यज्ञ का महान् महत्व

September 1958

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यज्ञों की भौतिक और आध्यात्मिक महत्ता असाधारण है। भौतिक या आध्यात्मिक जिस क्षेत्र पर भी दृष्टि डालें उसी में यज्ञ की महत्वपूर्ण उपयोगिता दृष्टिगोचर होती है। वेद में ज्ञान, कर्म, उपासना तीन विषय हैं। कर्म का अभिप्राय-कर्म -काण्ड से है कर्मकाण्ड यज्ञ को कहते हैं। वेदों का है। यों तो सभी वेदमंत्र ऐसे हैं जिनकी शक्ति को प्रस्फुरित करने के लिए उनका उच्चारण करते हुए यज्ञ करने की आवश्यकता होती है।

जिस प्रकार आजकल यन्त्रों (मशीनों) की सहायता से भौतिक जीवन के अनेकों सुख साधन उत्पन्न किये जाते हैं डडडडड डडडडड को सरल करने का विज्ञान विकसित हुआ था। शब्द-विद्या एक बड़ी विद्या है। किस शब्द के बाद क्या शब्द कितने चढ़ाव उतार से बोला जाय तो उससे किस प्रकार की ध्वनि तरंगें निकलती हैं और उनका सूक्ष्म प्रकृति पर तथा मनुष्य की भीतरी चेतना पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसी रहस्य को जानने में ऋषियों ने हजारों वर्षों तक श्रम किया था और शब्द-विद्या के वैज्ञानिक तथ्यों को जानकर मन्त्र शास्त्र की रचना की थी।

वेद मंत्रों में यों शिक्षाएं भी बड़ी महत्वपूर्ण हैं पर उन अक्षरों में शक्ति के स्त्रोत भी दबे पड़े हैं। जिस प्रकार अमुक स्वर-विन्यास के शब्दों की रचना करने से अनेक राग–रागनियां बजती हैं और उनका प्रभाव सुनने वालों पर विभिन्न प्रकार का होता है, उसी प्रकार मन्त्रोच्चारण से भी एक प्रकार की ध्वनि तरंगें निकलती हैं और उनका भारी प्रभाव विश्वव्यापी प्रकृति पर, सूक्ष्म जगत पर, तथा प्राणियों के स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों पर पड़ता है।

भारतीय तत्ववेत्ताओं ने कोयला, भाप, तेल, धातु आदि के आधार पर चलने वाले यन्त्रों को बहुत खर्चीला और जोखिम भरा जान लिया था। इसलिए इस ओर ध्यान न देकर शब्द विज्ञान के आधार पर मन्त्र विद्या का आविष्कार किया था और उनकी शक्ति से इस लोक के जड़ चेतन प्राणियों को ही नहीं, लोक लोकान्तरों के जीवों को सुखी बनाने का प्रयत्न किया था। खेद है कि हम पिछले तमसाच्छन्न युग में अपनी इन महत्वपूर्ण विद्याओं को खो बैठे। मन्त्र शास्त्र और यज्ञ विज्ञान को भली प्रकार समझने के लिए आज न तो अनुभवी विद्वान मौजूद हैं और न यवन काल के हम्माम गरम करने से उस विद्या के ग्रन्थ ही बच पाये हैं। फिर भी जो कुछ बचा है और ज्ञात है वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। यज्ञों की प्रक्रिया में जो थोड़ा-सा समय और पैसा खर्च होता है उनकी अपेक्षा अनेकों गुना लाभ प्राप्त होता है।

मनुष्य शरीर से निरन्तर निकलती रहने वाली गंदगी के कारण जो वायु मण्डल दूषित होता रहता है, उसकी शुद्धि यज्ञ की सुगन्ध से होती है। हम मनुष्य शरीर धारण करके जितना दुर्गन्ध पैदा करते हैं उतनी ही सुगन्ध भी पैदा करें तो सार्वजनिक वायुतत्त्व को दूषित करने के अपराध से छुटकारा प्राप्त करते हैं।

