मानव सभ्यता का आदि स्रोत-भारतवर्ष

March 1958

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(श्री रघुनन्दन जी शर्मा)

यद्यपि योरोप के अधिकाँश इतिहास लेखकों ने अपनी कल्पना के आधार पर आर्यों को मध्य एशिया का निवासी बतलाया है कि यह भी लिखा है कि वहीं से वे भारतवर्ष में आये। पर भारतीय विद्वान उनके इस कथन से सहमत नहीं, क्योंकि यहाँ के सबसे प्राचीन साहित्य वेदों में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जिससे आर्यों का बाहर से आना प्रकट हो। उनके मतानुसार आर्यों का मूल निवास स्थान हिमालय का प्रदेश ही है जो ऊंचा होने के कारण सबसे पहले मनुष्यों के रहने लायक हुआ था। सन्तान की वृद्धि के कारण वहीं से निकलकर उत्तरी भारत में आये और वहाँ से संसार के अन्य अनेक भागों में जा पहुँचें। आर्यों के विदेश गमन का एक और भी कारण था। जो लोग सामाजिक प्रथा के विरुद्ध कार्य करते थे अथवा जिनका आचार-विचार नीचतापूर्ण जान पड़ता था, उनको समाज से बहिष्कृत करके देश से निकाल दिया जाता था। वे लोग ही जीवन निर्वाह के साधनों की खोज करते हुए दूरवर्ती देशों में जा बसते थे।

भारत से पश्चिम की ओर सबसे प्रथम अफरीदी, काबुली और बलूचियों के देश आते हैं। इन सब में इस्लाम का प्रचार होने के पूर्व आर्य ही निवास करते थे। यही पर गाँधार था, जिसकी गाँधारी- राजा धृतराष्ट्र की रानी थी। गाँधार को इस समय कंधार कहते हैं। इसी के पास राजा गजसिंह का बसाया गजनी शहर अभी तक विद्यमान है। काबुल में जो पठान जाति रहती है वह प्रतिष्ठान (झांसी) की रहने वाली चन्द्रवंशी क्षत्री जाति है। झांसी से आकर पहले यह सरहर पर बसी और वहाँ इसने प्रजा-सत्तात्मक शासन पद्धति स्थापित की। प्रजा सत्तात्मक शासन पद्धति को उस समय गणराज्य कहते हैं। अफरीदी लोग उस समय के गण लोग ही हैं। रायबहादुर चिन्तामणि विनायक वैद्य ने अपने ‘महाभारत मीमाँसा’ नामक ग्रन्थ में लिखा है कि -गणान उत्सवसंकेतान् दत्यून पर्वत वासिनः। अजयन सप्त पाण्डवाः।

अर्थात् “पर्वत निवासी दस्युओं के सप्त गणों को पाण्डवों ने जीत लिया” इन्हीं गणों ने जरा आगे बढ़कर ‘उपगण’ या ‘अफगान’ राज्य स्थापित किया। इसी को इस समय ‘अफगान’ कहते हैं और उनके रहने का देश ‘अफगानिस्तान’ कहलाता है। इसी तरह बलूचिस्तान भी ‘बलोच्च स्थान’ शब्द का अपभ्रंश है। इसमें ‘केलात’ नामक नगर अब तक विद्यमान है। यह ‘केलात’ तब का है जब ‘किरात’ नाम पतित आर्य क्षत्री यहाँ आकर बसे थे। मनुस्मृति में जहाँ अन्य पतित क्षत्रियों के नाम गिनाते हैं वहाँ “किराताः” यवनाः शकाः कहकर किरात भी गिनाये हैं। ये ही किरात नेपाल और भूटान में जाकर मंगोलियन जाति के मूल पुरुष भी बने हैं।

