ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का ब्रह्म-भोज

September 1958

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ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के अंतर्गत पुरश्चरण की शास्त्रोक्त प्रक्रिया के अनुसार जप, पाठ, लेखन, हवन की प्रक्रियायें चल रही हैं। ब्राह्मण, ब्रह्म का, ज्ञान का प्रतीक है। ज्ञान-प्रचार के महान कार्य का सम्पादन करने के कारण ही, अन्य सब मनुष्यों जैसे व्यक्ति को ब्राह्मण कहलाने का गौरव मिलता है। आज यदि ऐसे ब्राह्मण नहीं मिलते, जिन्हें अन्न खिलाना सफल माना जा सके, तो कोई चिन्ता की बात नहीं है। सद्ज्ञान के मूल तत्व को ग्रहण करके इसे फैलाने के कार्य को हाथ में लिया गया है। जितने पैसे का अन्न ब्राह्मण को खिलाया जाता उतने पैसे का साहित्य वितरण किया जा रहा है। इससे ब्रह्म-भोज का मूल लक्ष भली प्रकार पूरा होता है। प्रसन्नता की बात है कि महायज्ञ के होता, यजमानों ने ब्रह्म-भोज की महान प्रक्रिया के रूप में सत्साहित्य वितरण को स्वीकार कर लिया है और इस दिशा में उन्होंने उत्साहपूर्वक कार्य किया है। गायत्री माता और यज्ञ पिता का सन्देश घर-घर पहुँचाने का कार्य इस ब्रह्म-भोज द्वारा ही सम्पन्न किया जा रहा है। 24 लाख व्यक्तियों को गायत्री माता और यज्ञ पिता का महत्व समझाकर उन्हें उपासना तथा आत्म निर्माण के पथ पर अग्रसर करने का संकल्प ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का ब्रह्म-भोज है। इस कार्य-क्रम को महायज्ञ के होता यजमानों ने बड़े उत्साह और साधकोचित श्रद्धा से सम्पन्न किया है। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान साहित्य का बड़ी संख्या में वितरण किया जा रहा है तथा ज्ञान मन्दिरों की स्थापना प्रत्येक गायत्री प्रेमी के घर पर की जा रही है। ज्ञान मन्दिर सैट को 10 व्यक्तियों को पढ़ाकर धर्म प्रचारक या उपाध्याय बनने के लिए सभी सच्चे साधक प्रयत्नशील हैं। यही परम्परा आगे भारत भूमि में ऋषि-युग लाने का प्रधान आधार बनेगी।

अन्य दान की अपेक्षा ज्ञान दान का पुण्य सौ गुना अधिक माना गया है। इस साहित्य से प्रभावित होकर थोड़े से व्यक्ति भी यदि सत्मार्गगामी हो सकें तो उसका अक्षय पुण्य उस साहित्य वितरण करने वाले को मिल सकता है। महायज्ञ में इस ब्रह्म भोज को इसलिए और भी महत्व दिया गया है कि आगे वर्षों में लाखों-करोड़ों भारतवासियों के अन्तःकरण में से आसुरी वृत्तियों, व्यक्तिगत बुराइयों तथा सामाजिक कुरीतियों को हटाने का कार्य करना है। उस उखाड़-पछाड़ के लिए खुरपी, कुदाली और फावड़े का कार्य यह सत्साहित्य ही देगा। आगे के लिए गायत्री-परिवार के सक्रिय कार्यकर्ताओं को यह कार्य एक धर्म कर्तव्य की तरह सौंपा जायगा कि वे प्रतिदिन आधी-आधी रोटी दोनों समय कम खायें और एक छटाँक अन्न बचा-कर उसकी कीमत दो पैसा प्रतिदिन ब्रह्मभोज में लगावें। हर व्यक्ति के यहाँ कुछ बच्चे होते हैं, हर बच्चा एक दो पैसा आसानी से बिगाड़ देता है। समझना चाहिए एक बच्चा गायत्री माता भी है, दो पैसा प्रतिदिन उसके लिए भी दिया करेंगे। हर सद्गृहस्थ के घर में एक रोटी गाय के लिए निकलती है। हर गृहस्थी में एक रोटी कुत्ते को भी पड़ती है। इसी प्रकार एक रोटी या एक छटाँक अन्न ब्रह्म-भोज के लिए-ज्ञान दान के लिए निकाला जाना चाहिए। हर साधक प्रतिज्ञा करे कि वह एक छटाँक अन्न या दो पैसा रोज इस परम पुनीत कार्य के लिए जीवन भर निकालता रहेगा। जिन पर मानसिक दुर्बलता, अश्रद्धा या कंजूसी सवार नहीं है, वे साधक आर्थिक कठिनाई होते हुए भी इतना छोटा त्याग बड़ी आसानी से कर सकते हैं।

