आप भी इस ज्ञान यज्ञ में सम्मिलित हो जाइए।

September 1958

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की अग्नि जलाकर गायत्री-परिवार रूपी दूध को गरम किया जा रहा है। महायज्ञ में सम्मिलित होने वाले व्रतधारी याज्ञिकों को धर्म-प्रचारक, उपाध्याय, बनने की चुनौती देकर यह प्रयत्न किया गया है कि जिनकी अन्तरात्मा में धर्म सेवा, परमार्थ एवं श्रद्धा के बीजाँकुर मौजूद हैं वे केवल अपनी निजी पूजा तक ही सीमित न रहें वरन् धर्म प्रचार के लिए कुछ सक्रिय कार्य भी करने आरम्भ करें। इस चुनौती के कारण कुछ अकर्मण्य लोग तो बगलें झाँक रहे हैं, पर जिनकी अन्तरात्मा में निष्ठा का अंश मौजूद है वे इस दिशा में कुछ मजबूत कदम उठाने की तैयारी कर रहे हैं।

दूध में जो महत्वपूर्ण तत्व घी होता है वह गर्मी पाने पर मलाई के रूप में ऊपर तैर आता है। उसे हर कोई प्रत्यक्ष देख सकता है, उसका स्वाद ले सकता है। पर दूध में जो क्षार और खनिज भाग होता है वह अपने भारीपन के कारण दूध उबालते समय नीचे जाने लगता है, कढ़ाई के पेंदे में बैठ जाता है और काली कलूटी सूरत में जल भुन कर इस योग्य बन जाता है कि उसे पेंदे में से खुरच कर बाहर फेंक दिया जाय। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की अग्नि में जिन व्रतधारी याज्ञिकों की अन्तरात्मा में धर्म निष्ठा है वह मलाई की तरह ऊपर तैरती आ रही है। सत्य का, धर्म का, ज्ञान का, विवेक का, कर्त्तव्य का, मानवता का संदेश घर-घर तक पहुँचाने के लिए कुछ समय और शक्ति लगाने का आह्वान किया गया है तो इस ईश्वरीय वाणी को, युग पुकार को उन्होंने सहर्ष स्वीकार और शिरोधार्य किया है। यही गायत्री-परिवार की मलाई है। समुद्र मंथन में से 14 रत्न निकले थे। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान का अग्नि मंथन सहस्रों धर्म प्रचारकों के, उपाध्यायों के अमूल्य नर रत्न निकाल कर संसार के सामने प्रस्तुत करे तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है।

दूसरी ओर इस अग्नि मंथन से वे लोग पेंदे में बैठते जाते हैं, झुलसते और काले कलूटे पड़ते जाते हैं जो केवल इस उद्देश्य से गायत्री उपासना की ओर बढ़े थे कि दस-पाँच मिनट औंधा-सीधा जप महीना पन्द्रह दिन करके सारी ऋद्धि-सिद्धियों के सम्पत्ति समृद्धियों के स्वामी बन जायेंगे और अपना मतलब पूरा होते ही उपासना को धता बता देंगे।

इस प्रकार की मनोवृत्ति के लोगों को आत्म कल्याण की कोई चिन्ता नहीं होती, विश्वहित, लोक सेवा, परमार्थ, त्याग, तप आदि का भी कोई महत्व उनकी दृष्टि में नहीं होता, ऐसे लोग आड़े वक्त में काम नहीं आते, परीक्षा के अवसर पर वे तो पूँछ दबाकर भागते ही दीखते हैं। आग पर तपाये जाने पर जैसे नकली सोना काला पड़ जाता है उसी प्रकार ऐसे लोगों की भी छंटनी हो जाती है। इस महायज्ञ के आयोजन से तेजस्वी आत्माओं के सुसंस्कार निखर कर जगमगाने लग रहे हैं वहाँ स्वार्थ साधकों की छंटनी भी हो रही है। दूध पकाया जा रहा है। मलाई को ऊपर तैरते और खराबी को पेंदे में बैठते हर कोई देख सकता है।

