महायज्ञ की पूर्णाहुति के बाद-

September 1958

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ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का मूल उद्देश्य धर्म भावनाओं की अभिवृद्धि और आध्यात्म तत्वों का विकास करना है। बढ़ी हुई असुरता का समाधान और देवत्व का परिपोषण करके विश्व में सुख शाँति की गंगा का अवतरण करना इस भागीरथ तप का प्रधान हेतु है। ऐसे धर्मानुष्ठानों के कारण जो सूक्ष्म शक्ति उत्पन्न होती है उससे जन-मानस के अन्तराल में सद्भावनाओं का उद्भव होता है जिससे अनेक प्रकार के क्लेशों से छुटकारा प्राप्त करके सारा संसार मंगलमय लक्ष की ओर अग्रसर होता है।

उपरोक्त आध्यात्मिक लक्ष के अतिरिक्त इस विशाल आयोजन का उद्देश्य राष्ट्र निर्माण की, युग निर्माण की महान प्रक्रिया को पूर्ण करने के लिये धर्म प्रेमी, जागृत एवं तपोनिष्ठ आत्माओं का आह्वान एवं संगठन करना भी है। लम्बे अज्ञानांधकार को पार करके अब भारत ने पुनः प्रकाश के युग में प्रवेश किया है। अज्ञान और दारिद्र के भारी बन्धनों के बावजूद हमारा राष्ट्र लड़खड़ाते पैरों से आगे बढ़ने का प्रयत्न कर रहा है। इस दिशा में अनेक प्रयत्न चल रहे हैं। सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थाएं अपने-अपने ढंग से विकास कार्यों में लगी हुई हैं। यह सब प्रशंसनीय है पर भावना क्षेत्र को विकसित करने का महत्वपूर्ण कार्य सर्वथा उपेक्षित पड़ा है। जिनमें राष्ट्र के भावना क्षेत्र को विकसित करने की क्षमता है वे जन आन्दोलनों को झंझट समझकर उसकी उपेक्षा करते हैं। जिनमें क्षमता नहीं, जो स्वयं अपने को आदर्श एवं अनुकरणीय नहीं बना सके हैं, वे ‘परउपदेश कुशल’ बनकर जब धर्म शिक्षा करने चलते हैं तो उपहास ही नहीं होता उलटी प्रतिक्रिया भी होती है।

भावना क्षेत्र का विकास किये बिना, जनता के मन में सेवा, उदारता, लोकहित, साम्प्रदायिकता, सहिष्णुता, नैतिकता प्रभृति मानवता की प्रवृत्तियों को सुविकसित किये बिना-उन्नति के सारे प्रयत्न दिखावा मात्र रह जावेंगे। जो आर्थिक या सामाजिक उन्नति होगी वह गलत दिशा में प्रयुक्त होने पर लाभदायक सिद्ध होने की बजाय उलटे हानिकर परिणाम उपस्थित करेगी। इसलिए यह नितान्त आवश्यक है कि जनता में शुभ संकल्प और सद्भाव उत्पन्न करने के लिये भी वैसे ही प्रयत्न किये जाएं जैसे अन्य क्षेत्रों के विकास कार्य में किये जा रहे हैं।

यह परम पुनीत कार्य सरकारों का नहीं, धर्म संस्थाओं का है। दुर्भाग्य से भारत की धर्म संस्थाएँ अपनी साम्प्रदायिक मान्यताओं के प्रदर्शन और परिपोषण के लिये तो बहुत शक्ति व्यय करती हैं पर धर्म के मूल तत्वों की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देतीं। ऐसी धर्म संस्थाओं की भारी कमी है जो विभिन्न सम्प्रदाओं के बीच सहिष्णुता, समन्वय और एकता स्थापित करने के साथ-साथ जन साधारण में मानवीय सद्गुणों एवं शुभ संकल्पों का विकास करें। इस कमी को पूरा करने के लिए कुछ विशेष प्रयत्न किये जाने आवश्यक हैं। यह गायत्री-महायज्ञ इस अभाव की पूर्ति के लिए शक्ति भर प्रयत्न करेगा।

