आध्यात्मवाद और भौतिकवाद

March 1958

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(डॉ. रामचरण महेन्द्र पी. एच. डी.)

आध्यात्मिकता आस्तिकों का मत है जबकि भौतिकवाद नास्तिकों का झमेला है। आध्यात्मवाद संकल्पमयी सूक्ष्म सृष्टि से सम्बन्ध रखता है। यह चर्म चक्षुओं से नहीं दीखता, पर इसका प्रभाव स्थायी और व्यापक होता है। अध्यात्मवादी ईश्वर पर अखण्ड विश्वास करता है। दूसरी ओर भौतिकवादी उस वस्तु की ओर भागता है जो प्रत्यक्ष हो, नेत्रों से दीखती हो, जिससे तुरन्त लाभ हो सके। आज का युग” खूब कमाओ, आवश्यकताएं बढ़ाओ, मजा उड़ाओ” की भ्रान्त धारणा में लगा है और सुख को दुःखमय स्थानों में ढूंढ़ रहा है। उसकी सम्पत्ति बढ़ी है; अमेरिका जैसे देशों में अनन्त सम्पत्ति भरी पड़ी है। धन में सुख नहीं है, अतृप्ति है; मृगतृष्णा है। संसार में शक्ति की कमी नहीं, आराम और विलासिता की नाना वस्तुएं बन चुकी हैं, किन्तु इसमें तनिक भी शान्ति या तृप्ति नहीं।

जब तक कोई मनुष्य या राष्ट्र ईश्वर में विश्वास नहीं रखता, तब तक उसे कोई स्थायी विचार का आधार नहीं मिलता। आध्यात्म हमें एक दृढ़ आधार प्रदान करता है। आध्यात्मवादी जिस कार्य को हाथ में लेता है, वह दैवी शक्ति से स्वयं ही पूर्ण होता है। भौतिकवादी साँसारिक उद्योगों से कार्य पूर्ण करना चाहता है लेकिन ये कार्य पूरे होकर भी शान्ति नहीं देते। भौतिकवादी को तुच्छ लाभ दीखता है वह उसी में मर जाता है। उस बेचारे को इतनी दूरदर्शिता नहीं कि यह जान ले कि ये साँसारिक वस्तुएं एक क्षण में विलुप्त हो सकती हैं।

आज का युग क्यों असन्तुष्ट है? इसका कारण यह है कि उसके सोचने, समझने, रहने और टिके रहने का आधार अस्थायी और क्षणभंगुर है। यदि वह आध्यात्मवाद को अपना ले तो उसे शान्ति और सामर्थ्य मिल सकता है।

जिस व्यक्ति में दैवी सम्पदा के 26 लक्षण पाए जाते हों वह आध्यात्मिक व्यक्ति कहला सकता है। वे गुण हैं आस्तिकता, अभय, अन्तःकरण की शुद्धि, सत असत का विवेक (ज्ञान) दान, जितेन्द्रियता, यज्ञ, स्वाध्याय, स्वधर्म-पालन, सरलता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, अनिंदा, दया, अलोभ, नम्रता, लज्जा, अचंचलता, गंभीरता, तेज, क्षमा, धैर्य, शौच, अद्रोह, मान की इच्छा न होना। इन विभूतियों से पूर्ण व्यक्ति को मानव कहते हैं। वह सतोगुण प्रधान होता है।

इसके विपरीत भौतिकवादी व्यक्तियों के आसुरी गुण होते हैं। इन व्यक्तियों में दम्भ होता है। वे कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। उनका पाखण्ड पग-पग पर हमारे सम्मुख आता है। दुःख है कि आज जो व्यक्ति अपने को आध्यात्मवादी कहते हैं, उनमें उपर्युक्त दैवी सम्पदा के गुण नहीं पाए जाते हैं। उनमें दर्प होता है। वे किसी के सामने सिर नहीं नवाते। अहंकार से परिपूर्ण रहते हैं। तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) के अनुसार अहंकार की भी तीन अवस्थाएं हो सकती हैं। यह सब अभिमान त्याज्य हैं। जिन व्यक्तियों में क्रोध, कठोरता और अज्ञान है आज के युग में इस प्रकार के व्यक्ति प्रायः पाये जाते हैं और वे ही अशान्ति के मूल कारण हैं।

आस्तिकता हमें ईश्वर पर श्रद्धा सिखाती है। हमें चाहिए कि ईश्वर को चार हाथ पाँवों वाला प्राणी न समझे। ईश्वर एक तत्व है, उसी प्रकार जैसे वायु एक तत्व है। वैज्ञानिकों ने वायु के अनेक उपभाग किये हैं ऑक्सीजन, नाइट्रोजन इत्यादि। इसके हर एक भाग को भी स्थूल रूप से वायु ही कहेंगे। इसी प्रकार एक तत्व जो सर्वत्र ओत-प्रोत है जो सब के भीतर है तथा जिसके भीतर सब कुछ है, वह परमेश्वर है। यह तत्व सर्वत्र है, सर्वत्र व्याप्त है। परमेश्वर हमारे ऋषि-मुनियों की सबसे बड़ी खोज है। इस शक्ति के तीन रूप हैं 1-उत्पादन करने वाला 2-पोषण करने वाला 3-नाश करने वाला। भारतीय संस्कृति में ये तीन शक्तियाँ तीन नामों से प्रचलित हैं-ब्रह्म, विष्णु और महेश। ये तीनों प्रत्यक्ष हैं। कोई उन्हें अस्वीकार नहीं कर सकता।

आज हमें अध्यात्म की अतीव आवश्यकता है। विषयों की भोगेच्छा विषयों के भोग से कभी शान्त होने वाली नहीं है, प्रत्युत और भी बढ़ जाने वाली है। त्याग और संयम से ही मन शुद्ध होता है और बुद्धि ज्ञान से। जितेन्द्रिय पुरुष ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है, विषयों में फंसा हुआ मनुष्य दुर्गति को प्राप्त होता है।

दूसरों के अनुशासन की अपेक्षा आत्मानुशासन का विशेष महत्व है। हमारी आत्म ध्वनि हमें सत्य के मार्ग की ओर प्रेरित कर सकती है। सत्य मार्ग से ही पृथ्वी स्थिर है, सत्य से ही रवि तप रहा है और सत्य से ही वायु बह रहा है। सत्य से ही सब स्थिर है। सत्य का ग्रहण और पाप का परित्याग करने को हमें सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए।

मानव जीवन साँसारिक क्षणिक भोग विलास के लिए नहीं बना है। जीवन का एकमात्र कर्तव्य आत्मा का साक्षात्कार करना है।


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