छह अवतार और मानवता की छह अवस्थाएं

March 1958

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(श्री जगत नारायण)

इस बात को बहुत लोग नहीं समझते कि भिन्न-2 मनुष्यों की भिन्न मानसिक श्रेणियाँ होती हैं। और इसलिए यदि हम उनकी सहायता करना चाहते हैं। तो हमें उनकी स्थिति के अनुकूल धर्म पर विचार करके उनके साथ व्यवहार करना चाहिए। पर हम ऐसा करने के बजाय अपने से भिन्न धर्म मानने वाले लोगों को धर्महीन या पतित मान कर उनको अपने जैसे ही रास्ते पर चलाना चाहते हैं। यह एक बड़ी भूल है इससे उन लोगों को लाभ के बजाय हानि ही पहुँचती है। उदाहरणार्थ भगवान ने गीता में कहा है कि निष्काम कर्म करना मनुष्य का परम कर्तव्य है। पर जो कोई इसी सिद्धान्त के बल पर सर्व-साधारण में निष्काम कर्म का प्रचार करना चाहें और इस बात की आशा करें कि सब लोग उनके उपदेश पर आचरण करेंगे वे कहाँ तक सफलता प्राप्त कर सकते हैं। भगवान ने स्वयं ही आगे चलकर अर्जुन को अन्य दो प्रकार के धर्मों का भी उपदेश दिया है। और भाँति-भाँति के प्रलोभनों द्वारा कार्य करने को उत्तेजित करने की चेष्टा की है।

मनुष्य जीवन की विभिन्न अवस्थाओं पर विचार करने के लिए अवतारों के चरित्र पर विचार करना विशेष उपयोगी है। क्योंकि हिन्दू शास्त्रों में जिन अवतारों का वर्णन किया गया है वे माननीय विकास के एक-एक युग के प्रतिनिधि हैं। भूतकाल में प्रकट होने वाले नौ अवतारों में से पहले तीन अवतार तो पशु जीवन से संबंध रखते हैं। उस समय पृथ्वी तल पर मनुष्य का आविर्भाव नहीं हुआ था। मानवता से सम्बन्ध रखने वाला सब से पहिला अवतार नृसिंह भगवान का है। यह जीव की उस अवस्था का सूचक है जब मनुष्य पशु जीवन से विकसित होकर मनुष्य श्रेणी में पैर रख रहा है। वह मनुष्य होते हुए भी अर्द्ध पशु होता है। इस अवस्था में जीवन में अधिकाँश पाश्विक वृत्तियाँ ही रहती हैं। यही जंगली अर्थात् आदिम मनुष्यों की अवस्था है। इस पाश्विक अवस्था में मनुष्य दूसरे मनुष्यों को मार कर भी खा जाता है। पर धीरे-धीरे कुछ दबाव और रुकावट उस पर अपने आप आने लगती हैं इससे वह यथासंभव अपनी जाति के लोगों अर्थात् मनुष्यों को छोड़कर और प्राणियों को मार कर अपना निर्वाह करने लगता है। ऐसे जंगली मनुष्यों पर हंसने या घृणा करने की कोई बात नहीं। प्रत्येक मनुष्य को आरम्भ काल में इसी अवस्था में होकर गुजरना पड़ता है। इतना ही नहीं वरन् अनेक जन्म प्रत्येक मनुष्य को इसी अवस्था में लेने पड़ते हैं। इस अवस्था को मनुष्य जीव का शैशवकाल अथवा शूद्रावस्था भी कह सकते हैं।

दूसरा अवतार वामन स्वरूप में हुआ। यह उस अवस्था का परिचायक है, जब जीव जंगली अवस्था से निकल कर आगे बढ़ता है। अर्थात् जब उसमें मनुष्य के कुछ अपूर्ण लक्षण प्रकट होने लगते हैं। इस अवस्था में जीव घोर पाश्विक अवस्था से पृथक होकर समाज के मध्य जीवन व्यतीत करने लगता है और समाज के नियमों से कुछ संबंध रखने लगता है। पर तब भी उसमें स्थूल वस्तुओं को अपने लिए ही ग्रहण करने की ऐसी प्रबल प्रवृत्ति रहती है कि वह चाहता है कि समस्त संसार की सम्पत्ति उसी को मिल जाय। वामन भगवान थे तो नाटे, पर जब दान से प्राप्त तीन डगों से पृथ्वी नापने लगे तो तीन ही डगों में तीनों लोकों को अपना लिया। साँकेतिक रूप से इसे प्रवृत्ति मार्ग का प्रथम अंग कह सकते हैं। इसको जीव की वैश्यावस्था भी कह सकते हैं। इसी के बाद निवृत्ति की भावना का उदय होने लगता है।

तीसरा अवतार परशुराम जी का है। परशुराम जी बड़े क्रोधी तथा शक्ति के उपासक बतलाये गये हैं। इससे जीव की उस अवस्था का भाव प्रकट होता है जब वह स्थूल पदार्थों को जमा करते-करते उनसे थक जाता है, उनमें उसको शांति नहीं मिलती है। इसलिए उनकी ओर से अपनी प्रवृत्ति को फेरता है। त्याग की ओर कुछ ध्यान जाता है। पर फिर भी इस मध्यावस्था में प्रवृत्ति ही अधिकतर उसको अपनी ओर खींच लेती है। वह उत्तम से उत्तम शक्ति को अपने ही भीतर रखना चाहता है। वह नहीं चाहता कि दूसरों को भी शक्ति मिले। इसको जीव की क्षत्रियावस्था का पूर्व भाग कह सकते हैं।

