आधुनिक अर्थशास्त्र अनर्थ का मूल है।

March 1958

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(एक तत्ववेत्ता)

आधुनिक समय में योरोप वालों ने जो सम्पत्ति शास्त्र रचा है और जिसका अनुसरण भारत में भी किया जा रहा है उसका साराँश यही है कि मनुष्य को खूब सम्पत्तिशाली होना चाहिए। खूब सम्पत्तिशाली होने का अर्थ है कि मनुष्य के घर में नागरिक जीवन बनाने वाला अर्थात् शृंगार और विलास का सामान व अधिक सामग्री ही सभ्यता का चिन्ह है, इसलिए इन सभ्यता बढ़ाने वाले पदार्थों का खूब संग्रह करने के लिए अधिक से अधिक धन इकट्ठा करना चाहिए। धन पाने का स्रोत व्यापार है, इसलिए व्यापार सम्बन्धी ऐसे पदार्थ तैयार करना चाहिए, जो अन्य देशों के बने सामानों से सस्ते और अच्छे हों। इनकी तैयारी के लिए कम्पनियों द्वारा बड़ी धनराशि इकट्ठी करके बहुत सा कच्चा माल खरीदना चाहिए और यन्त्रों द्वारा पक्का माल बनाना चाहिए। इस माल को अपने राज्य के दबदबे की सहायता से दूसरे देशों में जाकर बेचना चाहिए। वहाँ से कच्चा माल लाकर फिर अपने यहाँ उसका सस्ता पक्का माल बनाना चाहिए। यही वर्तमान व्यापार की सच्ची परिभाषा कही जाती है और यही सम्पत्ति शास्त्र का मूल आधार समझा जाता है।

व्यापार में राज्य की सहायता लेने के कारण प्रायः अन्य देश वालों से प्रतिद्वन्द्विता और युद्ध की संभावना उत्पन्न होती रहती है। तब इस बात का प्रयत्न किया जाता है कि जातीयता का भाव पैदा किया जाय और उन्हें दूसरे देश वालों से लड़ने को तैयार किया जाय। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए अधिक से अधिक नाशकारी और दूर की मार करने वाले शस्त्रों का निर्माण किया जाता है। चूँकि देखने सुनने में लड़ाई की तैयारी कुछ असभ्यता की बात जान पड़ती है, इसलिये विज्ञान का सहारा लेकर यह बहाना किया जाता है कि ‘भाई! संसार में भोग करने वालों की संख्या अधिक है और भोग्य सामग्री कम है, साथ ही दुनिया की जनसंख्या बेहिसाब बढ़ रही है, इसलिये एक समय आ जायगा जब कि पृथ्वी पर पैर रखने को भी जगह न मिलेगी। इसलिए अपने देश की भलाई के लिए बहुत सी पृथ्वी पर कब्जा करके उसे अधिक से अधिक धन, सोना, चाँदी, हीरा, मोती और सब प्रकार की भोग्य सामग्री से भर लेना चाहिए और उसकी रक्षा के लिए अपनी सामरिक शक्ति को भी खूब-बढ़ाकर रखना चाहिए। इस प्रकार ये सम्पत्ति शास्त्र वाले जनता की लालसा और वासना को बढ़ाकर महायुद्धों का बीज बोते हैं, जिसका परिणाम समय आने पर अनिवार्य रूप से भीषण नाशलीला के रूप में प्रकट होता है।

सम्पत्ति शास्त्र वाले यह भी बतलाते हैं कि बहुत से लोगों से थोड़ा-थोड़ा सा धन इकट्ठा करके और सबको हानि-लाभ में साझीदार बनाकर व्यापार करने से अमित लाभ हो सकता है क्योंकि इस ढंग से एक तो बहुत बड़ी धनराशि (पूँजी) इकट्ठी हो जाती है जिसके द्वारा विशाल रूप में व्यापार किया जा सकता है। साथ ही दूसरे व्यापारियों का मुकाबला करने में अगर शुरू में कुछ घाटा भी उठाना पड़े तो वह बहुत से साझीदारों पर बंट जाता है, जिससे कम्पनी को धक्का नहीं लगता। थोड़े समय बाद अन्य व्यापारियों का काम बन्द हो जाता है और उन सब का लाभ कम्पनी को ही होने लगता है। इस प्रकार की कुटिल नीति से प्रेरित होकर कम्पनी का संगठन होता है तथा राज्य को बल और जातीयता का उत्तेजना देकर उसके कार्य को सफल बनाया जाता है। ऐसी कम्पनियाँ भोग विलास और शृंगार की वस्तुएं बनाकर दूसरे देश वालों के धन को अपने यहाँ खींच लाना ही अपना लक्ष्य रखती हैं।