यज्ञ धूम्र आकाश में जाकर बादलों में मिलता है उससे वर्षा का अभाव दूर होता है। साथ ही यज्ञ धूम्र की शक्ति के कारण बादलों में प्राणशक्ति उसी प्रकार भर जाती है जिस प्रकार इन्जेक्शन की पिचकारी से थोड़ी-सी दवा भी शरीर में प्रवेश करा दी जाय तो उसका प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता है। यज्ञ कुण्डों को इन्जेक्शन की पिचकारी, मन्त्रों को सुई और आहुतियों को दवा मानकर आकाश में जो इन्जेक्शन लगाया जाता है उसका फल प्राणप्रद वर्षा के रूप में प्रकट होता है। ऐसी वर्षा से अन्न, घास पात, वनस्पतियाँ, जीव जन्तु सभी बलवान परिपुष्ट एवं शक्ति सम्पन्न बनते हैं।

यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली तत्व वायु मण्डल में फैलाये जाते हैं उनसे हवा में घूमते हुए असंख्यों रोग के कीटाणु सहज ही नष्ट होते हैं। डी. डी. टी., फिनायल आदि छिड़कने, बीमारियों से बचाव करने की दवाएं या सुइयाँ लेने से भी कहीं अधिक कारगर उपाय यज्ञ करना है। साधारण रोगों एवं महामारियों से बचने का यज्ञ एक सामूहिक उपाय है।

यज्ञ द्वारा पृथक-पृथक रोगों की भी चिकित्सा हो सकती है। यज्ञ तत्व का ठीक प्रकार उपयोग करके अन्य चिकित्सा पद्धतियों के मुकाबले में अधिक मात्रा में और अधिक शीघ्रतापूर्वक लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

यज्ञ द्वारा विश्वव्यापी पंच तत्वों की, तन्मात्राओं की, तथा दिव्य शक्तियों की परिपुष्टि होती हैं। इसके क्षीण हो जाने पर दुखदायी असुरता संसार में बढ़ जाती है और मनुष्यों को नाना प्रकार के आस सहने पड़ते हैं। देवताओं का—सूक्ष्म जगत के उपयोगी देवतत्वों का भोजन यज्ञ है। जब उन्हें अपना आहार समुचित मात्रा में मिलता रहता है तो वे परिपुष्ट रहते हैं और असुरता को, दुख दारिद्र को दबाये रहते हैं। इस रहस्यमय तथ्य को गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं श्रीमुख से उद्घाटन किया है।

यज्ञ में जिन मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है उन की शक्ति असंख्यों गुनी अधिक होकर संसार में फैल जाती है, और उस शक्ति का लाभ सारे विश्व को प्राप्त होता है। रेडियो ब्रॉडकास्ट करते समय वक्ता की वाणी को शक्तिशाली विद्युतधारा से शक्तिवान बना देते हैं तो वह आवाज संसार भर में रेडियो यन्त्रों पर सुनी जाने योग्य हो जाती है। मन्त्रोच्चारण के साथ यज्ञाग्नि की शक्ति बिजली की बैटरी, जनरेटर डायनेमो का काम करती है और मन्त्रशक्ति को प्रचण्ड करके सारे आकाश में फैला देती है। गायत्री मंत्र की सद्बुद्धि शक्ति को यज्ञों के द्वारा जब आकाश में फैलाया जाता है तो उसका प्रभाव समस्त प्राणियों पर पड़ता है और वे सद्बुद्धि से, सद्भावना से, सत्प्रवृत्तियों से अनुप्राणित होते हैं।

यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अन्तःकरण पर देवत्व की छाप डालती है। जहाँ यज्ञ होते हैं वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँ जाने वालों पर भी दीर्घ काल तक प्रभाव डालती रहती है। प्राचीन काल में तीर्थ वहीं बने हैं जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे। जिन घरों में, जिन स्थानों में यज्ञ होते हैं वह भी एक प्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है उनकी मनोभूमि उच्च सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती है। महिलाएं, छोटे बालक एवं गर्भस्थ बालक विशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं। उन्हें सुसंस्कारित बनाने के लिए यज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है।

कुबुद्धि, कुविचार, दुर्गुण एवं दुष्कर्मों से युक्त व्यक्तियों की भी मनोभूमि में यज्ञ से भारी सुधार होता है। इसलिए यज्ञ को पाप नाशक कहा गया है। यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुई विवेकपूर्ण मनोभूमि का प्रतिफल जीवन के प्रत्येक क्षण को स्वर्गीय आनन्द से भर देता है, इसलिए यज्ञ को स्वर्ग देने वाला कहा गया है।