गत वर्ष प्रचार के उद्देश्य से प्रति पंद्रहवें दिन एक छोटी पुस्तिका प्रकाशित करने की घोषणा की गई थी। प्रत्येक व्रतधारी, गायत्री-परिवार का कार्यकर्ता अपने निकटवर्ती, धर्म रुचि के दस व्यक्तियों के नाम नोट करेगा और प्रत्येक अमावस्या व पूर्णिमा को उस पुस्तिका को उन नियत दस व्यक्तियों को देने जाया करेगा। इस प्रकार प्रतिमास दो पुस्तिका के हिसाब से एक वर्ष में 24 पुस्तिकाएं उन दश व्यक्तियों की भेंट करेगा। उन छोटी पुस्तिकाओं में जीवन के महत्वपूर्ण विषयों पर बड़े ही मार्मिक रूप से विचार रहेंगे, ऐसे विचार कि जिन्हें अपनाने से जीवन की काया-पलट ही हो सके।

प्रतिदिन दो पैसा रोज के हिसाब से एक महीने में एक रुपया हुआ। इतना खर्च करते रहने से एक वर्ष में 10 व्यक्तियों के घर 24-24 बार 24-24 पुस्तिका भेंट करने जाया जाय तो पिछली बार दी गई पुस्तिका के सम्बन्ध में कुछ धर्म-चर्चा करनी चाहिए। इससे उन दसों व्यक्तियों के साथ 24-24 बार धर्म-चर्चा करने का मौका मिलेगा। इतना प्रयत्न करने पर निश्चय ही उन 10 व्यक्तियों में से कुछ पसीजेंगे। जो पसीज जाएं उन्हें भी इसी प्रकार दो पैसा रोज या एक मुट्ठी अन्नदान करके—ब्रह्मभोज करने के लिए तैयार करना चाहिए।

इस प्रकार यह सद्ज्ञान की सेवा-शृंखला-एक से दूसरे में-दूसरे से तीसरे में बढ़ती चलेगी। एक व्रतधारी धर्म-सेवक एक वर्ष तक 10 व्यक्तियों को सत्साहित्य पढ़ायेगा। अगले वर्ष वह दूसरे नये दस पाठक ढूँढ़ेगा और गत वर्ष की भाँति इन नये पाठकों को इन पुस्तिकाओं को पढ़ायेगा। इस प्रकार प्रतिवर्ष दस नये पाठक ढूंढ़ने की प्रक्रिया चालू रखकर, यदि उसका शेष जीवन 20 वर्ष भी रहा तो भी, 200 नये पाठक बना सकेगा। दो पैसा प्रतिदिन या एक मुट्ठी अन्न जैसे अत्यन्त साधारण दान का महत्व तो देखिए। उसके द्वारा एक व्यक्ति अपने जीवन में 200 या उससे भी अधिक व्यक्तियों को लगातार एक वर्ष तक धर्म-शिक्षा देने के महान् पुण्य का भागी बन सकता है। इन बड़ी संख्या के पाठकों में से यदि थोड़े लोगों में भी कुछ सुधार हो सका तो परिणाम निश्चय ही बड़े महत्वपूर्ण हो सकते हैं।