अफगानिस्तान के आगे दर्शन है, जिसको ‘पारग्य देश’ भी कहते हैं। यहाँ पहले वह जाति आबाद थी, जो आजकल हिन्दुस्तान में पारसी के नाम से प्रसिद्ध है। यह जाति अति प्राचीन काल में ही कार्यों से जुदा होकर ईरान में आबाद हुई थी। मैक्समूलर कहते है “यह बात भौगोलिक प्रमाणों से सिद्ध है कि पारसी लोग फारस में आबाद होने से पहले भारत में आबाद थे। उत्तर भारत से जाकर ही पारसियों ने ईरान में उपनिवेश बसाया था। वे अपने साथ वहाँ की नदियों के नाम ले गये। उन्होंने ‘सरस्वती’ के स्थान पर ‘हरहवती’ और सरयू के स्थान पर ‘हरयू’ नाम रखा। वे अपने साथ शहरों के नाम भी ले गये। उन्होंने ‘भरत’ को ‘फरत’ किया और वही ‘फरत’ बाद में ‘यूफरत’ बन गया। ‘ईरान’ भी ‘आर्यन’ से बिगड़ कर बना है।”

ईरान के पास ही अरब है। वैदिक भाषा में ‘अर्वन’ घोड़े को कहते है। जिस प्रकार गाओं के बड़े चारागाह को ‘ब्रज’ और भेड़-बकरी वाले देश को ‘गाँधार’ कहते है, उसी तरह जहाँ अच्छी जाति अरबी घोड़ा सर्वोपरि समझा जाता है। उत्तम घोड़े उत्पन्न होने से ही आर्यों ने इस देश का नाम ‘अर्व’ रखा था। स्मृतियों के पढ़ने वाले जानते हैं कि आर्यों से उत्पन्न एक वर्गाकार जाति को ‘शैख’ कहते हैं। यह संकर जाति ‘ब्राह्मण’ के योग से उत्पन्न होती है। मालूम होता है कि वही ‘शैख’ जाति अरब में बसकर ‘शेख’ हो गई, क्योंकि ‘शेखों’ का अरब में वही मान है जो भारत में ब्राह्मणों का है। यह प्रसिद्ध बात है कि मुसलमान होने के पहिले वहाँ के निवासी अपने को ब्राह्मण ही कहते थे। अरब से ही रामानुज सम्प्रदाय का मूल प्रचारक ‘यवनाचार्य’ सम्भवतः 6 वीं शताब्दी में, भारत आया था। उस समय मद्रास प्रान्त में शूद्र जाति पर महान अत्याचार हो रहे थे। उसी समय अरब देश से यवनाचार्य वहाँ आये और उन्होंने शूद्रों के उद्धार में सहायता पहुँचाई। ‘एशियाटिक रिसर्चेस’ के भाग 10 में, बिलफोर्ड नामक विद्वान का एक लेख छपा है जिसमें लिखा है कि “यवनाचार्य का जन्म अरब देश के एक ब्राह्मण कुल में हुआ था और अलेक्जैंड्रिया के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में उन्होंने शिक्षा पाई थी।

अरब से आगे चलकर मेडिटेरेनियन समुद्र के किनारे मेसोपोटामिया का प्रदेश है। प्राचीन काल में इसके फिनीशिया, बैबिलोनिया, चाल्डिया, असीनिया आदि राज्य इतिहास में प्रसिद्ध हो चुके है और वे ही योरोपियन सभ्यता के आदि गुरु माने जाते हैं। इतिहासकारों ने भली प्रकार सिद्ध कर दिया है कि ‘फिनासिया’ को बसाने वाले आर्य जाति के ‘पणि’ नामक लोग थे, जो मूलतः वैश्य वर्ण के थे, पर बेईमान, ठग और धन लोलुप होने के कारण आर्य सम्प्रदाय से बहिष्कृत कर दिये गये थे। उत्तर भारत से चलकर दक्षिण में इन लोगों ने ‘पाण्डव’ राज्य की स्थापना की। ये लोग जहाज बनाने की कला में भी निपुण थे। उन्हीं जहाजों में बैठकर वे फिनीसिया गए उन्हीं के साथ मद्रासी ‘चोल’ जाति के लोग भी वहाँ पहुँचे और उन्होंने ‘चाल्डिया’ के राज्य के स्थापना की। वहाँ पहुँचकर भी वे बहुत समय तक भारतवर्ष से व्यापार करते रहे, जिससे उन प्रदेशों में आर्य सभ्यता का प्रसार होता गया।

