यज्ञों पर असुरता के दो आक्रमण

September 1958

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समुद्र के गर्भ में छिपे हुए रत्नों को निकालने के लिए जब उसका मंथन किया गया तो सबसे पहले हलाहल विष निकला। वह विष इस बात की परीक्षा लेने बाहर निकला था कि मंथन करने वाले लोग समुद्र में छिपे हुए महत्वपूर्ण रत्नों को प्राप्त करने के अधिकारी हैं या नहीं? यदि ये लोग अधीर अविवेकी, अस्थिर और कायर हैं तो विष की भयंकरता देखकर डर जायेंगे और प्रयत्न छोड़कर उन लाभों से वंचित हो जायेंगे जो सत्पात्रों को ही उपलब्ध होते हैं। विष निकला, सब को बड़ी परेशानी हुई। पर वे विचलित न हुए। रास्ता खोजा गया। खोजने वाले को मार्ग मिल जाता है, जो निष्ठावान है उसकी सहायता के लिए सहायक भी आ जाते हैं। हलाहल विष की तीव्रता से घबराये हुए और भयंकरता से डरे हुए मंथनकर्ताओं ने जब अपना मार्ग न बदलने का फैसला किया तो भगवान प्रसन्न हो गये। शंकर जी आये। हलाहल को कंठ में धारण कर लिया। समुद्र मथने वालों का मार्ग प्रशस्त हो गया और उन्होंने वे 14 अमूल्य रत्न प्राप्त किये, जिनकी महत्ता साधारण नहीं, असाधारण ही कही जा सकती है।

अधिकारी अनधिकारी की परीक्षा आपत्तियों और कठिनाइयों से ही होती है। हीरा असली है या नकली इसकी परीक्षा करने के लिए लोहे के भारी हथौड़े की चोट उस पर लगाई जाती है। यदि चोट सह गया तो असली हीरा माना जाएगा, यदि फूट गया तो उसे कच्चा नकली कह कर कूड़े में फेंक दिया जाता है। हर अच्छे काम में विरोध की, बाधाओं की, कठिनाइयों की स्थिति आती है, यदि इस शुभ संकल्प का संयोजक उनका सामना न कर सका, डर गया अधीर हो गया छोड़ बैठा, तो अपनी अपात्रता के कारण उसे उन महत्त्वों से वंचित होना पड़ता है जो महत्वपूर्ण कार्यों में सदा से आते रहे हैं।

यज्ञानुष्ठान संसार का सबसे बड़ा पुण्य कार्य है उसका महत्व एवं लाभ भी इतना बड़ा है जितना और किसी मार्ग से प्राप्त होना संभव नहीं। विश्वामित्र ऋषि, राजा बलि आदि ने जब यज्ञानुष्ठानों में प्रगति की तो उनसे देवता तक ईर्ष्या करने लगे। बड़े आदमियों का यह सदा से स्वभाव रहा है कि जब उनसे छोटे व्यक्ति उनकी बराबरी में आते हैं-आगे बढ़ना चाहते हैं तो उनका चित्त ईर्ष्या की अग्नि से जलने लगता है। उसे गिराने, नीचा दिखाने, असफल बनाने से ही उनकी ईर्ष्याग्नि शान्त होती है। इसलिए उनसे जो कुछ बन पड़ता है इसे गिराने के लिए करते हैं। इस जमाने में भी इन घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहती है। यज्ञ संयोजकों के अनेकों विरोधी अकारण ही उठ खड़े होते हैं।

असुरता को नष्ट करने के लिए यज्ञों से बढ़ कर और कोई रामबाण अस्त्र नहीं है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि राजा तथा धर्म प्रेमी लोग समय-समय पर बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन करते रहते थे, ताकि असुरता की शक्ति नष्ट होती रहे। असुरता भी अपनी आत्मा रक्षा के लिए हर संभव उपाय को काम में लाती थी, आत्म रक्षा के लिए वह अपनी जान की बाजी भी लगा देती थी। एक समय विश्वामित्र जी ने उस युग का अत्यन्त विशाल यज्ञ किया था उसकी सफलता से असुर-कुल का नाश होकर धर्म संस्थापना की पूरी संभावना थी। इससे बचने के लिए असुरों ने विश्वामित्र ऋषि का यज्ञ विध्वंस करने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया। ताड़का, मारीच और सुबाहु ने इतने उपद्रव किये कि ऋषि को दशरथ राजा के द्वार पर रक्षा की पुकार करनी पड़ी और राम लक्ष्मण को यज्ञ रक्षा के लिए लाना पड़ा।