यज्ञों की शोध की जाय तो प्राचीन काल की भाँति यज्ञ शक्ति से सम्पन्न आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, सम्मोहनास्त्र, आदि अस्त्र शस्त्र, पुष्पक विमान जैसे यंत्र, बन सकते हैं, अनेकों ऋद्धि सिद्धियों को उपलब्ध किया जा सकता है। लोक लोकान्तरों की यात्रा की जा सकती है। प्रखर बुद्धि सुसंतति, निरोगिता एवं सम्पन्नता प्राप्त की जा सकती है। प्राचीन काल की भाँति यज्ञीय लाभ पुनः प्राप्त हों इसकी शोध के लिए यह आवश्यक है कि जनसाधारण का ध्यान इधर आकर्षित हो और साधारण यज्ञ आयोजनों का प्रचार बढ़े।

यज्ञीय धर्म प्रक्रियाओं में भाग लेने से आत्मा पर चढ़े हुए मल विक्षेप शुद्ध होते हैं। फलस्वरूप तेजी से उसमें ईश्वरीय प्रकाश आने लगता है। यज्ञ से आत्मा में ब्राह्मण तत्व, ऋषितत्व की वृद्धि दिन-दिन होती है और आत्मा को परमात्मा से मिलाने का परम-लक्ष बहुत सरल हो जाता है। आत्मा और परमात्मा को जोड़ देने का, बाँध देने का कार्य यज्ञाग्नि द्वारा ऐसे ही होता है जैसे लोहे के दो टूटे हुए टुकड़ों को वैल्डिंग की अग्नि जोड़ देती है। ब्राह्मणत्व यज्ञ के द्वारा ही प्राप्त होता है। इसीलिए ब्राह्मण के कर्तव्यों में यज्ञ, विद्या, दान—इन तीन की प्रधानता है।

यज्ञ त्यागमय जीवन के आदर्श का प्रतीक है। इदन्न मम—(यह मेरा नहीं सम्पूर्ण समाज का है) इन भावनाओं के विकास से ही हमारा सनातन आध्यात्मिक समाजवाद जीवित रह सकता है। अपनी प्रिय वस्तुएं घृत, मिष्ठान्न, मेवा औषधियाँ आदि हवन करके उन्हें सारे समाज के लिये बाँट देकर हम उसी प्राचीन आदर्श को मनोभूमि में प्रतिष्ठापित करते हैं। मनुष्य अपनी योग्यता, शक्ति, विद्या, सम्पत्ति, प्रतिष्ठा, प्रभाव पद आदि का उपयोग अपने सुख के लिये कम से कम करके समाज को उसका अधिकाधिक लाभ दे यही आदर्श यज्ञ में सन्निहित है। यज्ञ की प्रतीक पूजा से उन भावनाओं को सारे समाज को हृदयंगम कराया जाता है।

यज्ञ हमारा सर्वोत्तम शिक्षक है जो अपना आदर्श अपनी क्रिया से स्वयं ही प्रकट करता रहता है। (1)अग्नि का स्वभाव है कि सदा उष्णता और प्रकाश धारण किये रहती है। हम भी उत्साह, श्रमशीलता, स्फूर्ति,आशा एवं विवेकशीलता की गर्मी और रोशनी अपने में धारण किये रहें (2) अग्नि में जो वस्तु पड़ती है उसे वह अपने समान बना लेती है, हम भी अपने निकटवर्ती लोगों को अपने समान सद्गुणी बनावें (3) अग्नि की ज्योति सदा ऊपर को ही उठती है, उलटने पर भी मुँह नीचे को नहीं करती, हम भी विषम परिस्थितियाँ आने पर भी अधोगामी न हों वरन् अपने आदर्श ऊँचे ही रखें। (4) अग्नि कोई वस्तु अपने पास नहीं रखती वरन् जो वस्तु मिली उसे सूक्ष्म बनाकर आकाश में फैला देती है, हम भी उपलब्ध वस्तुओं को अपने लिये ही न रखें वरन् उन्हें समाज के हित में वितरण करते रहे हैं (5) अग्नि को ही यह शरीर भेंट किया जाने वाला है, इसलिये चिता का सदा स्मरण रखें, मृत्यु को समाने देखें, और सत्कर्मों में शीघ्रता करने एवं दुष्कर्मों से बचने को तत्पर रहें। इन भावनाओं के प्रतिनिधि रूप में यज्ञाग्नि की पूजा की जाती है।