मूढ़ विश्वासों, रूढ़ियों भ्रमात्मक मान्यताओं एवं अन्ध परम्पराओं ने हिन्दू समाज के मानसिक संस्थान को जर्जर बना दिया है। भारतीय धर्म और तत्वज्ञान की जो भावनाएँ और मान्यताएँ थीं वे उपेक्षा के गर्त में जा गिरी हैं और उनके स्थान पर अविवेकपूर्ण एवं अनैतिक विचारधाराएँ प्रतिष्ठित हो गई हैं। इनमें संशोधन परिमार्जन करना होगा। भारतीय धर्म का मूल आधार तो अत्यन्त ही उत्कृष्ट तत्वज्ञान पर अवलंबित है पर उसका वर्तमान रूप ऐसा विकृत हो गया है कि समझदार लोग उससे नफरत करते हैं। जो उसे छोड़कर अन्य धर्मों में मिलते जा रहे हैं। जो उसे अपनाये हुए हैं वे भी उसकी उपेक्षा करते हैं और अश्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। यह स्थिति देर तक कायम रही तो हिंदू धर्म की नींव ही हिल जाने का खतरा पैदा हो जायगा। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से बचने के लिए हमें समय रहते सावधान होना होगा और जो अविवेकपूर्ण, अनुपयोगी एवं अनैतिक मान्यताएं जन मानस में प्रवेश कर गई हैं उनकी सफाई करनी होगी।

इस विपन्न मनोदशा में क्राँति करने की निताँत आवश्यकता है। प्रबल तर्कों, उदाहरणों, वैज्ञानिक शोधों, सामाजिक आवश्यकताओं और मनोवैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर लोगों को यह समझना पड़ेगा कि मानवता और नैतिकता के, सेवा और संयम के सिद्धाँत ही सच्चे हैं, उन्हीं पर चलकर हम वैयक्तिक तथा सामाजिक सुख शान्ति उपलब्ध कर सकते हैं। इसे समझने के लिए अब पुराने ‘ऋषिवचन’ ही पर्याप्त न होंगे, वरन् युग के अनुरूप अनेक विचारों से दिग्भ्राँत मनुष्य की बुद्धि में प्रवेश कर सकने योग्य तर्क और तथ्य उपस्थित करने होंगे। कार्ल मार्क्स के द्वारा उपस्थित कम्युनिज्म के तर्कों और तथ्यों ने दुनिया की आधी आबादी को प्रभावित कर लिया है। नैतिकता और मानवता के आदर्शों को भी इसी पैमाने पर प्रस्तुत करना पड़ेगा। जन मानस में गहराई तक जमे हुए वासना और तृष्णा के उद्देश्यों को उखाड़ फेंकने के लिए भारी प्रयत्न और संघर्ष करने पड़ेगा यही बौद्धिक क्राँति की योजना है। महायज्ञ की पूर्णाहुति के बाद गायत्री परिवार को इसी बौद्धिक क्राँति का झण्डा खड़ा करना होगा और जन मानस में भरी हुई सड़ी कीचड़ को निकाल कर उसके स्थान पर सद्ज्ञान की, ऋतम्भरा प्रज्ञा की अमृतमयी निर्झरिणी परिलंबित करने के लिए घोर प्रयत्न करने को तत्पर होना होगा।

यह आध्यात्मिक क्राँति, नैतिक क्राँति, भावना क्राँति भारत के लिए निताँत आवश्यक है। राजनैतिक क्राँति हो चुकी, स्वराज्य मिल गया। समय के साथ-साथ आर्थिक उन्नति का भी क्रम चल रहा है। पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण भावना क्राँति का क्षेत्र, जो सूना पड़ा हुआ है गायत्री-परिवार को पूरा करना होगा। हममें से प्रत्येक को इसके लिए कटिबद्ध होना पड़ेगा। तभी भारतभूमि में प्राचीन ऋषियों का युग अवतरित करने के हमारे स्वप्न साकार हो सकेंगे। तभी युग की सबसे बड़ी पुकार एवं चुनौती का प्रत्युत्तर देना संभव हो सकेगा।