पिछले दो लेखों में यह बताया गया है कि इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता ‘धर्म प्रचार’ है। यही सबसे बड़ा पुण्य और परमार्थ है। इसके लिए थोड़ा समय और शक्ति हर धर्म प्रेमी को देना आवश्यक है। ब्रह्मभोज का उद्देश्य ज्ञान प्रसार है, तीर्थ यात्रा का, धर्म फेरी का उद्देश्य ज्ञान प्रसार है। आज रूढ़ि पुज रही है और उद्देश्य को दुत्कार दिया गया है। अब आवश्यकता ऐसे लोगों की है जो रूढ़ि के कूड़े कचरे में से उद्देश्यों के रत्न ढूँढ़ निकालें और उन्हें समुचित सम्मान एवं महत्व प्रदान करे। ज्ञानप्रसार धर्मप्रचार वही रत्न है जिसकी महत्ता अब प्रत्येक धर्म प्रेमी को स्वीकार करना चाहिए और उसके लिए कुछ त्याग करने को तत्पर होना चाहिए।

युग निर्माण की, साँस्कृतिक पुनरुत्थान की महान् प्रक्रिया का प्रमुख आधार यही है कि लोगों के विचार बदल जायं। इस परिवर्तन के बिना मनुष्य के मन में घुसी हुई उन अनेकों दुष्प्रवृत्तियों का शमन न हो सकेगा जो संसार में फैली हुई अनेकों पापों क्लेशों, रोगों, दुखों एवं उलझनों की जननी है। बाह्य उपचारों से, मरहम लगाने से रक्त विकार के यह फोड़े दूर न होंगे इसके लिए तो अन्तः उपचार की, रक्त शोधक दवा पीने की जरूरत पड़ेगी। यह प्रक्रिया विचार परिवर्तन से, भाव परिवर्तन से, हृदय परिवर्तन से ही संभव है। धर्म प्रचार का उद्देश्य इसी परिवर्तन की प्रक्रिया को पूर्ण करना है।

महायज्ञ के याज्ञिकों को धर्मप्रचारक उपाध्याय बनने की प्रेरणा दी है और आशा की है कि महायज्ञ के पूर्ण होने तक इस प्रक्रिया का अभ्यास करें और पीछे इसे अपने जीवन की एक साधना, कार्य पद्धति, तपस्या ही बना लें। महायज्ञ के दिनों में यह कार्य सौंपा गया है कि पूर्णाहुति की सूचना देने के लिए कम से कम 240 व्यक्तियों के पास जाया जाय। उन्हें एक-एक परिपत्र पुस्तिका दें और गायत्री तथा यज्ञ की महत्ता बताते हुए महायज्ञ में भाग लेने के लिए जनता को आमंत्रण देने के लिए धर्मफेरी लगावें, लोगों के घरों पर जावें। यह कार्य हर किसी के लिए सुगम है। इससे धर्म प्रचार का अभ्यास बढ़ेगा। दूसरों के पास जाने में लोग अपनी हेठी, बेइज्जती तौहीन समझते हैं यह मिथ्याभिमान समाप्त होना चाहिए। धर्म कार्य में बाधक अहंकार सचमुच ही एक भारी त्रुटि है, इससे जितनी जल्दी छुटकारा पाया जा सके उतना ही उत्तम है। महायज्ञ के याज्ञिकों को सौंपा हुआ धर्मफेरी का कर्त्तव्य इस कमजोरी को छुटाने में बहुत सहायक होगा।

दूसरा कर्त्तव्य जो उपाध्यायों के लिए रखा गया है वह यह है कि अपने पास कुछ विचार पूर्ण साहित्य रखें और उसे लोगों को पढ़वाने के लिए वैसा ही प्रयत्न करें जैसे बीड़ी बेचने वाले अपने माल को लोक प्रिय बनाने के लिए भरपूर प्रयत्न एवं प्रचार करते हैं। यों सैंकड़ों तरह की धार्मिक पुस्तकें बाजार में मौजूद हैं, उनमें धर्म के नाम पर परस्पर विरोधी, विभिन्न दिशाओं में ले जाने वाली भ्राँतियाँ उत्पन्न करने वाली विचार धाराएं भी भरी रहती हैं। धर्म प्रचार से पूर्व हमें सौ बार कसौटी पर कस कर देखना होगा कि यह विचारधारा युग के अनुरूप तथा मानव समाज को स्वस्थ दिशा में विकास देने में सहायक भी है या नहीं। यदि कोई पुस्तक इस कसौटी पर खरी न उतरे तो वह चाहे किसी त्यागी तपस्वी ही ही लिखी क्यों न हो, युग निर्माण में सहायक न हो सकेगी। गौतम बुद्ध के त्याग का हर हिन्दू इतना भारी आदर करता है कि उन्हें अवतारी भगवान तक मानता है, पर उनके शून्यवादी, अनीश्वरवादी विचारों को कोई हिन्दू कदापि स्वीकार नहीं कर सकता।