इसके बाद प्रवृत्ति और निवृत्ति की माध्यमिक अवस्था का दूसरा भाग आता है। इसमें भी मनुष्य दो प्रकार की परस्पर विरोधी व्यक्तियों के बीच में पड़ कर डाँवाडोल होता रहता है। इस प्रकार सब अवस्था में सदैव आन्तरिक शक्तियों की खींचातानी होती रहती है। पर अन्त में दैवी भावनायें पाश्विक भावनाओं को दबा देती हैं। श्री रामचन्द्र जी के जीवन को लीजिए। पारिवारिक जीवन हो अथवा राजनैतिक जीवन हो, सर्वत्र उनको दोनों ओर खींचने वाली शक्तियों के बीच में होकर अपना रास्ता निकालना पड़ा है। इसलिए उन्होंने अपने जीवन द्वारा यह प्रकट किया कि मनुष्यों को संसार में अन्य मनुष्यों के साथ अपने भिन्न-भिन्न संबंधों और कर्तव्यों को कैसे निबाहना चाहिए। पर उनके जीवन से एक बात और भी स्पष्ट रूप से प्रकट होती है कि किसी के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध कैसा भी घनिष्ठ क्यों न हो, पर अपने अन्तिम कर्तव्य का निश्चय करते समय सदा व्यक्तिगत भावों के ऊपर सिद्धान्तों को ही प्रधानता दी जानी चाहिए।

इसके बाद कृष्णावतार से जीव की उस अवस्था का अभिप्राय जान पड़ता है जो प्रवृत्ति और निवृत्ति के मध्य भाग के भगड़ोंडडडडड के तय हो जाने पर प्राप्त होती है। इस अवस्था में कोई विशेष संघर्ष नहीं रहता, न किसी से कुछ विशेष अभिप्राय रहता है फिर भी स्वाभाविक रीति से मनुष्य सदा अपने हृदय से समस्त प्राणियों की ओर प्रेम प्रवाहित करता रहता है। वृन्दावन के बालकृष्ण का स्मरण करते ही हृदय प्रेम से गदगद हो जाता है। उनकी प्रेम लीला की ओर ध्यान ले जाइये और देखिए उनकी वंशी की मधुर तान से किस प्रकार स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता, नदी-पर्वत आदि सभी एक भाव से प्रभावित होकर आकर्षित हो जाते थे। निवृत्ति मार्ग पर आरुढ़ पुरुषों से विश्वव्यापी प्रेम के फव्वारे इसी प्रकार अपने व्यक्तित्व को भुलाकर प्रेम स्वरूप हो जाता है और प्राणिमात्र के विकास के लिए स्वाभाविक रीति से उच्च कोटि के प्रभावों को प्रवाहित करता रहता है। इसको जीव की ब्राह्मण अवस्था कह सकते हैं।

इसके बाद बौद्ध अवतार से जीवन की जिस अवस्था का मान होता है उसे ब्राह्मणावस्था का उत्तर भाग कह सकते हैं। इसके पहले की अवस्थाओं में चरित्र गठन सेवा-भाव तथा निःस्वार्थता के पाठों में जीव को प्रवीणता प्राप्त हो गई रहती है। अब उस निःस्वार्थता तथा सेवा के बाद गुप्त आभ्यन्तरिक शक्तियों के विकास का समय आता है। इस जीवन में भी मनुष्य के सामने अनेक प्रकार की बाधायें आती हैं, तरह-तरह के प्रलोभन अत्यन्त मनोहर रूपों को धारण कर सामने खड़े हो जाते हैं। जो जीव इनसे किंचित मात्र विचलित न होकर अपने लक्ष्य में एक चित्त हो लगा रहता है। वह अन्त में अनेक प्रकार के शारीरिक तथा अन्य कष्टों के सहन करने के बाद मानवीय पूर्णता प्राप्त करता है। तब वह मनुष्य की गणना अथवा दर्जे से आगे बढ़ जाता है और सच्चे महात्माओं की श्रेणी में पहुँच जाता है।

स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्यों की ये अवस्थाएं सभी लोगों के लिए व्यापक रूप से लागू हैं। हम अवतारों के जीवन से अपने जीवन संबंधी अनेक उपदेशों को निकाल सकते हैं तथा उन्हें ग्रहण करके लाभ उठा सकते हैं। अभी तक हम अधिकतर रामावतार और कृष्णावतार के जीवनों से सरोकार रखते हैं। लेकिन हमको स्मरण रखना चाहिए कि नृसिंहावतार, वामनावतार तथा परशुरामवतार के जीवनों में भी हमारे लिए जानने योग्य अनेक आवश्यक उपदेश छिपे पड़े हैं। उनके भी न जानने से हमारा अपने जीवन संबंधी ज्ञान अपूर्ण ही रहेगा इसलिए हमें उनसे भी ज्ञान प्राप्त करके अपने जीवन को उन्नत करना चाहिए।

दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि सभी जीवन एक साथ किसी नीची या ऊंची श्रेणी में नहीं पहुँच सकते। आज भी जंगली अवस्था में लेकर महात्मा श्रेणी तक के जीवन मौजूद हैं। इसलिए मनुष्य मात्र के लिए एक से अधिक धार्मिक नियमों की कल्पना करना अज्ञानता का सूचक है। हमको विभिन्न श्रेणी के मनुष्य समुदायों के लिए उनकी योग्यता के अनुसार ही धार्मिक विधान का निर्माण करना उचित है जिससे वे स्वाभाविक रीति से अपना विकास कर सकें।


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