आध्यात्मिक-जीवन का मर्म

March 1958

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(प्रो. अवधूत, गोरेगाँव)

आध्यात्मिक जीवन और भौतिक जीवन में लोगों को बड़ा विरोध जान पड़ता है। हमारे देश के धार्मिक कहे जाने वाले व्यक्ति तो भौतिक संसार को माया के नाम से पुकारते हैं और उसे आत्मा के पतन का कारण मानते हैं। इसी कारण उनमें से जो अपने मत के वास्तविक सच्चे होते हैं वे संसार को त्यागकर एकाकी जीवन व्यतीत करने लगते हैं।

पर यह दृष्टिकोण उचित नहीं है और न ऐसे एकाँगी जीवन को आध्यात्मिक जीवन कहा जा सकता है। ऐसा जबर्दस्ती का त्याग आत्मा को उन्नत नहीं बनाता और परीक्षा के समय प्रायः असफल सिद्ध होता है। वास्तविक आध्यात्मिक जीवन उसी को कहते हैं जिसमें कर्मयोग की शिक्षा के अनुसार भौतिक तथा आध्यात्मिक पहलुओं में यथोचित सामंजस्य स्थापित कर लिया जाता है। ऐसे जीवन में आत्मिक चेतना भौतिक पदार्थों से अवरुद्ध नहीं हो जाती किन्तु साथ ही जीवन के दैनिक कर्मों से दूर रहने की भी आवश्यकता नहीं होती।

इससे यह अर्थ भी समझना उचित न होगा कि हमारे जीवन में आध्यात्मिक और भौतिक पहलुओं का समान महत्व रहे। जीवन के मुख्य लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भौतिक पदार्थों की अपेक्षा आत्मा को श्रेष्ठ मानना और प्रधान महत्व देना अनिवार्य है। आशय यह है कि भौतिक वस्तुओं को साध्य न मानकर साधन मात्र मानना चाहिए। भौतिक वस्तुओं का उपयोग आत्म व्यंजन के लिए होना चाहिए। जिस प्रकार एक बाजा तभी तक उपयोगी है जब तक गाने वाले के संगीत में सहायक होता है, यदि वह किसी प्रकार खराब होकर संगीत में योग न दे सके तो एक बेकार या भार स्वरूप ही हो जाता है। इसी प्रकार जब तक भौतिक पदार्थ आत्मिक जीवन प्रवाह को प्रकट करने में सहायक होते हैं तब तक वे उपयोगी हैं, पर जब ये उस जीवन प्रवाह को अवरुद्ध करने लग जाते हैं तब वे एक बाधक बन जाते हैं।

साँसारिक वासनाओं अथवा लिप्साओं में फंसा हुआ मनुष्य भौतिक जगत को ही सर्वप्रधान मानने लगता है। शराबी के लिए शराब ही सार वस्तु है। लोभी मनुष्य के लिए सोने, चाँदी से बढ़कर और कोई चीज नहीं। विषयी मनुष्य के लिए इन्द्रिय सुख ही जीवन का चरम लक्ष्य है। ऐसी परिस्थितियों में भौतिक वस्तु आत्मा पर अधिकार जमाकर अनधिकार चेष्टा करती है। यह अवस्था मनुष्य के लिए पतनकारी है और परिणाम-स्वरूप उसे कष्ट भोगना पड़ता है। पर इस कारण भौतिक जगत का त्याग करना अभीष्ट नहीं है केवल इतना ही आवश्यक नहीं है कि भौतिक जीवन आत्मा के अधिकार को अंगीकृत करे और उन्हें प्रकट करें।

जब आत्मा और वस्तु जगत के बीच सच्ची व्यवस्था की स्थापना हो जाती है जब जीवन के सभी विभागों का उपयोग आत्मा की दिव्यता की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है। प्रतिदिन के जीवन तथा उसकी उलझनों से मुँह मोड़ने और भागने की आवश्यकता नहीं रह जाती। उस समय भौतिक पदार्थ आत्मा के आज्ञानुवर्ती हो जाते हैं और आत्मा से उनका जैसा सम्बन्ध होता है वैसा ही उनका मूल्य आँका जाता है। वे स्वयं न तो भले होते है न बुरे। जब वे आत्मा की अभिव्यक्ति में सहायक होते हैं तो वे भले हैं और जब बाधक होते हैं तो बुरे हैं। योद्धा को संग्राम में लड़ने के लिए घोड़े की आवश्यकता होती है। किन्तु यदि घोड़ा उसके इशारे पर न चले और चाहे जहाँ अड़ जाय तो वह उसके लिए एक रोड़ा सिद्ध होगा। इसी प्रकार यदि वस्तु जगत का आत्मा के वाहन के रूप में उपयोग किया जाय तो उससे आत्मा की शक्तियाँ प्रकट होती हैं और यदि वह आत्मा की अधीनता में रहना स्वीकार न करे तो वह विघ्न स्वरूप बन जाता है। जब मानव शरीर आध्यात्मिक उद्देश्य की सिद्धि में सहायक होता है तब उसे पृथ्वी पर स्थित ईश्वर मन्दिर कहना अनुचित न होगा।

जिस प्रकार आत्मा की अभिव्यक्ति के लिए भौतिक शरीर तथा अन्य वस्तुओं का उपयोग हो सकता है उसी प्रकार संसार की कलापूर्ण वस्तुएं वैज्ञानिक आविष्कार और राजनैतिक सफलताएं भी आध्यात्मिक जीवन में सहायक हो सकती हैं। यह सच है कि वर्तमान समय में कला का प्रयोग अधिकाँश में भोग विलास के लिए जा किया रहा है, वैज्ञानिक आविष्कार मनुष्यों को निर्बल बनाने और नाशकारी युद्धों की वृद्धि करने के काम लाये जा रहे हैं और राजनैतिक सफलताओं का उपयोग अन्तर्राष्ट्रीय अशाँति उत्पन्न करने तथा अपने से भिन्न मनुष्य समुदायों को पराधीन बनाने के निमित्त किया जा सकता है। पर ये सब बातें मनुष्यों की भूल, गलत कार्य प्रणाली के परिणाम हैं। अगर हम सब अपना दृष्टिकोण बदल दें तो ये ही सब बातें पवित्रता आनन्द और ज्ञान के उद्गम स्थल बनाये जा सकते हैं।

आध्यात्मिक ज्ञान आत्मा के जीवन को पूर्णता देने वाला है। आध्यात्मिक ज्ञान तथा साँसारिक बुद्धिमता में पर्याप्त भिन्नता है। साँसारिक बुद्धिमता ही रूढ़ियों का सार है। संसार की आचार विधियों को आँख मूँद कर स्वीकार करने में आध्यात्मिकता की शोभा नहीं है, क्योंकि अधिकाँश अवस्थाओं में साँसारिक आचार विधियाँ संसार में आसक्त मनुष्यों के कार्यों का परिणाम हुआ करती हैं। अतः रूढ़ियों के अंधानुकरण से विवेकयुक्त कार्य नहीं हो सकते और न ही उनका प्रयोग आध्यात्मिकता को बढ़ा सकता है। वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप और मूल्य का ठीक ज्ञान तथा उपयोगिता ही आध्यात्मिक जीवन है।


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