गायत्री तपोभूमि द्वारा जनता को स्वस्थ विचार-धारा देने के लिए छोटी-2 किन्तु बड़ी सुन्दर और सस्ती पुस्तकों का जो प्रकाशन आरम्भ किया है, उसमें आर्थिक लाभ ही सर्वथा उपेक्षा करके मूल्य लागत मात्र रखा गया है। अभी हाल में 52 पुस्तकें छापी गई है। इनमें से 26 गायत्री और यज्ञ की महत्ता, वैज्ञानिकता, उपयोगिता एवं साधना बताने वाली हैं तथा शेष 26 में गायत्री के 24 अक्षरों एवं व्याहृतियों का एक-एक करके उद्देश्य एवं संदेश बताया गया है। यह 52 पुस्तकें मानव जीवन की प्रायः सभी समस्याओं पर स्वस्थ प्रकाश डालती हैं। इन 52 पुस्तकों को जो याज्ञिक अपने 10 मित्रों को आद्योपान्त पढ़ा देंगे उन्हें संस्था विधिवत् अपना धर्मप्रचारक स्वीकार करेंगी और महायज्ञ के अवसर पर ‘उपाध्याय’ पद से विशेष सम्मान के साथ विभूषित करेंगी।

आध्यात्मिक जीवन की गायत्री माता, यज्ञ पिता और धर्म गुरु के पोषण करने की भी प्रत्येक धर्मप्रेमी पर वैसी ही जिम्मेदारी है जैसी शरीर से संबंधित माता, पिता, और गुरु के शरीर को सुखी संतुष्ट बनाने के लिये कुछ त्याग करना जरूरी होता है। हर उपाध्याय को दो-चार पैसा रोज इन आध्यात्मिक त्रिदेवों की उपासना के लिए बचाने चाहिएं। यदि दो पैसे रोज भी बचाये जाएं तो एक वर्ष में बारह रुपया होते हैं। इससे प्रति सप्ताह चार आने मूल्य की एक पुस्तक खरीदी जा सकती है। यह ज्ञान प्रसार का ‘ब्रह्म-विद्यालय’ हर धर्मप्रेमी आसानी से चला सकता है। दो पैसा रोज सच्चे ब्रह्मदान के लिए खर्च करते रहना किसी गरीब आदमी के लिए भी मुश्किल बात नहीं है। तीन पैसे या चार पैसे रोज इस कार्य के लिए खर्च करना संभव हो तो शेष पैसों का साहित्य बिना मूल्य वितरण किया जा सकता है। एक घण्टा रोज समय धर्मप्रचार के लिए लगाया जाय तो चार छः आदमियों से रोज मिलना हो सकता है। इस प्रकार एक वर्ष में कई सौ व्यक्तियों से धर्म उद्देश्य के लिए मिलना हो सकता है।

हमारी आकाँक्षा है कि याज्ञिकों में से अधिकाधिक ‘उपाध्याय’ निकले। वे नित्य दो-चार पैसे इस ब्रह्मदान के लिए निकाले और अपने अवकाश का थोड़ा बहुत समय धर्मफेरी के लिए दिया करें। महायज्ञ के होता यजमानों की शर्त को पूरा करने के लिए अनेकों याज्ञिक वितरण साहित्य मंगा चुके हैं। कुछ ने ज्ञान-मन्दिर सैट भी मंगाने आरम्भ किए हैं। यह प्रक्रिया मन्द गति से नहीं तेजी से चलनी चाहिए। उपाध्यायों की संख्या संतोषजनक गणना तक पहुँचनी चाहिए। यों यह कार्य छोटा सा दिखता है, सरल भी है पर इसके परिणाम बहुत ही दूरगामी एवं महत्वपूर्ण होंगे। हम में से प्रत्येक को उपाध्याय का महान सम्मान प्राप्त करने के लिए अग्रसर होना चाहिए। यज्ञ कार्य पूर्ण होने पर भी उन्हें सद्ज्ञान प्रचार का व्रत लेकर इस प्रक्रिया को जीवन भर चलाते रहने का व्रत धारण करना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118