआ है।

गायत्री उपासना एक प्रकार का आध्यात्मिक व्यायाम है, जिसका परिणाम जीवन और शरीर को पुष्ट बलवान एवं सुव्यवस्थित बनाना है। सकाम कामना के लिए की हुई गायत्री साधना से अभीष्ट परिणाम प्राप्त न भी हों तो भी उसका शुभ परिणाम अन्य मार्ग से अवश्य प्राप्त हो जाता है। कोई बड़ी कुश्ती पछाड़ने के लिए कोई व्यक्ति अखाड़े में आया करे तो उसका शरीर दिनोंदिन अवश्य मजबूत होगा। वह मनोवाँछित कुश्ती पछाड़ने में सफल न भी हो तो यह नहीं सोचना चाहिए कि उसका व्यायाम तथा पौष्टिक आहार व्यर्थ चला गया। कुश्ती वह भले ही हार जाय पर निरोगिता, स्फूर्ति, जीवनशक्ति, दीर्घजीवन, कमाने की क्षमता, बलवान सन्तान, शत्रुओं से निबट लेने की सामर्थ्य आदि अनेकों लाभ प्राप्त होते हैं, जिन्हें पछाड़ने से कम महत्वपूर्ण नहीं समझना चाहिए। इसी प्रकार गायत्री उपासना कभी भी असफल नहीं होती अटल प्रारब्ध का कोई सुनिश्चय न टल सके तो भी अन्य अनेकों रीतियों से उपासना साधक के लिए शुभ परिणामों का आयोजन करती है।

वशिष्ठ, याज्ञवलक्य, अत्रि, विश्वामित्र, पाराशर, भारद्वाज, गौतम, व्यास, शुकदेव, नारद, दधीचि, बाल्मीकि, च्यवन, शंख, लोमश, तैत्तिरेय, जावालि, शृंगी, उद्दालक, वैशम्पायन, दुर्वासा, परशुराम, पुलस्त्य, दत्तात्रेय, अगस्त्य, सनत्कुमार, कण्व, शौनक आदि ऋषियों के जीवन वृत्तान्त जिन्होंने पढ़े हैं वे जानते हैं कि उनकी महानता, शक्तियाँ एवं सिद्धियाँ जिस आधार शिला पर अवस्थित थीं, वह गायत्री ही है।

प्राचीन काल की भाँति अब भी वही मार्ग है। यद्यपि यवन राज्य के पिछले अज्ञानान्धकार युग में अगणित सम्प्रदाय, मत—मतान्तर उपज पड़े और उनने अपनी-अपनी सूझ-बूझ के अनुसार नाना प्रकार के साधना पन्थ बना लिए फिर भी ऐसी साधना जो पूर्ण सिद्धावस्था तक साधक को पहुँचा सके गायत्री के अतिरिक्त और कोई सिद्ध न हो सकी। जिसने भी पूर्णता एवं परम सिद्धावस्था पाई है, उसने गायत्री माता का आश्रय अवश्य लिया है। मध्यकाल में महाभारत से लेकर अब तक के सभी सिद्ध पुरुष प्रायः इसी राजमार्ग से चले हैं। उनका मत प्रन्थ तथा विशेष साधन चाहे पृथक भले ही रहे हैं पर मूल आश्रय को किसी ने भी नहीं छोड़ा है। वर्तमान काल में भी जिसने आत्मिक दृष्टि से कुछ विकास किया है, उन्हें वेदमाता का पय पान करने का सौभाग्य अवश्य मिला है।

गायत्री भगवान का नारी रूप है। भगवान की माता के रूप में उपासना करने से दर्पण के प्रतिबिम्ब एवं कुएं की आवाज की तरह वे भी हमारे लिए उसी प्रकार प्रत्युत्तर देते हैं। संसार में सबसे अधिक स्नेह- मूर्ति माता होती है। भगवान की माता से रूप में उपासना करने से प्रत्युत्तर में उनका अपार वात्सल्य प्राप्त होता है। मातृ पूजा से नारी जाति के प्रति पवित्रता सदाचार एवं आदर के भाव बढ़ते हैं जिनकी मानव जाति को आज अत्यधिक आवश्यकता है।