भावना क्राँति के साथ-साथ सामाजिक क्राँति का पहिया भी घूमेगा। भारत का तत्व ज्ञान बड़ा पुराना और महान है। समयानुसार हर वस्तु में विकार आते हैं। उसमें विकृतियाँ प्रवेश करती जाती हैं, पुराने मकानों में अपने आप टूट-फूट होती रहती है। यदि उसकी मरम्मत न की जाय तो वह प्राचीन और प्रशंसनीय इमारत भी खँडहर के बुरे रूप में परिणित हो जाती है। जैसे समय-समय पर पुराने मकानों की टूट-फूट को सुधारना और मरम्मत करना आवश्यक होता है वैसे ही प्राचीन संस्कृतियों में आती रहने वाली विकृतियों में भी सामयिक सुधार आवश्यक होते हैं। समय-समय पर ऋषि, महर्षि, देवदूत, सुधारक एवं अवतार इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए आते हैं। समय-समय पर स्मृतियां बदलती हैं और पुराने अवतारों के स्थान नये अवतार, पुराने ऋषियों के स्थान पर नये ऋषि प्रतिष्ठित होते हैं। कारण यही है कि समय के परिवर्तन के साथ-साथ मान्यताओं और प्रथा परम्पराओं में भी परिवर्तन आवश्यक होता है।

हमारे सामाजिक जीवन में आज अनेकों भयंकर कुरीतियों का समावेश हो गया है और वे लकड़ी के घुन की तरह हमें दिन-दिन काट-काट कर बर्बाद किये दे रही हैं। दहेज का प्रश्न ऐसा ही है। कुछ दिन पहले गरीबी से पीड़ित लोग थे। अब अमीरी में अन्धे हुए लोग लड़के बेचकर अपनी हैसियत बढ़ाने की हविस पूरी करते हैं। लड़की बेचने वाले क्षम्य थे क्योंकि वे गरीबी से मजबूर थे। पर यह लड़के बेचने वाले घृणा, विरोध और दण्ड के अधिकारी हैं क्योंकि अमीरी के उन्माद में इनने मानवता के साधारण सिद्धान्तों को उठाकर ताक पर रख दिया है। दहेज के अभाव में आज सुयोग्य कन्यायें दुखी जीवन बिताने और आत्म हत्या करने को मजबूर हो रही हैं। इस पैशाचिक प्रथा पर कड़ा प्रहार करने की जरूरत है अन्यथा कन्याओं का जन्म एक शोकजनक दुर्घटना ही मानी जाती रहेगी। कन्या और पुत्र के बीच जो असमानता दिखाई देती है उसका मूल कारण यह दहेज ही है।

मृत्यु-भोज हिन्दू समाज की दूसरी घृणित प्रथा है। एक ओर घर में मृत्यु हो चुकी है, एक आदमी उठ गया, घर के लोग शोक विह्वल हैं, दूसरी ओर लड्डू कचौड़ी उड़ाने की तैयारी हो रही है। एक की मृत्यु से वैसे ही घर की आर्थिक स्थिति को धक्का पहुँचता है, उस पर भी मृत्यु-भोज की कुर्की होने से रहा सहा घर खाली हो जाता है। तरस तो उन लोगों की हिम्मत पर आता है जो मृत्यु शोक से आँसू बहाते हुए लोगों के घरों में जाकर दावत उड़ाते हुए मूँछों पर ताव देते हैं और इस प्रकार के अभक्ष भोजन पर जिन्हें आत्म ग्लानि नहीं होती। इस कुरीति की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है। अन्यथा थोड़ी सी कुरीतियाँ हिन्दू परिवारों के आर्थिक ढांचे को तहस नहस करती रहेंगी।

बाल विवाह और वृद्ध विवाह से जन समाज के स्वास्थ्य पर भारी आघात पहुँचता है, यौन रोग बढ़ते हैं, सन्तान दुर्बल, रोगी और अल्पजीवी होती है, मृत्यु संख्या बढ़ती है, व्यभिचार फैलता है, मानसिक दुर्बलता बढ़ती है और रोगों का मुकाबला बुराई को रोकना भी आवश्यक है।

भूत पलीत, चुड़ैल चामड़, दई देवता, टोना टोटका, जादू मंतर के नाम पर जनता व्यर्थ ही ठगी जाती है और परेशान होती है। अज्ञान और अन्धविश्वास ही इसका मूल हेतु है। इन जंजालों की ओर से लोगों को सचेत करना होगा। इन अन्धविश्वासों पर लोग धन और समय ही नहीं गँवाते, वरन् कई बार तो प्राणों तक से हाथ धोना पड़ता है।