अपनी थोड़ी सी वस्तु को सूक्ष्म वायु रूप बना कर उन्हें समस्त जड़ चेतन प्राणियों को बिना किसी अपने पराये, मित्र शत्रु का भेद किये साँस द्वारा इस प्रकार गुप्त दान से रूप में खिला देना कि उन्हें पता भी न चले कि किस दानी ने हमें इतना पौष्टिक तत्व खिला दिया—सचमुच एक श्रेष्ठ ब्रह्मभोज का पुण्य प्राप्त करना है। कम खर्च में बहुत अधिक पुण्य प्राप्त करने का यज्ञ एक सर्वोत्तम उपाय है।

यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है। अन्य उपासनाएं या धर्म प्रक्रियाएं ऐसी हैं जो अकेला कर या करा सकता है। पर यज्ञ ऐसा कार्य है जिसमें अधिक जनता के सहयोग की जरूरत है होली आदि बड़े यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं। यज्ञ आयोजनों में सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएं विकसित होती हैं।

आपत्ति काल में, अनिष्ट निवारण में, कुसमय में, रक्षात्मक शाँति शक्ति के रूप में यज्ञों का बड़ा महत्व है। वर्तमान काल में एटम युद्ध जैसी सत्यानाशी आसुरी संहार लीलाओं की सम्भावनायें बढ़ती जा रही हैं। सन् 62 में एक राशि पर 8 ग्रह आने का कुयोग भी अशुभ सूचक है। ऐसे कुसमय आने पर शाँति आयोजनों के रूप में यज्ञानुष्ठान को शास्त्रकारों ने सर्वोत्तम उपाय माना है। अरबों मनुष्यों और असंख्य जीव जन्तुओं की शाँति और सुरक्षा के लिये यज्ञ आयोजनों की शृंखला बढ़ाने की आवश्यकता है।

हिंदू जाति का प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व, त्यौहार संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है। यज्ञ भारत की सर्वमान्य एवं प्राचीनतम वैदिक उपासना है। बीच के अन्धकार युग में अनेक मतमतान्तर उपज पड़े और विघटनात्मक भारी मतभेद खड़े हो जाने से हिन्दू जाति विशृंखलित हो गई। धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिये यज्ञ आयोजनों की सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है।

यज्ञ भारतीय जीवन में ओत-प्रोत हो रहा है। हमारा कोई भी शुभ अशुभ धर्म कृत्य यज्ञ के बिना पूरा नहीं माना जाता। जन्म से लेकर अन्त्येष्टि तक 16 संस्कार होते हैं, इनमें अग्निहोत्र आवश्यक है। नामकरण, यज्ञोपवीत, विवाह आदि सभी कृत्यों में हवन अवश्य होता है। आज कल लोग मृत शरीर को योंही चिता में जला देते हैं पर वस्तुतः शास्त्रों में उसका भी पूरा अन्त्येष्टि यज्ञ विधान है। हिन्दू के शरीर को अन्ततः यज्ञ पिता की गोद में ही आश्रय मिलता है। हमारे प्रत्येक कथा, कीर्तन, व्रत, उपवास, पर्व, त्यौहार, उत्सव, उद्यापन में हवन आवश्यक माना जाता है। हिन्दू के नित्य जीवन से अग्नि को भोजन स्त्रियाँ अब भी पहले अग्नि देव को जिमा लेती हैं तब किसी को भोजन परोसती हैं। सत्य नारायण व्रत कथा, रामायण पारायण, गीतापाठ, भागवत सप्ताह, कीर्तन आदि कोई भी शुभ कार्य क्यों न हो, हवन आवश्यक है। हवन यों अन्य मन्त्रों से भी होता है पर सर्वश्रेष्ठ हवन गायत्री मन्त्री का ही है। यही सबके लिये सुगम और सम्भव भी है।

धर्मग्रन्थों में पग-पग पर यज्ञ की महिमा का गान है। उनमें से कुछ उदाहरण नीचे देखिए :—

सुख शान्ति की इच्छा करने वाला कोई व्यक्ति यज्ञ का परित्याग न करे। यज्ञ को छोड़ने वाले के हाथ से सुख शान्ति भी छूट जाती है।