लोकमान्य तिलक ने भी आर्यों के इस विदेश गमन की बात को सत्य बतलाया है और वेद के अनेक शब्दों का मिलान ‘चाल्डिया’ के वेद की भाषा से करके सिद्ध किया है कि वे दोनों एक दूसरे से मिलती-जुलती हैं। उदाहरण देखिये :-

(संस्कृत) (चाल्डियन) (अर्थ)

सिनीवाले सिबुब्बुलि अमावस्या

अप्सु अब्जु पानी

यहृ यहवे महान

ऋतु इतु मौसम

परसु पिलक्क शास्त्र

अलिगी-विलगी विलगी सर्प देव

तैमात तिआमत देवता

उरुगुला उरुगुल देवता

जूडिया, यहूदियों का देश है, इसी में हजरत मूसा और हजरत ईसा जैसे जगत्प्रसिद्ध धर्माचार्य उत्पन्न हुए। इनके सम्बन्ध में पोकाक नामक विद्वान ने ‘इण्डिया इन ग्रीस’ नामक पुस्तक में लिखा है कि ‘युडा (जुडा) जाति भारत की यदु अर्थात् यदुवंशीय क्षत्रिय जाति ही है।” कहा जाता है कि राजा सागर ने इनको’यवन’ बनाकर देश से निकाल दिया, तब ये जूडिया में जाकर बस गये।

असीरिया में भी आर्यों का ही निवास था। ए. बेरीडोल कीथ ने वहाँ के सुबरदत्त और सुबन्धि आदि राजाओं के नाम से सिद्ध किया है कि वे आर्य ही थे। इन देशों के निवासियों को आर्य लोग ‘असुर’ कहा करते थे। इसलिए वे भी अपने नाम के साथ ‘असुर’शब्द का प्रयोग करते थे। इतिहास प्रसिद्ध बादशाह ‘असरु नासिरपाल’ और ‘असुर वंशीलाल’ इस बात के उदाहरण हैं। इनके नाम असुर शब्द के साथ आर्य भाषा के ही हैं।

उत्तर एशिया

जैसा इस लेख में बतलाया जा चुका है किरात लोग आर्य जाति से पतित क्षत्रिय थे। उनका एक दल तो बलूचिस्तान में जाकर बसा और दूसरा हिमाचल की तरफ गया। आजकल भी नेपाल में जितने ब्राह्मण हैं वे सब कान्यकुँज वंश के माने जाते हैं और जितने क्षत्रिय हैं वे सब अपने को सूर्यवंशी बतलाते हैं। कहा जाता है कि इनका सम्बन्ध उदयपुर के महाराणा से भी है किन्तु नेपाल में एक चपटे चेहरे वाली मंगोलियन जाति भी रहती है। यह जाति अति प्राचीन काल में आर्यों की ही एक शाखा थी। यह हजारों वर्ष पूर्व आर्य जाति से अलग होकर हिमालय के उत्तर की ओर वाली गहराई में जिसका नाम ‘चिना’ था बस गई, जिससे उसके आकार रंग भाषा आदि में बहुत अंतर आ गया। इन किरात और चीन जाति वालों के संयोग से ही मंगोलियन जाति की उत्पत्ति हुई है। यही नेपाल निवासी चपटे मुँह वाली जाति है। इस नवीन जाति का रंग बाल्मीकि रामायण में सुवर्ण का सा लिखा है ‘महाभारत मीमाँसा’ में भी प्रमाणित किया गया कि कौरवों व पाँडवों की गौर वर्ण स्त्रियों का रंग तप्त सुवर्ण सा था। इन बातों से मालूम होता है कि ये चपटे चेहरे तथा पीले रंगवाले मंगोलियन आर्य से भिन्न और किसी जाति के नहीं है।

नेपाल से आगे, हिमालय के नीचे रूसी तुर्किस्तान है। वहाँ बहुत पूर्वकाल से आर्यों का निवास रहा है। श्री उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने ‘मानवेर आदि जन्मभूमि’ नामक ग्रन्थ में लिखा है कि रूसी तुर्किस्तान अलताई अथवा ‘इलावर्त’ पर आर्य जाति का निवास था। ‘वायु पुराण’ में लिखा है :-