यों विश्वामित्र जी भी अपने ब्रह्मतेज से उन असुरों को परास्त कर सकते थे, पर चूँकि तपस्या के समय क्रोध करने या बदला लेने से अपना तप क्षीण होता है इसलिए विश्वामित्र जी स्वयं उन आक्रमणों का प्रतिकार नहीं कर रहे थे। असुरों के लिए यह अलभ्य अवसर था कि वे आक्रमण करें तो उन्हें रोकने वाला कोई न हो, इसी सुविधा का लाभ उठा कर असुरों ने अनेक बार अनेक तपस्वियों की हत्याएं कीं। भगवान राम जब वन में गये तो उन्होंने असुरों द्वारा मारे हुए ऋषियों की हड्डियों का पहाड़ देखा और ‘निशचर हीन मही’ करने की भुजा उठा कर प्रतिज्ञा की थी। वे तपस्वी ऋषि जिनकी अस्थियों का ढेर रामचन्द्रजी ने देखा था, यदि वे चाहते तो अपने तप बल से उन असुरों को नष्ट कर सकते थे, पर उससे उनका तप क्षीण होता, इसलिए तपोबल और शरीर इनमें से किसे खोया जाय, यह समस्या उपस्थित होने पर उन्होंने शरीर नष्ट होने की हानि को ही कम महत्वपूर्ण समझा।

उन्हीं सब तथ्यों की पुनरावृत्ति आज ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान जैसे अभूतपूर्व धर्म आयोजन के समय हो रही है तो इसमें कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है। चिन्ता की बात केवल इतनी ही है कि प्राचीन काल के ऋषि, याज्ञिक और उनके शुभ चिन्तक इन आसुरी आक्रमणों से परिचित थे और उनकी रोक थाम के लिए पहले से ही सोचते थे तथा समय आने पर प्रतिरोध की व्यवस्था कर लेते थे, पर हम लोग सर्वथा बेखबर हैं। सुरक्षा और संरक्षण की ओर ध्यान नहीं देते। इतना ही नहीं, भूल यहाँ तक करते हैं कि आसुरी आक्रमणों को पहचान तक नहीं पाते और उनके द्वारा उपस्थित संकट का वास्तविक कारण समझने की अपेक्षा आपस में ही एक दूसरे को दोष देने लगते हैं। असली कारण पर दृष्टि न डालकर अपने में से ही किसी का दोष ढूँढ़ने लगते हैं। इस भूल और बेखबरी से ही हमें सावधान होने की जरूरत है।

समयानुसार हथियारों में भी हेर फेर होता रहता है। प्राचीन काल में तीर तलवार की लड़ाई थी, पीछे बन्दूकों ने उनका स्थान ले लिया। इसके बाद टैंक और जहाजों की प्रधानता रही। अब वे भी निरर्थक हो गये और हाइड्रोजन बम, परमाणु बमों का बोल-बाला है। आगे इससे भी भिन्न प्रकार के कोई अस्त्र निकल सकते हैं। असुरों के अस्त्र भी समयानुसार बदलते हैं। प्राचीन काल में वे तीर तलवार या अन्य प्रकार की आसुरी माया के द्वारा याज्ञिकों के प्रयत्न असफल बनाते थे, इस युग में वह हथियार पुराने पड़ गये। अब इनकी नीति यह है कि अपने को प्रत्यक्ष में प्रकट न किया जाय वरन् भूतप्रेत जिस प्रकार किसी के शरीर में प्रवेश करके उससे अपनी आवश्यकता पूरी करते हैं उसी प्रकार जिस किसी के मन में थोड़ी अनुकूलता मिले उसी मन में प्रवेश करके उसके द्वारा वह कार्य कराएं जाएं जिससे इस महान धर्मानुष्ठान की सफलता में भारी विघ्न उपस्थित हो जाय। राम वनवास के समय बेचारी कैकेयी की बुद्धि पर कुछ अदृश्य शक्तियों ने ऐसे ही कब्जा कर लिया था और उस सीधी-साधी रानी की मति फेर कर वह करवा लिया, जिस से उनका मनोरथ पूरा हो गया। बेचारी कैकेयी किन्हीं के द्वारा हथियार मात्र की तरह प्रयोग की गई वह निर्दोष थी, पर कलंक का ठीकरा उसी के सिर फूटा वह जीवन भर पश्चाताप की अग्नि में जलती रही और इतिहास में एक बुरा उदाहरण छोड़ने के कारण निन्दा के पात्रों में गिनी गई।