यह क्रम एक से दूसरे को सीखना है। व्रतधारी धर्म-प्रचारक ने इस वर्ष जिन 10 व्यक्तियों को लगातार साल भर तक पुस्तिकाएं भेंट की हैं उन्हें भी कुछ करने के लिए वह प्रेरित करेगा। इन पढ़ने वालों के जिम्मे आरम्भ में ही यह सेवा सौंपनी चाहिए कि वह प्राप्त हुई इस भेंट पुस्तिका को कम से कम दो व्यक्तियों को पढ़ावें। इस प्रकार वे दस व्यक्ति यदि दो-दो नये पाठकों को उसे पढ़ाये तो बीस व्यक्ति इनके द्वारा भी पढ़ाये जा सकते हैं। दस पाठक और उनके द्वारा बनाये हुए बीस उप पाठक इस प्रकार एक व्रतधारी एक वर्ष में तीस व्यक्तियों के लिए धर्म-शिक्षा की व्यवस्था कर सकता है। जिस स्थान में पढ़े हुए व्यक्ति न हों व कम संख्या में हों वहाँ उनको पुस्तकें पढ़कर सुनाने से भी यह उद्देश्य पूरा हो सकता है।

एक वर्ष जिनके घर 24 बार जाया गया है, जिन्हें 24 पुस्तिकाएं भेंट की गई हैं, जिनसे 24 बार मौखिक धर्म-चर्चा हुई है, उनको इसके लिए भी तैयार किया जाना चाहिये कि वे भी इसी प्रकार दो पैसा प्रतिदिन का ब्रह्मभोज करने और पन्द्रह दिन बाद 10 व्यक्तियों के घर धर्म-चर्चा करने की धर्म फेरी करने जाने के लिए तत्पर हैं। उनके जी में यदि थोड़ी भी श्रद्धा के, परमार्थ के, धर्म-सेवा के बीजाँकुर जमे तो दूसरों से एक वर्ष तक इतनी महत्वपूर्ण आध्यात्मिक सहायता, स्वाध्याय और सत्संग की सुविधा प्राप्त करने के पश्चात् वे स्वयं भी धर्म प्रचारक व्रतधारी उपाध्याय बन सकते हैं।

यह क्रम गुणनफल के हिसाब से आगे बढ़ेगा। एक व्यक्ति ने दस नये व्यक्तियों को धर्म शिक्षा प्राप्त करने वाला पाठक बनाया। अगले वर्ष वे दस व्यक्ति भी दस-दस ऐसे ही पाठक बनावें तो उनकी संख्या दूसरे वर्ष एक सौ हो जायगी। तीसरे वर्ष वे सौ व्यक्ति दस गुने करके हजार बन जावेंगे। चौथे वर्ष वे हजार दस हजार बनेंगे। पाँचवें वर्ष उनकी संख्या एक लाख हो सकती है।

कुछ पाठक अपना कर्तव्य पालन न करें, केवल एक चौथाई-केवल दो-तीन ही शृंखला चला सके तो भी बीस वर्ष में एक व्यक्ति की चलाई हुई शृंखला एक लाख व्यक्तियों तक पहुँच सकती है। यह एक व्यक्ति के एक वर्ष के प्रयत्न की शृंखला बढ़ने का परिणाम है। वह मूल व्रतधारी एक वर्ष ही धर्म-सेवा करके बन्द होने वाला नहीं है, आगे भी वह अपना क्रम जीवन भर जारी रखेगा। ऐसी दशा में उस एक व्रतधारी का प्रयत्न भी उसके जीवन के अन्त तक लाखों-करोड़ों मनुष्यों को ज्ञान-दान से—ब्रह्मभोज कराने में सफल हो सकता है।