श्रद्धापूर्वक गायत्री माता का अंचल पकड़ने का परिणाम सदा कल्याणकारक ही होता है। गायत्री को ‘ब्रह्मास्त्र’ कहा गया है क्योंकि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती। इसका प्रयोग कभी भी व्यर्थ नहीं होता।

गायत्री उपासना से मनुष्य की अनेक कठिनाइयाँ हल होती हैं। ऐसे अनेकों उदाहरण मौजूद हैं कि जो लोग आरम्भ में दरिद्रता का अभावग्रस्त जीवन व्यतीत करते थे, अपने मामूली गुजारे की भी व्यवस्था जिनके पास न थी, कर्ज के बोझ से दबे हुए थे, उपासना की और अर्थ संकट को पार करके ऐसी स्थिति पर पहुँच गए कि जिससे अनेकों को ईर्ष्या होती है। कम पढ़े और छोटी नौकरियों पर काम करने वालों को ऊंचे पद पर पहुँचने के उदाहरण मौजूद हैं। जिनकी बुद्धि बड़ी ही भौंड़ी और मन्द थी वे चतुर तीक्ष्ण बुद्धि और विद्वान बने हैं। जिनकी परीक्षा में उत्तीर्ण होने की कोई आशा नहीं करता था, ऐसे विद्यार्थी अच्छे नम्बरों से पास हुए हैं। झगड़ालू, चिड़चिड़े, क्रोधी, व्यसनी, बुरी आदतों में फँसे हुए, आलसी एवं मूढ़मति लोगों के स्वभाव में ऐसा परिवर्तन हुआ है कि लोग दाँतों तले उँगली दबाए रह गए।

गायत्री साधना के चमत्कारी लाभ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रकट होते हैं। जिनके दाम्पत्य जीवन बड़े कर्कश थे, पति- पत्नी में कुत्ता बिल्ली का सा बैर रहता था, वहाँ प्रेम की निर्झरणी बहती देखी गई। भाई-भाई जो एक दूसरे के जानी दुश्मन बने हुए थे उनमें भरत मिलाप हुआ। जो कुटुम्ब,परिवार क्लेश और कलह की अग्नि में झुलस रहे थे वहाँ शाँति की वर्षा हुई। फौजदारी ,मुकदमेबाजी ,कत्ल,चोरी, डकैती की आशंका से जहाँ हर घड़ी भय रहता था वहाँ निर्भयता का एकछत्र राज हुआ। शत्रुओं के आक्रमण से जो लोग घिरे हुए थे वे इन आपत्तियों से बाल-बाल बच गए।

बीमारी से तो कितने ही साधकों का पिंड छूटा है। कई तो तपेदिक की मृत्यु शैया पर पड़े-पड़े यमराज से लड़े हैं और उनकी डाढ़ों में से वापिस लौटे हैं। भूतोन्माद, दुःस्वप्न, मूर्च्छा, हृदय की निर्बलता गर्भाशय का विषैला होना आदि रोगों से कितनों ने ही मुक्ति पाई है। कोढ़ी शुद्ध हुए हैं, असंयत जीवन क्रम और कुविचारों से उत्पन्न होने वाले स्वप्नदोष, प्रमेह आदि रोगों का मनः शुद्धि के साथ-साथ तुरन्त ही कम होना प्रारम्भ हो जाता है।