देवी देवताओं के नाम पर पशुबलि होना यह हिन्दू धर्म पर एक भारी कलंक है। धर्म शास्त्रों में इन घृणित कुकर्मों के लिए कोई स्थान नहीं है। मध्यकाल के स्वेच्छाकारी माँसाहारी अपने दुष्ट उद्देश्यों के लिए देवी देवताओं को माध्यम बनाकर मद्य माँस सेवन की छूट प्राप्त करते रहे हैं। राज्याश्रयी पंडित ही श्लोक, देवता और विधान गढ़ दिये। बकरीद पर दूसरे धर्म वाले जितने पशु काटते हैं, हिन्दू नवदुर्गाओं में उससे प्रायः 6 गुने पशु काट डालते हैं। अनुमान है कि बंगाल, राजस्थान और पहाड़ी प्रान्तों में करीब 4 लोग माँसाहार करें यह दूसरी बात है पर धर्म जैसे पवित्र तत्व को, देवी देवता जैसे पवित्र नाम को कलंकित किया जाय, वह यह बिलकुल दूसरी बात है। हिन्दू धर्म की महानता इससे कलंकित और नष्ट होती है। इस घृणित प्रथा का अन्त करके हमें अपने धर्म पर लगी हुई एक बड़ी कालोंच को धोना है।

शास्त्रीय वर्णाश्रम धर्म बड़ा ही उत्तम आदर्श था। गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर बनी हुई जातियाँ समाज के स्वस्थ संगठन में बड़ा योग देती रही हैं, पर उनकी उपयोगिता तभी है जब तक कि वे कार्य विभाजन तक ही सीमित रहें। जब वे एक वंश को दूसरे से, एक पेशे को दूसरे पेशे से नीचा बताती हैं, आपस में घृणा फूट और असमानता पैदा करती हैं, तो वे निरुपयोगी ही नहीं हानिकारक भी बन जाती हैं। आज हिन्दू समाज आन्तरिक भेद भाव, फूट और भिन्नता की बीमारी से क्षय रोगी की तरह पीड़ित हो रहा है। विधर्मी इसका भरपूर लाभ उठा रहे हैं। ईसाई और मुसलमानों की संस्था दिन-दिन तेजी से बढ़ती चली जा रही है। ब्राह्मण और अब्राह्मण के मतभेद बढ़ कर उत्तर दक्षिण भारत के बँटने का प्रश्न पैदा हो रहा है। यदि समय रहते हम न चेते तो भारत में एक नहीं अनेकों पाकिस्तान बटेंगे। द्रविणस्तान, सिखस्थान ही नहीं हर जाति एक एक ‘स्थान’ बनाने की माँग करेगी। चुनावों में आजकल जाति-पाँति का सिद्धान्त बहुत काम करता है। अन्य कार्यों में भी जातीय पक्षपात काम करता है। यह विप राष्ट्र के सामाजिक विकास में भारी बाधक है। इस समस्या पर गम्भीरतापूर्वक विचार करके उसका हल खोजना होगा। गायत्री-परिवार इस दिशा में निष्क्रिय न रहेगा।

भारतीय नारी समाज की स्थिति भी दयनीय है। उसे घर की चहार दीवारी में पर्दे में इस प्रकार कैद किया गया है कि वह मानवोचित जीवन बिताना, परिवार की उन्नति में, सुख समृद्धि में सहायक होना तो दूर उलटे परावलम्बी होने के कारण वह अपने और दूसरों के लिए भार रूप होती है। पिता के लिए वह भार रूप, पति उसे बिना दहेज लिये मरी बछिया की तरह स्वीकार करने को तैयार नहीं, विधवा हो जाने के बाद किसी को फूटी आँख से नहीं सुहाती। नारी सब के लिए भार रूप है। कई छोटे बच्चे छोड़ कर जब निर्धन पति मरता है तो उस विधवा की क्या दुर्दशा होती है, उसे देखकर पत्थर के कलेजे भी पिघल पड़ते हैं। इस दयनीय दशा से नारी की स्थिति में कुछ सुधार करना होगा। उसे इतना अवसर जरूर दिलाना होगा, उसमें इतनी योग्यता और शक्ति अवश्य उत्पन्न करनी होगी कि वह किसी के लिए भार रूप न रहे, मुसीबत के वक्त अपने पैरों पर खड़ी हो सके और अपनी क्षमता के आधार पर घर के लिये एक अच्छी सहायक सिद्ध हो सके।