वेद्यर्द्ध दक्षिणे त्रीणि त्रीणि वर्षाणि चोत्ररे। तयोर्मध्ये तु विज्ञेयं मेरुमध्यमिलावृतम॥ तत्र देवगणाः सर्वे गन्धर्वोरगराक्षसाः। शैल राज्ये प्रमोदन्ते शुभाश्चाप्सरसाँगनाः॥

अर्थात् “इलावृतवर्ष के दक्षिण में हरिवर्ष, किम्पुरवर्ष और भारतवर्ष हैं और उत्तर की ओर सम्यकवर्ष, हिरण्यवर्ष और उत्तरकुरुवर्ष है। इनके बीच में इलावृतवर्ष है। इस वर्णन से स्पष्ट है कि मंगोलिया में आर्य लोगों ने ही अपना उपनिवेश बसाया था।

इसी प्रकार इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि भारतीय आर्यों ने ही बर्मा, चीन, जापान, आस्ट्रेलिया आदि देशों और महाद्वीपों में जाकर मानवीय सभ्यता का आरम्भ किया। आस्ट्रेलिया के विषय में तो पुराणों में से विदित होता है कि पुलस्त्य ऋषि ने वहाँ के राजा तृणाबिन्दु की पुत्री से विवाह किया जिससे रावण आदि की उत्पत्ति हुई। एशिया ही नहीं अफ्रीका और योरोप के निवासी भी अपने को आर्यों का वंशज सिद्ध करते हैं। भारतवर्ष के किरात जो एशिया माइनर में जाकर ‘केलात’ बन गये थे, योरोप में पहुँचने पर ‘केल’ जाति के कहलाने लगे। इसी प्रकार मद्रास की ‘भूल’ जाति अफ्रीका में पहुँचकर ‘जूलू’ के नाम से पुकारी जाने लगी। इतिहासकार टेलर ने अपनी ‘ओरिजिन आफ आर्यन्स” नामक पुस्तक में लिखा है कि ‘योरोप निवासी अफ्रीका और मंगोल निवासियों के मिश्रण से उत्पन्न हुए हैं और एशिया की असल आर्य भाषा बोलते हैं।” इतना ही नहीं पिछले कुछ वर्षों की खोज से यहाँ तक सिद्ध कर दिया गया है कि दक्षिण अमरीका की प्राचीन जातियाँ ‘माया’ ‘इन्का’ इत्यादि के रीति-रिवाज और देवी देवता पूर्ण रूप से भारतवर्ष से मिलते-जुलते हैं।

इस समस्त विवेचन से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मानवीय सभ्यता का आदि स्रोत भारतवर्ष ही है और समस्त संसार की मानव जातियाँ तथा सभ्यताएं उसी की शाखा-प्रशाखाएं हैं। यह बात दूसरी है कि प्रत्येक भूखण्ड के जलवायु ने उनकी सूरत शकल, रंग तथा भाषा में बहुत बड़ा अन्तर डाल दिया जो समय पाकर सर्वथा नवीन रूप में विकसित हो गया, पर खोज करने वाले विद्वानों को उसमें एकता के चिन्ह मिल ही जाते हैं। इस खोज का सबसे बड़ा आधार ‘भाषा’ ही है। जैसे पिता को संस्कृत में ‘पितृ’ कहते हैं तो फारसी में ‘पिदर’ और अंग्रेजी में ‘फादर’ कहते हैं। इसी प्रकार के और भी पचासों शब्द पाये जाते हैं। हजारों कोस के अन्तर पर बसने वाली और आचार-विचार, धर्म में सर्वथा पृथक जातियों की भाषा में यह एकता कहाँ से आई? इस प्रश्न का उत्तर विद्वानों ने केवल यही दिया है कि ये सब एक ही मूल की शाखाएं है। अब तक जितनी भी भाषाएं मिली हैं, उन सब में पुरानी वैदिक संस्कृत ही है और उसी से सब भाषाओं का निकलना सिद्ध होता है।


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