चिन्ताओं के दबाव से जो मस्तिष्क फटते रहते थे उन्हें निश्चिन्तता और सन्तोष की साँस लेते हुए देखा गया है। मृत्यु शोक ,सम्पत्ति का नाश, ऋण-ग्रस्तता, बात बिगड़ जाने का भय, कन्या विवाह का खर्च , प्रियजनों का बिछोह, जीविका का आश्रय टूट जाना, अपमान, असाध्य रोग, दरिद्रता, शत्रुओं का प्रकोप ,बुरे भविष्य की आशंका आदि कारणों से जिन्हें हर घड़ी चिन्ता घेरे रहती थी उन्हें माता की कृपा से कोई निश्चिन्तता प्राप्त हुई है या उन्हें आकस्मिक सहायता मिली है या भीतर से प्रेरणा उद्धार का कोई उपाय सूझ पड़ा है या अन्तःकरण में ऐसा विवेक और आत्मबल प्रकट हुआ है जिससे उस अवश्यम्भावी अटल प्रारब्ध को हँसते-हँसते वीरतापूर्वक सहन कर लिया।

पुरुषों की ही भाँति स्त्रियाँ भी प्रसन्नतापूर्वक गायत्री उपासना कर सकती हैं। विधवाएं आत्म-संयम इन्द्रिय निरोध, मनोनिग्रह, एवं सात्विकता की वृद्धि करने में गायत्री की सहायता से सफल होती हैं। वे घर में रहकर इस तपस्या द्वारा आत्मकल्याण, प्रभु प्राप्ति एवं जीवन मुक्ति प्राप्त कर सकती हैं। कुमारी कन्याओं की गायत्री साधना उनको अच्छे घर वर तथा अनन्त सौभाग्य प्राप्त करने में सहायक होती है। सधवाएं गायत्री साधना द्वारा दाम्पत्य जीवन में प्रेम, घर में सुख शान्ति एवं समृद्धि, बालकों का कुशलक्षेम प्राप्त करती हैं। गर्भवती स्त्रियाँ वेदमाता की उपासना करके स्वस्थ, तेजस्वी, बुद्धिमान, दीर्घजीवी एवं भाग्यवान बालक प्राप्त करती हैं।

सबसे उत्तम यह है कि निष्काम होकर अटूट श्रद्धा और भक्ति भाव से गायत्री की उपासना की जाय, कोई कामनापूर्ति की शर्त न लगाई जाय क्योंकि मनुष्य अपने वास्तविक लाभ हानि और आवश्यकता को स्वयं उतना नहीं समझता जितना घट-घट वासिनी सर्वं शक्तिमान माता समझती है। वह हमारी वास्तविक आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करती है। प्रारब्धवश कोई अटल दुर्भाग्य न भी टल सके तो भी साधना निष्फल नहीं जाती। वह किसी न किसी अन्य मार्ग से साधक को उसके श्रम की अपेक्षा अनेक गुना लाभ अवश्य पहुँचा देती है। सबसे बड़ा लाभ आत्म कल्याण है। जो यदि संसार के समस्त दुःखों को अपने ऊपर लेने से प्राप्त होता हो, तो भी प्राप्त करने ही योग्य है।

गायत्री जप एक आवश्यक नित्य कर्त्तव्य है। इस धर्म कर्तव्य की उपेक्षा करने वालों को शास्त्रकारों ने ‘शूद्र’ कहा है। मनुष्य का हाड़ माँस का शरीर माता के गर्भ से उत्पन्न होता है किन्तु आध्यात्मिक जीवन गायत्री माता के द्वारा ही मिलता है। यह दूसरा जन्म होने पर ही कोई व्यक्ति द्विज कहलाता है। जहाँ गायत्री की नियमित साधना होती है वहाँ कल्याण की निरन्तर वर्षा होती रहती है।

इस गायत्री महाशक्ति का युग निर्माण के महान कार्य में उपयोग करने के लिए जप उपासना के साथ-साथ उसे यज्ञ शक्ति से भी समन्वित करना है। गायत्री और यज्ञ की सम्मिलित शक्ति से उत्पन्न सूक्ष्म तरंगें संसार के लिए भारी कल्याण कारक अवसर उत्पन्न करती हैं। यज्ञ की शक्ति का कुछ परिचय आगे के लेख में दिया जा रहा है।


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