हमारे तीज त्यौहार, पर्व, व्रत, उपवास, तीर्थ, षोडश संस्कार, पंडित पुरोहित, साधू बाबाजी एक ढकोसला मात्र रह गये हैं। इनके पीछे जो आदर्श, सिद्धान्त, कार्यक्रम एवं संदेश छिपे हुए थे वे तो गायब हो गये केवल निर्जीव लाश की तरह इनका ढकोसला जीवित है। भारतीय संस्कृति के महान आदर्शों को जागृत रखने के लिए यह सभी कर्मकाँड, पर्व एवं धर्म सेवी नितान्त आवश्यक हैं। उनको उपयोगी एवं सामाजिक प्रगति में सहायक बनाकर ही प्राचीन काल की भाँति हम सामाजिक सुख शाँति की ओर बढ़ सकते हैं। इस क्षेत्र में समुचित सुधार की ओर बढ़ सकते हैं। हिन्दू धर्म में दान के नाम पर धन का भारी अपव्यय होता है। यदि वह सच्चे धर्म कार्यों में लगे तो यह देश सच्चे अर्थों में धर्मात्मा बन जाय, धर्म की स्थिरता एवं आय वृद्धि में भारी सहायता मिले। कुपात्रों के हाथों में दान जाने से अनेकों अनैतिकताएं, एवं बुराइयाँ पैदा होती हैं, इन्हें रोकने के लिए दान देते समय उसके सदुपयोग दुरुपयोग का, पात्र कुपात्र का, परिणाम का, विवेक जागृत करना होगा। तभी हिन्दू धर्म की उदार दान परम्परा का समुचित सत्परिणाम उत्पन्न हो सकेगा।

इसके अतिरिक्त खाद्य पदार्थों में मिलावट, नकली सस्ती अपूर्ण औषधियों का निर्माण, अभक्ष भोजन, नशेबाजी, व्यभिचार, सिनेमा, गंदी गालियाँ, अशिष्ट व्यवहार, आलस्य, फैशनपरस्ती, विलासिता, शेखी खोरी आदि अनेकों सामाजिक बुराइयाँ ऐसी हैं जिनको दूर करने के लिए पूरा प्रयत्न करना होगा। गौ रक्षा, जीव दया, जैसी कितनी ही समस्याओं को मानवीय दृष्टिकोण से हल करना है।

गरीब और अमीरों के बीच जो बहुत भारी असमानता है वह कम करनी होगी। बेकारी और गरीबी से, अशिक्षा और अविद्या से टक्कर लेनी होगी। राजनीति में जो ढील पोल चल रही है उससे अनैतिकता दिन-दिन बढ़ रही है। अनुशासन, नियन्त्रण और दण्ड का सूत्र निर्बल एवं ढुलमुल होने के कारण समाजद्रोही तत्वों को खुल कर खेलने का अवसर मिल रहा है, इन छेदों को बन्द करना होगा।

युग निर्माण की दिशा में अनेक काम करने को पड़े हैं। उनकी जिम्मेदारियों से इनकार करने से काम न चलेगा वरन् आवश्यक कर्तव्यों को पूरा करने के लिए हमें तत्पर होना पड़ेगा। भावनात्मक बौद्धिक एवं सामाजिक क्राँति का, समाज में स्वस्थ परिस्थितियाँ आया है उसे पूरा करने के लिए हमें सब प्रकार तत्पर होना होगा।

गायत्री परिवार धर्म संस्था है। राष्ट्र के बौद्धिक और सामाजिक जीवन को धर्ममय बनाने की जिम्मेदारी स्वभावतः उसकी है। महायज्ञ की पूर्णाहुति के बाद हम सब ठोस रचनात्मक कार्यक्रम के आधार पर इसी दिशा में अग्रसर होंगे। इस महा अभियान के लिए हमें अभी से तैयार रहना चाहिए।


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