उस जमाने में कमजोर प्रकृति की एक कैकेयी ही मुश्किल से मिली थी, पर आज मानसिक दुर्बलता के युग में ऐसे शिकार ढेरों ढूँढ़ लेना असुरों के लिए तनिक भी कठिन नहीं है। जो शिकार उनके हाथ लग जाता है उसके मस्तिष्क में वे चुपके से प्रवेश कर जाते हैं और उसकी मानसिक मशीनरी में ईर्ष्या, पाखण्ड, दम्भ, द्वेष, भ्रम तथा न जाने क्या-क्या पैदा करके इसके लिए तैयार करते हैं कि यज्ञ का विरोध करे, और उसे असफल बनाने के लिए जो भी बन पड़े उसे प्रकट या गुप्त रूप से उत्साहपूर्वक करे।

यों यज्ञ सर्वमान्य तथा सर्वश्रेष्ठ शुभ कार्य है, उसकी महत्ता से कोई इन्कार नहीं कर सकता। इसलिए प्रत्यक्ष रूप से खुला विरोध करना तो कठिन है, पर दूसरे रास्ते से वे वह कार्य करते हैं जिससे यज्ञीय कार्यक्रम नष्ट हो जाय। इसके लिए दो हथियार काम में लाये जाते हैं, एक भ्रम फैलाना दूसरा उदासीनता उत्पन्न करना। यह दोनों ही हथियार ऐसे हैं जो तीर तलवार की तरह दीखते तो नहीं पर काम उनसे भी बढ़ कर करते हैं।

इस युग में धर्म कार्यों के लिए लोगों में स्वाभाविक रूप से अनास्था है, धर्म कार्यों की ओर किसी का उत्साह ही नहीं जगता। पूर्व जन्मों के संस्कार बीज विद्यमान हों तथा इस जन्म में विशेष रगड़ लगे तब थोड़ी धर्म प्रवृत्ति पैदा होती है। वह भी बड़े संकोच और झिझक के साथ आगे बढ़ती है। कारण यह कि इस मार्ग के साथी कम और मखौल करने वाले बहुत मिलते हैं। बेचारा साधक उनसे सहम जाता है और अपना मार्ग छोड़ बैठता है। दूसरे इस जमाने में धर्म आयोजन करने वाले, अधिकाँश लोग स्वार्थी या धूर्त होते हैं जो भोली जनता को अपना उल्लू सीधा करने का जरिया बनाते हैं। इनके कुकर्मों की कलई रोज ही खुलती रहती है। उन घटनाओं का स्मरण करके सच्चे लोगों पर भी श्रद्धा मुश्किल से ही जमती है। इन कठिनाइयों के बीच यदि कोई भ्रम फैलाने वाला विरोधी खड़ा हो जाय तो उस दुर्बल श्रद्धा पर आसानी से तुषारपात कर सकता है।

वस्तुतः तपोभूमि द्वारा आयोजित यज्ञ आन्दोलन पूर्ण शुद्ध, सात्विक एवं धर्म अनुमोदित है। पर उसमें भी मीन-मेख निकालना, इसमें भाग लेने वाले लोगों को डराना बेसिर पैर के बुरे मन गढ़ंत लाँछन रचना जैसे कार्य कुछ लोगों द्वारा किये जाते हैं। इस भ्रम फैलाने की प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि अनेक धर्म प्रेमियों की उठती हुई भावना तथा खिलती हुई श्रद्धा की कली मुरझा जाती है। वे डर जाते हैं और उस लाभ से वंचित हो जाते हैं जो इसमें सम्मिलित होने से उन्हें प्राप्त होता। दूसरी ओर कई सहयोग के इच्छुक व्यक्ति जब असहयोग करने लगते हैं तो आयोजन की सफलता में भी बाधा पड़ती ही है। असुरता मन ही मन खूब प्रसन्न होती है कि लोग वास्तविकता को समझ भी न पाये, हमारी चाल पूरी हो गई। बिना तीर तलवार चलाये, यज्ञों को असफल बनाने के लिए असुरों के पास यह भ्रम फैलाने का बड़ा ही उत्तम हथियार है। किसी दुर्बल मनोवृत्ति के व्यक्ति को असुरता अपना वाहन बनाकर उससे यह कुकृत्य आसानी से करा लेती है।