गायत्री महायज्ञ के होता-यजमानों की संख्या बहुत बड़ी है। उनमें से कितने ही अधिक उत्साही हैं। कुछ बड़े यज्ञ का नाम सुनकर जल्दी जल्दी बहुत पुण्य लूट लेने और इसके बाद उस तत्व को भूल जाने वाले होंगे। पर निश्चय ही उनमें से एक बड़ी संख्या विचारशील एवं विवेकवानों की भी होगी,जो युग निर्माण के वास्तविक आधार-स्वाध्याय और सत्संग का—ब्रह्मभोज का-महत्व समझते हैं और इतने आवश्यक एवं महान कार्य के लिए दो पैसा या एक मुट्ठी अन्न प्रतिदिन का दान कर सकते हैं। दस व्यक्तियों के यहाँ जाकर उनसे महीने में दो बार एक-एक घण्टा धर्म-चर्चा करने के लिए बीस घण्टा खर्च कर सकते हैं।[1] प्रतिदिन पौन घण्टे के औसत के हिसाब से समय दान,[2]उन व्यक्तियों के घरों पर जाने का कष्ट सहने का श्रमदान [3]दो पैसा या एक मुट्ठी अन्न का धनदान, यह तीनों ही प्रकार के दान करते रहने से व्रतधारी सच्ची धर्म सेवा करते हुए अपना जीवन सफल बना सकता है। गायत्री उपासना के जप,ध्यान के साथ-साथ यह ब्रह्मभोज भी जिन साधकों के जीवन में चलता है वस्तुतः वो ही सच्चे साधक हैं, उन्हीं की साधना धन्य है, वो ही लोक-परलोक में सच्ची सुख-शान्ति की स्थापना करेंगे।

असुरता और देवत्व का मूल निवास हमारे मानसिक क्षेत्र में ही रहता है। यदि मनुष्य जाति को दैवी गुणों से विभूषित करके इस पृथ्वी पर स्वर्गीय वातावरण की स्थापना करनी हो तो हमें जन-मानस में घुसी हुई असुरता को हटाने के लिए तीव्र संघर्ष एवं कठिन परिश्रम करना होगा। इस संघर्ष में स्वाध्याय और सत्संग, लेखनी और वाणी ही हमारे प्रधान हथियार हो सकते हैं। असुरता को मार भगाने के लिए लेखनी का-स्वाध्याय का-यह उपरोक्त व्यापक कार्यक्रम बड़ा ही उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

सत्संग का कार्यक्रम हमारे साप्ताहिक सत्संगों में और सामूहिक यज्ञों में चलेगा। आर्थिक कठिनाई की दृष्टि से यह यज्ञ छोटे और कम खर्च के बनाये जा सकते हैं कम संख्या में सस्ते हवन-पदार्थों की आहुतियाँ दी जा सकती हैं। पर सत्संगों के लिए-सामूहिक एकीकरण के लिए इन यज्ञों को माध्यम बनाना चाहिये। नवरात्रियों में पर्व त्यौहारों पर, या जब सुविधा हो, सामूहिक यज्ञ आयोजन किये जा सकते हैं और उनमें धर्म प्रचार के कार्यक्रम रखकर जनता को सन्मार्ग पर चलने की, सद्विचारों को ग्रहण करने की, तर्क और विवेक को अपनाने की, प्रेरणा दी जा सकती है। प्रवचन का अवसर अपनी संस्था की वेदी पर केवल उन्हें ही दिया जाय जो युग धर्म को पहचानते हों और धर्म के नाम पर मूढ़ता फैलाने में नहीं, नैतिकता, मानवता एवं विचारशीलता को विकसित करने में विश्वास रखते हों।

गायत्री-परिवार को यह दोनों अस्त्र-शस्त्र सँभालने हैं। ब्राह्मणत्व की महान परम्परा को नष्ट-भ्रष्ट होने से बचाना है, उसे जीवित रखना है तो ब्रह्मभोजों के पुनीत धर्म कृत्य को कुछ निठल्लों को लूट-मार करते रहने का माध्यम नहीं बना रहने दिया जा सकता है। इसमें सुधार करना होगा और जन मानस को पवित्र बनाने के लिए इस ब्रह्मभोज की परम पुनीत धर्म-भावना को लोकोपयोगी बनाना होगा। हम लोग अब दृढ़ता और तत्परतापूर्वक इसी मार्ग पर अग्रसर होंगे।


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