यजुर्वेद

यज्ञ से ही देवताओं ने स्वर्ग का अधिकार प्राप्त किया और असुरों को हराया। यज्ञ से कष्ट भी सुख में बदल जाते हैं। यज्ञ में समस्त भौतिक और आत्मिक लाभ भरे हुये हैं। इसलिये विद्वज्जन यज्ञ को महान् कहते हैं।

महानारायणोपनिषद्

यज्ञों से सन्तुष्ट होकर देवता संसार का कल्याण करते हैं। यज्ञ द्वारा लोक और परलोक सुधरते हैं। यज्ञ के समान कोई दान नहीं, यज्ञ के समान कोई कर्मकाण्ड नहीं, यज्ञ में ही धर्म का समस्त तत्व समाया हुआ है।

ब्रह्मा जी ने मनुष्यों के साथ ही यज्ञ को भी पैदा किया और उनसे कहा कि इस यज्ञ द्वारा ही तुम्हारी उन्नति होगी। यह यज्ञ तुम्हारी इच्छित कामनाओं और आवश्यकताओं को पूर्ण करेगा। तुम लोग यज्ञ द्वारा देवताओं को पुष्ट करो, देवता तुम्हारी उन्नति करेंगे। यज्ञ द्वारा पुष्ट हुए देवता अनायास ही तुम्हारी सुख शान्ति की वस्तुएं प्रदान करेंगे।

—गीता

यज्ञ से अनेक पापों से छुटकारा मिलता है। अन्तः करण पर जमे हुये जन्म जन्मान्तरों के कुसंस्कार नष्ट होते हैं और अग्नि से तपाये हुए सोने की तरह चित्त शुद्ध हो जाता है।

—हरीत

यज्ञ से पुत्रार्थी को पुत्र, धनार्थी को धन, विवाहार्थी को अनुकूल साथी, रोगी को निरोगिता, महत्वाकाँक्षी को ऐश्वर्य एवं निष्काम भाव से यज्ञानुष्ठान करने वाले को सच्चिदानन्द परमात्मा की प्राप्ति होती है।

—मत्स्य पुराण

यज्ञ करने वाले को ग्रह दिशा, धनक्षय, स्वजन विछोह, पाप, रोग बन्धन, ऋण आदि की पीड़ा नहीं सहनी पड़ती। यज्ञ का फल अनन्त है।

—कोटि होम पद्धति

यज्ञ से संतुलित प्राण-पूर्ण वर्षा होती है, यज्ञ से पुञ्टडडडड अन्त, औषधियाँ वनस्पति एवं पेड़ उत्पन्न होते हैं। यज्ञ से शुद्ध हुई वायु द्वारा मनुष्य का शरीर और मन प्रफुल्लित रहता है।—विष्णु पुराण

राजयक्ष्मा जैसे कठिन रोग यज्ञ द्वारा सहज ही अच्छे हो जाते हैं। रोगों से छुटकारा पाने और उत्तम स्वास्थ्य की इच्छा करने वालों को यज्ञ का आश्रय लेना चाहिए।

—चरक संहिता

व्यापक आपत्तियों और कठिनाइयों का समाधान करने के लिये विशालकाय सामूहिक यज्ञ करने चाहिए।

—स्कन्द पुराण

इस प्रकार के असंख्यों शास्त्र वचन, धर्म ग्रन्थों में पन्ने-पन्ने पर अंकित हो रहे हैं। यज्ञ को “श्रेष्ठतम कर्म” इसी से कहा गया है कि थोड़े-से मूल्य की समिधा, सुगन्धित द्रव्य, हविष्यान्न, घी आदि हवन करके उस मूल्य की अपेक्षा करोड़ों गुने मूल्य का लोकहित होता है। वायु शुद्धि से अस्वस्थता के तत्वों का उन्मूलन, प्राण युक्त वर्षा द्वारा परिपुष्ट अन्न वनस्पतियों की उत्पत्ति, धर्म प्रवृत्ति उत्पन्न करने वाला वातावरण निर्माण, देवताओं की प्रसन्नता से श्रेयस्कर सत्परिणामों की प्राप्ति, यज्ञकर्त्ताओं पर प्रवाह से साधकों की मनोभूमियों में कुसंस्कारों के निवारण एवं सुसंस्कारों की स्थापना, अनिष्ट कारक आपत्तियों से सुरक्षा, विश्व में व्याप्त सद्भावना एवं सुख शाँति की स्थापना आदि अनेकों लाभ यज्ञ के हैं। इन कार्यों को देखते हुए गायत्री यज्ञों में जो थोड़ा सा धन और समय खर्च होता है वह नगण्य ही है। किसान जिस प्रकार खेत में एक दाना बोकर सौ दाने उपजाता है, ठीक वैसा ही परिणाम यज्ञ का भी है। यह किसी प्रकार घाटे का सौदा नहीं है।