दूसरा हथियार असुरता का यह है कि जिन लोगों में धर्म भावना मौजूद है, जो इन कार्यों में आगे बढ़कर भाग लेना चाहते हैं उनमें आलस्य, अनुत्साह, उदासीनता, लापरवाही, अवसाद, उपेक्षा ढील ढाल जैसी प्रवृत्तियाँ पैदा कर देती है, जिससे वे जो कुछ आसानी से कर सकते थे—वह भी नहीं करते। कोई छोटी-छोटी शारीरिक या पारिवारिक अड़चन ऐसी आ जाती है जो छोटी होते हुए भी उन्हें बहुत बड़ी लगती है और उसी के सहारे फुरसत न मिलने आदि का बहाना बनाकर वे उत्साहपूर्वक सहयोग करने से पीछे हट जाते हैं। विरोधी बढ़ें और सहयोगी पीछे हटें तो पराजय एवं असफलता ही हाथ लग सकती है। असुरता का उद्देश्य इस प्रकार भी सहज ही पूरा हो जाता है।

धर्म वृद्धि के आयोजनों से असुरता नष्ट होती है। नष्ट होने वाला अपनी आत्म रक्षा के लिए आक्रमण करे तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। आश्चर्य तो इस बात का है कि बात को जानते हुए भी हम बेखबर रहें। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान में भाग लेने वाले और अपने यहाँ गायत्री यज्ञों का आयोजन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इस ओर से सजग रहना चाहिए। जो लोग इन कार्यक्रमों में भाग लें उन्हें यह भली प्रकार जान लेना चाहिए कि किसी न किसी उपद्रवी के शिर पर चढ़कर असुरता भ्रम फैलाने वाली, अश्रद्धा उत्पन्न करने वाली बातें जरूर कहेगी। उनका प्रतिरोध करने के लिए पहले से ही सजग रहा जाय, आक्रमण होने से पूर्व ही उसकी सम्भावना के लिए तैयार रहा जाय तो आक्रमणकारी असुरता की दाल नहीं गलने पाती।

यज्ञ आयोजनों को असफल बनाने वाले असुरता के इन दो आक्रमणों से हमें सावधान रहना चाहिए। निन्दक, फूट फैलाने वाले, मन गढ़ंत झूठी बातें करके अश्रद्धा फैलाने वाले लोगों के मस्तिष्क पर किन शक्तियों ने कब्जा कर रखा यह समझते हुए उनसे सतर्क रहना ही उचित है। जो लोग झूठ, चोरी, बेईमानी, व्यभिचार, जुआ, शराब आदि किसी भी बुराई के खिलाफ कभी जबान नहीं खोलते, उन्हें यज्ञों में ही आधुनिकता सूझ पड़े तो इसे उनकी बुद्धि की विकृति ही समझना चाहिए।

गायत्री-परिवार की शाखाएं या कोई उत्साही गायत्री उपासक जब कभी सामूहिक यज्ञ या गायत्री प्रचार का कोई छोटा मोटा आयोजन करते हैं तो भी उनके अनेकों विरोधी, अनेकों उंगली उठाने वाले, अनेकों रोड़ा अटकाने वाले पैदा हो जाते हैं। इस का अनुभव उनके छोटे प्रयत्नों को भी सफल नहीं होने देना चाहता, फिर यह इतना बड़ा इस युग का महानतम यज्ञ बिना किसी विरोध बिना किसी उपद्रव, बिना किसी आसुरी आक्रमण के सम्पन्न हो जाय यह कभी सम्भव नहीं। यदि कोई विरोध आक्रमण या उपद्रव न हो तो समझना चाहिए कि यह आयोजन उतना शक्तिशाली नहीं था, जिससे डरने या असफल बनाने की आवश्यकता असुरों को पड़ती।