आजकल धन का अर्थ सोना-चाँदी माना जाता है पर यह सोना-चाँदी स्वयं किसी काम में आता है-मानव जीवन में कभी-कभी औषधि के अतिरिक्त वह कोई-कोई काम भी देता है यह आज तक किसी ने नहीं बतलाया। प्रथम तो संसार में जितनी कीमत के पदार्थ हैं, उतनी कीमत का सोना-चाँदी संसार में है ही नहीं। फिर आजकल जितने बड़े लेन-देन होते हैं वे सब नोट, चेक, हुण्डी आदि के द्वारा न किये जाये, केवल सोना-चाँदी लेकर ही बेचा जाय, तो व्यापार एक भी दिन न चले। इसके सिवा जो आदमी सोना-चाँदी को मूल्यवान ही न समझता हों, उसके साथ तो इनके द्वारा लेन-देन हो ही नहीं सकता। अब भी ऐसे लोग लाखों की संख्या में वनों और जंगलों में मौजूद हैं जो सोने के एक टुकड़े के बदले आपको कोई खाने-पहनने की चीज नहीं दे सकते। जंगलियों की ही बात नहीं योरोपीय महायुद्ध में एक बार भोजन सामग्री कम पड़ जाने पर सर्बिया के सिपाहियों को भोजन के बदले सोने की गिन्नियाँ दी गई तो उन्होंने उनको फेंक दिया।

इस प्रकार सोना-चाँदी वास्तविक संपत्ति नहीं हैं, पर स्वार्थी व्यापारियों ने उनको अपनी सुविधा के लिए सब प्रकार के खरीदने-बेचने का माध्यम बना रखा है जिससे उनका निकम्मा बिना आवश्यकता का सामान लोग चमक-दमक पर मोहित होकर खरीद लें, इसके लिए आजकल जान-बूझकर जीवन के शृंगार और विलासमय बनाया जाता है तब और कामुकता का प्रचार किया जाता है। जहाँ देखो वहीं तरह-तरह की शराबों, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू, चाय, सोड़ा लेमनेड आइसक्रीम की दुकानें, सिनेमा, वेश्याओं और जुए (सट्टे) की दुकानें, कामोद्दीपक तथा व्यभिचार को बढ़ाने वाले कपड़ों, यंत्रों और औषधियों की दुकानें सब की आँखों के सामने लगी हैं और हर तरह के भले-बुरे उपायों से खुले आम राह चलते लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींच रही हैं। अण्डों और माँस के ढेर बिक रहे हैं। पर उनमें किसी को कोई दोष दिखलाई नहीं पड़ता। इस सब का कारण यही है कि आजकल शासन और व्यापार का उद्देश्य मनुष्य को श्रेष्ठ बनाना और उन्हें भूख से बचाना नहीं है, किन्तु सब को विलासी बनाकर संसार का सोना-चाँदी अपने पास जमा करना है और उसके बल से दूसरों को दबा कर गुलाम बनाना है।

इसके मुकाबले में जब हम अपने प्राचीन संपत्ति शास्त्र पर विचार करते हैं तो जमीन आसमान का अन्तर दिखाई पड़ता है। हमारे यहाँ पहले जो कुछ लेन-देन और व्यापार होता था वह एक पदार्थ के बदले दूसरे पदार्थ को देकर ही किया जाता था। इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध विद्वान प्रो. राधा कमल मुकर्जी लिखते हैं कि ‘यहाँ के गाँवों का काम अब भी प्रायः गाँवों के भीतर ही चल जाता है। ग्राम अपने आप एक आर्थिक संघ हैं। गाँवों के किसान वहाँ रहने वालों के लिए आवश्यक सब प्रकार के खाद्य पदार्थ उत्पन्न करते हैं। लोहार हलों के लिए फाल तथा अन्य कृषि और घरेलू कार्यों के लिए लोहे की अन्य चीजें तैयार करता है। वह चीजें लोगों को देता है और इनके बदले में उनसे रुपये पैसे नहीं पाता, किन्तु वह उनके बदले में अपने ग्रामवासियों से भिन्न-भिन्न प्रकार के काम लेता है। कुम्हार उसे घड़े देता है, जुलाहा कपड़े देता है, तेली तेल दे जाता है। यही हाल अन्य देशों के करने वालों का है। ये सभी कारीगर किसानों से अन्न का वह भाग पाते हैं जो पीढ़ियों में बंधा हुआ चला आता है। इस तरह से सरकारी निर्वाहन मार्ग पर चलने से गाँव वालों को रुपये पैसे की जरूरत ही नहीं पड़ती।” चूँकि यह पद्धति स्वाभाविक और प्रकृति के अनुकूल है, इसी से हजारों वर्ष बीत जाने पर भी चली आ रही है। पर आधुनिक सम्पत्ति शास्त्र की प्रकृति विरुद्ध नीति का यह परिणाम है कि प्रति बीस वर्ष में एक भयंकर संसार व्यापी युद्ध हो जाता है और अब बढ़ते बढ़ते सर्वनाश की सम्भावना दिखलाई पड़ने लगी है। यह ध्रुव सत्य है कि जब तक इस प्रकार के अनर्थ मूलक आर्थिक सिद्धान्त संसार में प्रचलित रहेंगे मनुष्य कभी सुख-शाँति नहीं पा सकता। इन्हीं परिस्थितियों का निराकरण करने के उद्देश्य से पश्चिमीय देशों में समाजवाद अथवा साम्यवाद का आन्दोलन फैला है, पर उसमें भी अनेक अस्वाभाविक और मानवीय प्रकृति के प्रतिकूल बातें सम्मिलित हो गई हैं। इसलिए जब तक मनुष्य भारतीय आदर्श के अनुसार संग्रह की लालसा को दूर करके त्याग और सेवा की भावना को न अपनायेंगे तब तक उनका कल्याण संभव नहीं।


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