यों यज्ञों की सदा ही आवश्यकता रहती है पर इन दिनों उनके व्यापक आयोजन अनेक कारणों से अत्यन्त आवश्यक हैं। महायुद्धों में जो गैस बारूद जलती है उनसे वायु अशुद्ध होती है जो मनुष्य मर जाते हैं उनके चीत्कार आकाश में गूँजते रहते हैं तथा अपघात से मरे हुए जीव अशाँत स्थिति में अन्तरिक्ष में घूमते रहते हैं। इन बातों के समाधान के लिए महायुद्धों के बाद बड़े यज्ञों की जरूरत पड़ती है। राम रावण युद्ध के बाद भगवान राम ने बड़े विशाल अश्वमेध यज्ञ किये थे। महाभारत के बाद भी भगवान कृष्ण ने पाँडवों से बड़े-बड़े यज्ञ कराये थे। पिछले दिनों कई बड़े महायुद्ध हो चुके हैं उनमें हत्या तथा विषैली गैसों का प्रयोग और भी अधिक हुआ है। इससे प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ गया है तथा दूषित विचार धाराओं की प्रेरक तरंगें मनुष्यों के मस्तिष्कों पर बुरा प्रभाव डाल रही हैं। चूँकि क्षेत्र और कार्य बड़ा है इसलिए यज्ञों की विशालता भी उसी अनुपात से होनी चाहिये।

वर्तमान विपन्न परिस्थितियों में गायत्री यज्ञों से बढ़कर कोई उपचार नहीं हो सकता। यों वर्षा का अभाव दूर करने के लिये विष्णु यज्ञ, विलासिता का त्याग और भक्ति भावना बढ़ाने के लिये रुद्र यज्ञ, बीमारियों को रोकने के लिये मृत्युँजय यज्ञ और लड़ाई के समय जनता में जोश एवं वीरता भरने के लिये चण्डी यज्ञ कराये जाते हैं, पर जब मनुष्यों को कुमार्गगामिता से बचाकर सन्मार्ग पर लाने का, विश्वव्यापी अशुभ को रोकने का, प्रयोजन हो तो आज की परिस्थितियों में गायत्री यज्ञ से बढ़कर अधिक उपयुक्त अचूक एवं रामबाण और कोई धर्मानुष्ठान हो नहीं सकता।

ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान इस युग का सबसे बड़ा आध्यात्मिक अभियान है। उसका उद्देश्य भी अत्यन्त विशाल है। तदनुसार पूर्णाहुति भी उतनी ही विशाल रखनी पड़ रही है। जितना बड़ा यज्ञ है उसकी शक्ति का प्रादुर्भाव भी उतना ही बड़ा होगा इस यज्ञ में सम्मिलित होने वाले व्यक्ति वह लाभ प्राप्त कर सकेंगे जो साधारणतः वर्षों तक कठिन साधना करने पर भी उपलब्ध करना कठिन है। शारीरिक विकारों से ग्रस्त; मानसिक अपूर्णता एवं उद्वेगों में ग्रसित, सुसंतति के लिए तरसने वाले, चिन्ता और भय से परेशान, आपत्तिग्रस्त व्यक्ति इस अवसर का भरपूर लाभ उठा सकते हैं। अन्तःकरण पर चढ़े हुए कुसंस्कारों को जलाने के लिये यह अवसर सोने को तपा कर शुद्ध करने जैसा ही है। भीतर के तमोगुण को हटा कर दिव्य सतोगुण की स्थापना ऐसे समय में ही हो सकती है। विश्व शाँति एवं देवत्व की अभिवृद्धि के सार्वभौम लाभ तो होंगे ही साथ ही जो लोग इस यज्ञ में शामिल रहेंगे वे व्यक्तिगत लाभ भी आशाजनक मात्रा में प्राप्त कर सकेंगे।


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