दिसम्बर 57 की अखण्ड-ज्योति में पृष्ठ 35 पर हिमालय निवासी त्रिकालदर्शी परम सिद्ध महात्मा विशुद्धानन्द जी महाराज की एक विशेष सन्देश द्वारा भेजी हुई एक महत्वपूर्ण चेतावनी छपी है, जिसमें उन्होंने गायत्री-परिवार को इस वर्ष अधिक सावधान रहने के लिए कहा है और संकेत किया है कि असुरता अपने नये हथियारों से आक्रमण करेगी। भ्रम, अश्रद्धा, लाँछन, लोकापवाद फैलाना तथा कोई दुर्घटना भी उत्पन्न कर सकता है। आचार्य जी के शरीर को, उनके उज्ज्वल चरित्र को, महायज्ञ के परम पवित्र कार्यक्रम को कलंकित करने के लिए कोई भी षड़यन्त्र रच सकती है। उनकी चेतावनी में बहुत ही गम्भीर सचाई छिपी हुई है। असुरता इस प्रकार के अपने षड़यन्त्रों को सफल बनाने में पूरी तत्परता के साथ लगी हुई है। उसका पूतना और ताड़का जैसा विकराल रूप देखने के लिए हम में से हर एक को तैयार रहना चाहिए।

समुद्र मंथन के समय सबसे पहले विष निकला था, बाद में वारुणी फिर धीरे-धीरे क्रमशः उसमें रत्न निकलते गये। अमृत सबसे पीछे निकला था। गायत्री महायज्ञ के धर्मानुष्ठान में भी पहले विष ही निकल रहा है। ईर्ष्यालु लोग विरोध और विलगता करते हैं, आगे और भी अधिक करेंगे। यह इस बात की परीक्षा के लिए है कि आयोजन के कार्यकर्ताओं में किस की निष्ठा, सच्ची, किस की झूठी है। जो दृढ़ निश्चयी हैं वे ही अन्त तक ठहरें तो उन्हें लाभ मिलेगा। उथले स्वभाव के, बाल बुद्धि वाले सहयोगी यदि हट जावें तो कुछ हर्ज भी नहीं है। इस छाँट का काम निन्दकों द्वारा बड़ी सरलता से पूरा हो जाता है। दुर्बल मनोभूमि वाले लोग तनिक सी सन्देहास्पद बात सुनकर भाग खड़े होते हैं। भीड़ को हटाने की दृष्टि से यह पलायन उचित भी है। एक बार गौतम ऋषि के अनुष्ठान में बहुत शिष्य बढ़ गये। वे पात्र कुपात्र की छाँट करके भीड़ को घटाना चाहते थे। उनने कोढ़ी का रूप बना लिया। दुर्बल श्रद्धा वाले शिष्य कोढ़ को देखते ही घृणा करने लगे और एक-एक करके आश्रम छोड़ने लगे। जो दृढ़ श्रद्धा के शिष्य थे, रह गये। कोढ़ के होते हुए भी गौतम जी से घृणा न करके उनकी अधिक सेवा भावना से परिचर्या करने लगे। ऐसे गिने-चुने ही शिष्य अन्त में बचे, उनकी पात्रता से प्रसन्न होकर गौतम ऋषि ने उन्हें अपनी गुप्त से गुप्त विद्याएं पढ़ा दीं। गायत्री आन्दोलन के प्रभाव से अब साधकों की भीड़ भी बहुत बड़ी हो गई है। इनमें उच्च श्रेणी के सच्चे साधकों की परीक्षा के लिए यह उचित भी है कि झूठे सच्चे लोकापवाद फैलें। विवेकवान लोग इन निन्दाओं का वास्तविक कारण ढूँढ़ेंगे तो सचाई मालूम पड़ जायगी और उनकी श्रद्धा पहले से भी दूनी चौगुनी बढ़ जायगी। पर जो लोग दुर्बल आत्मा के हैं वे तलाश करने के झगड़े में न पड़कर सुनने मात्र से ही भाग खड़े होंगे। इस प्रकार दुर्बल आत्माओं की भीड़ सहज ही छट जायगी। असुरता के आक्रमणों से जहाँ यज्ञों में बड़ी अड़चन पड़ती है वहाँ (1) संयोजकों में दृढ़ता पुरुषार्थ तथा मुकाबला करने की शक्ति की अभिवृद्धि (2) सच्चे धर्मप्रेमियों की सचाई जान लेने पर श्रद्धा का और अधिक विकास (3) दुर्बल आत्माओं की अनावश्यक भीड़ की छँटनी, यह तीन लाभ भी हैं।

जो हो यज्ञीय आयोजनों की सुरक्षा के लिए हमें ध्यान रखना है। हमारी बेखबरी से लाभ उठा कर असुरता कोई ऐसा आघात न पहुँचा दे जिससे पीछे पश्चाताप करना पड़े, इससे सावधान रहना है। असुरता के छद्मवेशी इन आक्रमणों के प्रति हम सब को सजग रहने की बड़ी आवश्यकता है।


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